अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 122/ मन्त्र 4
य॒ज्ञं यन्तं॒ मन॑सा बृ॒हन्त॑म॒न्वारो॑हामि॒ तप॑सा॒ सयो॑निः। उप॑हूता अग्ने ज॒रसः॑ प॒रस्ता॑त्तृ॒तीये॒ नाके॑ सध॒मादं॑ मदेम ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञम् । यन्त॑म् । मन॑सा । बृ॒हन्त॑म् । अ॒नु॒ऽआरो॑हामि । तप॑सा । सऽयो॑नि: । उप॑ऽहूता: । अ॒ग्ने॒ । ज॒रस॑: । प॒रस्ता॑त् । तृ॒तीये॑ । नाके॑ । स॒ध॒ऽमाद॑म् । म॒दे॒म॒ ॥१२२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञं यन्तं मनसा बृहन्तमन्वारोहामि तपसा सयोनिः। उपहूता अग्ने जरसः परस्तात्तृतीये नाके सधमादं मदेम ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञम् । यन्तम् । मनसा । बृहन्तम् । अनुऽआरोहामि । तपसा । सऽयोनि: । उपऽहूता: । अग्ने । जरस: । परस्तात् । तृतीये । नाके । सधऽमादम् । मदेम ॥१२२.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आनन्द की प्राप्ति करने का उपदेश।
पदार्थ
(मनसा) विज्ञान और (तपसा) तप अर्थात् उत्साह के साथ (सयोनिः) निवास करता हुआ मैं (यन्तम्) व्याप्तिशील (बृहन्तम्) सब में बड़े (यज्ञम्) पूजनीय ब्रह्म को (अन्वारोहामि) निरन्तर ऊँचा होकर प्राप्त करता हूँ। (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमेश्वर ! (जरसः) वयोहानि से (परस्तात्) दूर देश में (उपहूताः) बुलाये गये हम (तृतीये) तीसरे [जीव और प्रकृति से भिन्न] (नाके) सुखस्वरूप परमात्मा में (सधमादम्) हर्षोत्सव (मदेम) मनावें ॥४॥
भावार्थ
जो मनुष्य पूरण विज्ञान और तपस्या से परक्रम को खोज कर उपकारी होते हैं, वे अजर अमर होकर उस परमात्मा के साथ आनन्द भोगते हैं ॥४॥
टिप्पणी
४−(यज्ञम्) यजनीयं पूजनीयं परमात्मानं (यन्तम्) गच्छन्तं व्याप्तिशीलम् (बृहन्तम्) महान्तम् (अन्वारोहामि) निरन्तरमारुह्य प्राप्नोमि (मनसा) विज्ञानेन (तपसा) श्रमेण। उत्साहेन (सयोनिः) समानगृहः सन्। योनिः−गृहनाम−निघ० ३।४। (उपहूताः) आदरेणानुज्ञाताः (अग्ने) सर्वव्यापक परमात्मन् (जरसः) वयोहानेः सकाशात् (परस्तात्) परे दूरे देशे (तृतीये) जीवप्रकृतिभ्यां भिन्ने (नाके) सुखस्वरूपे परमात्मनि (सधमादम्) अ० ६।६२।२। सहर्षम् (मदेम) हृष्येम ॥
विषय
प्रभु-उपासना के साथ यज्ञमय जीवन
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = परमात्मन्! मैं (मनसा) = मनन-विचार के साथ तथा (तपसा) = तप के साथ (सयोनिः) = समान स्थान में निवास करता हुआ (यन्तम्) = जीवन में निरन्तर चलते हुए (बृहन्तम्) = वृद्धि के कारणभूत (यज्ञम् अनु) = यज्ञ के अनुसार (आरोहामि) = ऊपरले और ऊपरले लोक में आरोहण करता हूँ-(पृष्ठात्पृथिव्या अहमन्तरिक्षमारुह, अन्तरिक्षाद्दिवमारुहम्। दिवो नाकस्य पृष्ठात् स्वज्योतिरगामहम्) = मननशील व तपस्वी बनकर मनुष्य यज्ञों में प्रवृत्त होता है और उत्कृष्ट गति को प्राप्त करता है। ये यज्ञ उसकी वृद्धि-उन्नति का कारण बनते हैं। २. हे परमात्मन् ! इसप्रकार यज्ञशील बनकर हम (उपहूता:) = आपकी पुकार करते हुए [उपहूतम् अस्य अस्ति इति उपहूतः] आपकी उपासना करते हुए (जरस: परस्तात्) = बुढ़ापे की समासि पर (तृतीये नाके) = प्रकृति व जीवन के क्षेत्र से ऊपर उठकर परमात्मरूप तृतीय मोक्षलोक में [न अकं दुःखम् अस्मिन् इति] (सधमाद मदेम) = आपके साथ आनन्द का अनुभव करें।
भावार्थ
प्रभु की उपासना के साथ यज्ञमय जीवन मोक्ष का साधक है।
भाषार्थ
(बृहन्तम्) महान् (यज्ञम्) गृहस्थ-साध्य-यज्ञ को (मनसा) विचार या मनन द्वारा (यन्तम् अनु) चालू करने के पश्चात्, (तपसा) तपश्चर्या द्वारा (आरोहामि) मैं स्वर्गीय जीवन के पथ पर आरूढ़ होता हूं, और (सयोनिः) जगद् की योनिरूप ब्रह्म के साथ वास करता हूं। (अग्ने) हे अग्रणी ब्रह्म ! (जरसः परस्तात्) जरावस्था के पश्चात् (उपहूताः) तुझ द्वारा समीप बुलाए गये हम, (तृतीये नाके) तीसरे लोक में (सधमादम्) तेरे साथ रहते हुए तुझ आनन्दमय को प्राप्त कर (मदेम) हम आनन्दित रहें।
टिप्पणी
