अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 122/ मन्त्र 3
अ॒न्वार॑भेथामनु॒संर॑भेथामे॒तं लो॒कं श्र॒द्दधा॑नाः सचन्ते। यद्वां॑ प॒क्वं परि॑विष्टम॒ग्नौ तस्य॒ गुप्त॑ये दम्पती॒ सं श्र॑येथाम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒नु॒ऽआर॑भेथाम् । अ॒नु॒ऽसंर॑भेथाम् । ए॒तम् । लो॒कम् । श्र॒त्ऽदधा॑ना: । स॒च॒न्ते॒ । यत् । वा॒म् । प॒क्वम् । परि॑ऽविष्टम् । अ॒ग्नौ । तस्य॑ । गुप्त॑ये । दं॒प॒ती॒ इति॑ दम्ऽपती । सम् । श्र॒ये॒था॒म् ॥१२२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्वारभेथामनुसंरभेथामेतं लोकं श्रद्दधानाः सचन्ते। यद्वां पक्वं परिविष्टमग्नौ तस्य गुप्तये दम्पती सं श्रयेथाम् ॥
स्वर रहित पद पाठअनुऽआरभेथाम् । अनुऽसंरभेथाम् । एतम् । लोकम् । श्रत्ऽदधाना: । सचन्ते । यत् । वाम् । पक्वम् । परिऽविष्टम् । अग्नौ । तस्य । गुप्तये । दंपती इति दम्ऽपती । सम् । श्रयेथाम् ॥१२२.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आनन्द की प्राप्ति करने का उपदेश।
पदार्थ
(दम्पती) हे स्त्री-पुरुषो ! [सत्कर्म को] (अन्वारभेथाम्) निरन्तर आरम्भ करो, (अनुसंरभेथाम्) मिल कर आरम्भ करते रहो, (श्रद्दधानाः) श्रद्धावाले लोग (एतम्) इस [स्वर्ग] (लोकम्) लोक को (सचन्ते) निरन्तर सेवते हैं। (अग्नौ) अग्नि में (पक्वम्) पका हुआ (यत्) जो [अत्र] (वाम्) तुम्हारे लिये (परिविष्टम्) उपस्थित है, (तस्य गुप्तये) उसकी रक्षा के लिये (सम् श्रयेथाम्) तुम दोनों परस्पर आश्रय लो ॥३॥
भावार्थ
सब स्त्री-पुरुष गृहस्थ आश्रम में यथावत् प्रवेश करके परमात्मा में श्रद्धा रखते हुए अपने कर्तव्य का यथावत् पालन करके सदा सुख भोगें ॥३॥
टिप्पणी
३−(अन्वारभेथाम्) निरन्तरमारम्भं कुरुतं समेत्य (अनुसंरभेथाम्) निरन्तरं संयुक्तौ भूत्वा आरम्भं कुरुतम् (एतम्) (लोकम्) दर्शनीयं स्वर्गम् (श्रद्धधानाः) श्रद्धावन्तः कर्मानुष्ठानतत्पराः (सचन्ते) सेवन्ते−निरु० ३।२१। (यत्) अन्नम् (वाम्) युवाभ्याम् (पक्वम्) पाकेन संस्कृतम् (परिविष्टम्) प्राप्तम् (अग्नौ) पावके (तस्य) अन्नस्य (गुप्तये) रक्षणाय (दम्पती) राजदन्तादिषु परम्। पा० २।२।३१। अत्र पाठात् जायाया दमभावो विपात्यते। भार्य्यापती (सम्) समन्तात् (श्रयेथाम्) श्रिञ् सेवायाम्, सेवेथाम् ॥
विषय
अतिथियज्ञ व देवयज्ञ
पदार्थ
१. हे (दम्पती) = पति-पत्नी! आप दोनों (अनुआरभेथाम्) = वेद के आदेश के अनुसार इन यज्ञों का प्रारम्भ करो, (अनुसंरभेथाम्) = आरम्भ करके इन यज्ञों में लगे रहो। इन यज्ञों को आरम्भ करना, आरम्भ किये हुए यज्ञों का परित्याग सर्वथा अनुचित है। (एतं लोकम) = यज्ञादि से प्राप्य इस स्वर्गलोक को (श्रद्दधानाः सचन्ते) = श्रद्धावाले-आस्तिक बुद्धिवाले लोग ही सेवन करते हैं, अत: इन यज्ञों में तुम्हारी श्रद्धा बनी ही रहे। आप दोनों [दम्पती] भी श्रद्धावाले बनो और (यत् वां पक्वम्) = आपका जो अन्न अतिथियज्ञ के लिए परिपक्व होता है तथा जो (अग्नौ परिविष्टम्) = हविरूप में अग्नि में प्रक्षिप्त होता है (तस्य) = उस देवयज्ञ और अतिथियज्ञ के (गुप्तये) = रक्षण के लिए (संश्रयेथाम्) = मिलकर उत्तम कर्मों का सेवन करनेवाले बनो। इन अतिथि व देवयज्ञों को करते हुए आप संसार के विषयों में बद्ध होने से बचे रहोगे और अजर व अमर बनकर स्वर्गोपम जीवन को प्राप्त करोगे।
भावार्थ
घर में पति-पत्नी यज्ञों का प्रारम्भ करें। प्रारम्भ किये हुए यज्ञों का त्याग कभी न करें। अतिथि-यज्ञ व देवयज्ञ को सुरक्षित रखते हुए वे सुखी जीवनवाले हों।
भाषार्थ
हे दम्पती ! (अनु आरमेथाम्) स्वर्गानुकूल जीवनचर्या आरम्भ करो; (अनु संरभेथाम्) तद्नुसार दोनों मिलकर जीवनचर्या आरम्भ करो, (श्रद्दधानाः) श्रद्धावाले (एतम्) इस (लोकम्) स्वर्गलोक का (सचन्ते) सेवन करते हैं, या इस लोक के साथ अपना सम्बन्ध करते हैं। (वाम्) तुम दोनों का (यत्) जो (पक्वम्) पका मन (अग्नौ) अग्नि में (परिविष्टम्) प्रविष्ट हुआ है, और ब्रह्मवेत्ताओं की जठराग्नि के निमित्त परोसा गया है, (तस्य गुप्तये) उसकी रक्षा के लिये, (दम्पती) हे जाया और पति तुम दोनों (संश्रयेथाम्) परस्पराश्रित होओ, या परस्पर की सेवा करो।
