अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 45/ मन्त्र 3
ऋषिः - यम
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दुःष्वप्ननाशन
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यदि॑न्द्र ब्रह्मणस्प॒तेऽपि॒ मृषा॒ चरा॑मसि। प्रचे॑ता न आङ्गिर॒सो दु॑रि॒तात्पा॒त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । इ॒न्द्र॒ । ब्र॒ह्म॒ण॒: । प॒ते॒ । अपि॑ । मृषा॑ । चरा॑मसि । प्रऽचे॑ता: । न॒: । अ॒ङ्गि॒र॒स॒: । दु॒:ऽइ॒तात् । पा॒तु॒ । अंह॑स: ॥४५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यदिन्द्र ब्रह्मणस्पतेऽपि मृषा चरामसि। प्रचेता न आङ्गिरसो दुरितात्पात्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । इन्द्र । ब्रह्मण: । पते । अपि । मृषा । चरामसि । प्रऽचेता: । न: । अङ्गिरस: । दु:ऽइतात् । पातु । अंहस: ॥४५.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मानसिक पाप के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(ब्रह्मणस्पते) हे बड़े-बड़े लोकों के स्वामी (इन्द्र) सम्पूर्ण ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर ! (यत् अपि) जो कुछ भी पाप (मृषा) असत्य व्यवहार से (चरामसि) हम करें। (आङ्गिरसः) ज्ञानियों का हितकारी (प्रचेताः) बड़ी बुद्धिवाला परमात्मा (नः) हमें (दुरितात्) दुर्गति और (अंहसः) पाप से (पातु) बचावे ॥३॥
भावार्थ
जो मनुष्य न्यायकारी परमात्मा का ध्यान रखते हैं, वे पापों से बचकर सुखी रहते हैं ॥३॥
टिप्पणी
३−(यत् अपि) यत्किञ्चिदपि पापम् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर (ब्रह्मणस्पतेः) बृहतां लोकानां पालक (मृषा) असत्यव्यवहारेण (चरामसि) चरामः। वयं कुर्मः (प्रचेताः) प्रकृष्टज्ञानोपेतः परमेश्वरः (नः) अस्मान् (आङ्गिरसः) अङ्गिरस्−अण्। अङ्गिरोभ्यो ज्ञानिभ्यो हितः (दुरितात्) दुर्गतेः। कष्टात् (पातु) रक्षतु (अंहसः) पापात् ॥
विषय
प्रचेता: आङ्गिरस:
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन्! (ब्रह्मणस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो! हम (यत् अपि) = जो कुछ भी (मृषा) = असत्य (चरामसि) = आचरण कर बैठते हैं, (प्रेचेता:) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले, (आङ्गिरस:) = शक्तिसम्पन्न आप (न:) = हमें उस (दुरितात्) = दु:ख-प्रापक (अंहसः) = पाप से (पातु) = बचाएँ।
भावार्थ
ज्ञान व शक्ति का सम्पादन करते हुए हम पापों से ऊपर उठे।
भाषार्थ
(ब्रह्मणस्पते) ब्रह्मवेद के अधिपति या मन्त्राधिपति (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवान् परमेश्वर ! (यद् अपि) जो भी (मृषा चरामसि) मिथ्याचरण हम करते हैं [आप की प्रेरणा से] (आङ्गिरसः) प्राणायामादि योगाङ्गों से सम्पन्न, (प्रचेताः) प्रकृष्ट ज्ञानी योगी, (नः) हमें (दुरितात्) दुष्परिणामी (अंहसः) पाप से (पातु) सुरक्षित करे।
टिप्पणी
[मिथ्याचरण= दुष्कर्म (मन्त्र २)। अङ्गिराः प्राणः। यथा "प्राणो वा अङ्गाना रसः" बृहद्० उप० (अध्याय १। ब्राह्मण ३। सन्दर्भ १९)]।
विषय
मानस पाप के दूर करने के दृढ़ संकल्प की साधना।
भावार्थ
हे इन्द्र ! ऐश्वर्यवान् हे (ब्रह्मणस्पते) समस्त ब्रह्मज्ञान के परिपालक ! (यद् अपि) जब जब भी हम (मृषा चरामसि) असत्य और छल कपट का आचरण करते हैं तू उनको (प्रचेताः) खूब भली प्रकार जानता है। तू (आंगिरसः) प्रकाशस्वरूप, तेजोमय शादी होकर (नः) हमें (दुरितात्) बुरे निन्दनीय (अहंसः) पाप से (पातु) पालन कर।
टिप्पणी
‘यदिन्द्र ब्राह्मणस्पतेभि द्रोहं चरामसि प्रचेता न आङ्गिरसो’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रचेताः, अंगिरा यमश्च ऋषिः। दुःस्वप्ननाशनं देवता। १ पथ्यापंक्तिः। २ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Go off Negative Thoughts
Meaning
O lord of universal power, Indra, O lord of Infinity, Brahmanaspati, whatever wrong or sinful we commit in life, in our thought and behaviour, may Pracheta, lord of knowledge and giver of self-awareness, Angirasa, giver of living vibrancy of life, protect us against that evil and save us from sin.
Translation
O resplendent Lord, O Lord of divine knowledge, whatever (sin) we have committed through false-hood, may the fiery and conscientious one free us from that abominable (amhasah) sin.
Translation
O Almighty God of Vedic speech! whatever false action and troublesome sin we plan to do let the provident wise save us from that.
Translation
O Glorious God, the Lord of the universe, whatever foolish deed we plan, may Thou, the Wise God, the Lover of the learned, preserve us from that woeful sin.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(यत् अपि) यत्किञ्चिदपि पापम् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर (ब्रह्मणस्पतेः) बृहतां लोकानां पालक (मृषा) असत्यव्यवहारेण (चरामसि) चरामः। वयं कुर्मः (प्रचेताः) प्रकृष्टज्ञानोपेतः परमेश्वरः (नः) अस्मान् (आङ्गिरसः) अङ्गिरस्−अण्। अङ्गिरोभ्यो ज्ञानिभ्यो हितः (दुरितात्) दुर्गतेः। कष्टात् (पातु) रक्षतु (अंहसः) पापात् ॥
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