[इन मन्त्रों में “पक्वम्, अग्नौ, परिविष्टम् यज्ञम् बृहन्तम्" शब्दों द्वारा गृहस्थ जीवन के "पञ्चमहायज्ञ" सूचित होते हैं। सयोनिः= योनि है जगद् की योनिः "ब्रह्म"। तृतीये नाके = नाक का अर्थ है "कमिति सुखनाम तत्प्रतिषिद्धं प्रतिषिध्येत" (निरुक्त २।४।१४), अर्थात् नाक है वह जिस में न सुख है न सुखाभाव अर्थात् दुःख। सुख है ऐन्द्रियिक। परमेश्वर आनन्दस्वरूप है, उसमें न ऐन्द्रियिक सुख है, न इन्द्रिय सम्बन्धी सुखाभाव, दुःख। अथवा द्यौः, स्वः, तथा नाक१ में नाक है (तृतीय)। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ तथा वानप्रस्थ में वानप्रस्थ है (तृतीय)। प्रकृति, जीवात्मा तथा परमात्मा में परमात्मा है (तृतीय)। नाकम् = सब दुःख रहित मुक्तिमुख (यजु० ३१।१६, दयानन्द)। अथवा "ब्राह्म: त्रिभूमिको लोकः, प्राजापत्यः ततो महान् माहेन्द्रः स्वरियुक्त, दिविताराः भुवि प्रजा (योगव्यास भाष्य, भुवनज्ञान सूर्ये संयमात्, विभूतिपाद सूत्र २६), सम्भवतः "ब्राह्मः त्रिभूमिको लोकः" = तृतीयलोक अर्थात् तृतीय नाक। इस लोक में केवल ब्रह्म ही है, प्राकृतिक जगत् की सत्ता नहीं। ये विकल्प केवल विचारार्थ लिखे हैं।] [१. "येन द्यौरुग्रा पृथिवी च द्दढा येन स्वः स्तभितं येन नाकः" (यजु० ३२।६), तथा "ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः” (यजु० ३१।१६)।]
विषय
देवयान, पितृयाण और मोक्ष प्राप्ति।
भावार्थ
देवयान मार्ग का उपदेश करते हैं—मैं (तपसा) तपस्या द्वारा (मनसा) मनःशक्ति द्वारा (यन्तं) प्राप्त होनेवाले (बृहन्तम्) उस महान् (यज्ञम्) पूजनीय, प्राप्य परम वेद्य, वेदनीय ईश्वर को, (सयोनिः) एकमात्र उसका अनन्य आश्रय लेकर, (अनु आरोहामि) प्राप्त होऊं। हे अग्ने ! प्रकाशस्वरूप प्रभो ! (जरसः परस्तात्) इस जरा, बुढ़ापे के गुजरने के बाद हम लोग (उपहूताः) मानो ईश्वर से बुलाये हुए होकर (तृतीये नाके) तृतीय, परम, तीर्णतम, लोक में (सधमादम्) सब मुक्त आत्मा ब्रह्म के साथ परम आनन्द का अनुभव करते हुए (मदेम) परम सुख का लाभ करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः विश्वकर्मा देवता। १-३ त्रिष्टुभः, ४-५ जगत्यौ। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Holy Matrimony
Meaning
O Lord of light and fire of life, Agni, living here on earth with the fervour and discipline of divine service with heart and soul, we rise in the scale of the universal, expansive and rising yajna of life’s evolution. We pray that, thus called in on earth, we may live and enjoy life till full old age and after in the happy state of the third heaven of the spirit beyond the pleasures of body and mind.
Translation
Following the great sacrifice, which is going to the enlightened ones, I of the same origin, ascend to the heaven with will and fervor. O adorable Lord, beyond old age, having been called up, may we live in happiness jointly in the third sorrowless world.
Translation
I full of zeal mount in spirit after performing the grand continuous yajnas with the spirit of austerity and deliberate mind, May we the performer of yajnas like invited ones, beyond old age or decay, attain communion with God in the third heaven, the state of emancipation.
Translation
Through austerity and mental vigor, depending upon His sole support, I attain to the Almighty Father, Worthy of attainment. O Refulgent God, after reaching old age, as if invited by Thee, may we feast and enjoy with Thee, in Thy third stage higher than Matter and soul!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(यज्ञम्) यजनीयं पूजनीयं परमात्मानं (यन्तम्) गच्छन्तं व्याप्तिशीलम् (बृहन्तम्) महान्तम् (अन्वारोहामि) निरन्तरमारुह्य प्राप्नोमि (मनसा) विज्ञानेन (तपसा) श्रमेण। उत्साहेन (सयोनिः) समानगृहः सन्। योनिः−गृहनाम−निघ० ३।४। (उपहूताः) आदरेणानुज्ञाताः (अग्ने) सर्वव्यापक परमात्मन् (जरसः) वयोहानेः सकाशात् (परस्तात्) परे दूरे देशे (तृतीये) जीवप्रकृतिभ्यां भिन्ने (नाके) सुखस्वरूपे परमात्मनि (सधमादम्) अ० ६।६२।२। सहर्षम् (मदेम) हृष्येम ॥
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