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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 38/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वा देवता - बृहस्पतिः, त्विषिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - वर्चस्य सूक्त
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    रा॑ज॒न्ये दुन्दु॒भावाय॑ताया॒मश्व॑स्य॒ वाजे॒ पुरु॑षस्य मा॒यौ। इन्द्रं॒ या दे॒वी सु॒भगा॑ ज॒जान॒ सा न॒ ऐतु॒ वर्च॑सा संविदा॒ना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रा॒ज॒न्ये᳡ । दु॒न्दु॒भौ । आऽय॑तायाम् । अश्व॑स्य । वाजे॑ । पुरु॑षस्य । मा॒यौ । इन्द्र॑म् । या । दे॒वी । सु॒ऽभगा॑ । ज॒जान॑ । सा । न॒: । आ । ए॒तु॒ । वर्च॑सा । स॒म्ऽवि॒दा॒ना ॥३८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    राजन्ये दुन्दुभावायतायामश्वस्य वाजे पुरुषस्य मायौ। इन्द्रं या देवी सुभगा जजान सा न ऐतु वर्चसा संविदाना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    राजन्ये । दुन्दुभौ । आऽयतायाम् । अश्वस्य । वाजे । पुरुषस्य । मायौ । इन्द्रम् । या । देवी । सुऽभगा । जजान । सा । न: । आ । एतु । वर्चसा । सम्ऽविदाना ॥३८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 38; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ऐश्वर्य पाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (राजन्ये) क्षत्रिय में, (आयतायाम्) फली हुई (दुन्दुभौ) दुन्दुभी में, (अश्वस्य) घोड़े के (वाजे) बल में, (पुरुषस्य) मनुष्य के (मायौ) पित्त या शब्द में [जो ज्योति है] (या) जिस... म० १ ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(राजन्ये) अ० ५।१७।९। क्षत्रियकुले (दुन्दुभौ) अ० ५।२०।१। बृहड्ढक्कायाम् (आयतायाम्) दीर्घायाम् (अश्वस्य) तुरङ्गस्य (वाजे) बले (पुरुषस्य) मनुष्यस्य (मायौ) कृवापाजिमि०। उ० १।१। इति मिञ् प्रक्षेपणे−उण् अथवा माङ् माने शब्दे च−यु। पित्ते। शब्दे। अन्यद्गतम् ॥

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    विषय

    हस्तिनि-पुरुषस्य मायौ

    पदार्थ

    १. (या त्विषि:) = जो दीप्ति (हस्तिनि) = गजेन्द्र में, (द्वीपिनि) = तरक्षु [चीते] में है, (या) = जो दीप्सि (हिरण्ये) = स्वर्ण में है, जो (अप्सु) = जलों में, (गोषु) = गौओं में (या) = जो (पुरुषेषु) = पुरुषों में दीप्ति है। २. जो दीप्ति (रथे) = रथ में है, (अक्षेषु) = रथ के अक्षों [Axles] में है तथा (ऋषभ्यस्य वाजे) = ऋषभ [साँड] के वेगयुक्त गमन में है, जो दीति (वाते) = वायु में है, (पर्जन्ये) = मेघ में है, (वरुणस्य शुष्मे) = जो दीति सूर्य के प्रखर ताप में है-सूर्य के सुखानेवाले ताप में है। ३. जो दीप्ति (राजन्ये) = अभिषिक्त राजा के पुत्र [राजन्य] में है, जो दीति (दुन्दुभौ आयतायाम्) = आयप्यमान आताड्यमान दुन्दुभि में है जो दीप्ति (अश्वस्य वाजे) = घोड़े के वेगयुक्त गमन में है और जो (पुरुषस्य मायौ) = पुरुष की उच्चै?षलक्षण शब्द में है-४. यह सब दीप्ति वह है (या) = जोकि (देवी) = दिव्य है, (सुभगा) = हमें उत्तम सौभाग्यशाली बनाती है और यह दीति अपने निर्माता (इन्द्रम्) = इन्द्र देवता की महिमा को (जजान) = प्रादुर्भूत करती है। (सा) = वह दीप्ति (वर्चसा संविदाना) = रोगनिवारक शकि [Vitality] के साथ ऐकमत्यवाली होती हुई (नः ऐतु) = हमें प्राप्त हो।

    भावार्थ

    हमारा जीवन प्रभु-दीप्ति से उज्ज्वल हो। यह दीसि हमें वर्चस् प्राप्त कराती हुई प्रभु के समीप प्राप्त कराए।