टिप्पणी
[सम्भवत: मन्त्र में पूर्वमन्त्रोक्त दानप्रधान गृहस्थ जीवन का निर्देश किया हो, और उसे स्वर्गलोक कहा हो। "पक्वम्" पद द्वारा सम्भवतः "वैश्वदेव" यज्ञ निर्दिष्ट किया हो। "वैश्वदेव" यज्ञ में पके अन्न की आहुतियां गृह्याग्नि में देनी होती हैं, और साथ ही ब्राह्मभोज कराने का भी निर्देश किया हो। सचन्ते = षच् समवाये, सेवने च (भ्वादिः)। श्रिञ् सेवायाम् (भ्वादिः)। दम्पती= अथवा "दमे गृहनाम" (निघं० ३।४), गृहस्थ के गृह के दोनों पति अर्थात् स्वामी। गृहस्थ के गृह पर दोनों का समान अधिकार।]
विषय
देवयान, पितृयाण और मोक्ष प्राप्ति।
भावार्थ
पितृयाण मार्ग का उपदेश करते हैं—हे (दम्पती) स्त्री पुरुषो! आप दोनों (एतं लोकं अनु आरभेथाम्) इस लोक के अनुकूल अपना गृहस्थ धर्म पालन करो और (श्रत्-दधानाः) इस लोक के लिये कर्म द्वारा प्राप्त फल को भी श्रत् = सत्य रूप से श्रमपूर्वक धारण पोषण करते हुए (अनु सं रभेथाम्) तदनुसार उत्तम रीति से सब कार्य सम्पादन करो। और (यत्) जो भी (वाम्) तुम दोनों का (पक्वम्) सुपक्व, उत्तम परिणाम, फल पुत्ररूप आदि (अग्नौ) अग्नि रूप गृहस्थाश्रम में (परिविष्टम्) प्राप्त हो (तस्य गुप्तये) उसकी रक्षा करने के लिये (सं श्रयेथाम्) परस्पर एक दुसरे का आश्रय लो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः विश्वकर्मा देवता। १-३ त्रिष्टुभः, ४-५ जगत्यौ। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Holy Matrimony
Meaning
O wedded couples, start living right now for the service of Divinity. Love and live together with Divinity. Those who love and work with faith in life and Divinity really enjoy this world as heaven on earth. Whatever your service, work and achievement perfected in the fire discipline of yajna, live and work together for the protection, promotion and extension of that in divine service.
Translation
O both of you, start to accomlish it; make determined effort to accomlish it. Those having unflinching faith attain this abode of happiness. Whatever ripe offerings you have made in fire of sacrifice, may both, the husband and wife, stand united to guard them with care.
Translation
O wife and husband! start and perform the yajnas in order, the faithful persons only attain and enjoy this life, whatever nice food is prepared and offered in the fire always be united and concordant in guarding thereof.
Translation
O husband and wife, begin performing noble deeds, begin them unitedly. The faithful enjoy this domestic life. Help each other in safeguarding the son, the excellent result of your domestic life!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(अन्वारभेथाम्) निरन्तरमारम्भं कुरुतं समेत्य (अनुसंरभेथाम्) निरन्तरं संयुक्तौ भूत्वा आरम्भं कुरुतम् (एतम्) (लोकम्) दर्शनीयं स्वर्गम् (श्रद्धधानाः) श्रद्धावन्तः कर्मानुष्ठानतत्पराः (सचन्ते) सेवन्ते−निरु० ३।२१। (यत्) अन्नम् (वाम्) युवाभ्याम् (पक्वम्) पाकेन संस्कृतम् (परिविष्टम्) प्राप्तम् (अग्नौ) पावके (तस्य) अन्नस्य (गुप्तये) रक्षणाय (दम्पती) राजदन्तादिषु परम्। पा० २।२।३१। अत्र पाठात् जायाया दमभावो विपात्यते। भार्य्यापती (सम्) समन्तात् (श्रयेथाम्) श्रिञ् सेवायाम्, सेवेथाम् ॥
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