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    भाषार्थ

    (राजन्ये) रागयुक्त क्षत्रिय में, (दुन्दुभं) ढोल में, ( आयतायाम् ) धनुष् में चढ़ाई डोरी [ज्या] में, (अश्वस्य वाजे) अश्व की गति में, ( पुरुषस्य) पुरुष के (मायौ) शब्द में [जो दीप्ति है, "सा ऐतु", वह ( न:) हमें प्राप्त हो] (इन्द्रम्) आदि पूर्ववत् ।

    टिप्पणी

    [राजन्ये= 'सोऽरज्यत ततो राजन्योऽजायत'। "स विशोनु व्यचलत" (अथर्व० काण्ड १५। अनुवाक २, पर्याय १। मन्त्र १; तथा (अथर्व का० १५। अनुवाक २। पर्याय २। मन्त्र १)। अर्थात् वह क्षत्रिय रागयुक्त हुआ [रञ्ज रागे, दिवादिः], तत्पश्चात् "राजन्य" हुआ। "वह प्रजाओों के अनुकूल होकर चला"। अभिप्राय यह कि क्षत्रिय जब प्रजाओं में राग अर्थात् अनुराग वाला होता है तो वह "राजन्य" कहाता है। प्रजाओं में अनुराग के कारण वह प्रजाओं की अनुकूलता में राज्य करता है। अत: राजन्य में दीप्ति है-प्रजाओं में अनुराग और प्रजाओं की अनुकलता में शासन करना। दुन्दुभि= ढोल जब बजता है तब लोगों का ध्यान उस की ओर आकृष्ट हो जाता है। अतः ध्यानाकर्षण उसकी दीप्ति है। आयत-धनुष भय का कारण होता है । अत: भय प्रदत्व उसकी दीप्ति है। अश्व की चाल में शान यह अश्व की चाल में दीप्ति है। वाजे = वज व्रज गतौ। पुरुषस्य मायौ = मन्त्र २ में "पुरुषेषु" द्वारा पुरुषनिष्ठ दीप्ति का वर्णन हुआ है। मन्त्र ४ में पुरुष की “मायु" में की दीप्ति का कथन हुआ है। मायुः= पित्त (उणा० १।१, दयानन्द भाष्य), पित्त प्रकृतिक पुरुष में क्रोध होता है यह उसकी दीप्ति है।

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    विषय

    तेज की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (राजन्ये) राजा में (आयतायाम् दुन्दुभौ) कसे कसाये नियमपूर्वक बजनेवाले मारू बाजे में (अश्वस्य वाजे) घोड़े के वेग में और (पुरुषस्य मायौ) वीर पुरुष के उच्च स्वर के नाद में जो शक्ति है और जो (देवी) दिव्य (सुभगा) सौभाग्यकारिणी शक्ति (इन्द्र जजान) राजा को बनाती है (सा) वह (नः) हमें (वर्चसा सं-विदाना) ब्रह्मतेज से युक्त करती हुई (नः आ-एतु) हमें प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वर्चस्कामोऽथर्वा ऋषिः। बृहस्पति रुतत्विषिर्देवता। त्रिष्टुप् छन्दः॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Energy and Splendour of Life

    Meaning

    The light and lustre in the ruling power, the inspiring boom in the tensioned war drum, the agility in the strength and endurance of the war horse, the heroic self-confidence in man’s wondrous manliness, that divine light, splendour and majesty of life which creates, consecrates and confirms the ruling power, Indra, may come to us, bearing the lustrous grandeur of life, and bless us.

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    Translation

    Brilliance that is in a nobility, in the well-stretched arrow on a bow, in a war-drum, in horse’s vigour and in the roar of a fighting man; which divine and fortunate gives birth to the resplendent one, may she come to us overflowing with lustre.

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    Translation

    Whatever glamour of energy is found in warrior in the stretched war-drum announcing battle, in the mettle of horse, in the roar of man and the brilliant and mighty that glamour which gave birth to Indra, the electricity, come unto us accompanied with strength and vigor.

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    Translation

    Whatever energy that is found in the warrior, in the war-drum stretched for battle, in the horse's speed, and in the man’s roar, and the blessed spiritual force that makes a man a king, may that come unto us conjoined with strength and vigor.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(राजन्ये) अ० ५।१७।९। क्षत्रियकुले (दुन्दुभौ) अ० ५।२०।१। बृहड्ढक्कायाम् (आयतायाम्) दीर्घायाम् (अश्वस्य) तुरङ्गस्य (वाजे) बले (पुरुषस्य) मनुष्यस्य (मायौ) कृवापाजिमि०। उ० १।१। इति मिञ् प्रक्षेपणे−उण् अथवा माङ् माने शब्दे च−यु। पित्ते। शब्दे। अन्यद्गतम् ॥

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