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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 71/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अग्निः छन्दः - जगती सूक्तम् - अन्न सूक्त
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    यन्मा॑ हु॒तमहु॑तमाज॒गाम॑ द॒त्तं पि॒तृभि॒रनु॑मतं मनु॒ष्यैः। यस्मा॑न्मे॒ मन॒ उदि॑व॒ रार॑जीत्य॒ग्निष्टद्धोता॒ सुहु॑तं कृणोतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । मा॒ । हु॒तम् । अहु॑तम् । आ॒ऽज॒गाम॑। द॒त्तम् । पि॒तृऽभि॑: । अनु॑ऽमतम् । म॒नु॒ष्यै᳡: । यस्मा॑त् । मे॒ । मन॑: । उत्ऽइ॑व । रार॑जीति । अ॒ग्नि: । तत् । होता॑ । सुऽहु॑तम् ।कृ॒णो॒तु॒ ॥७१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यन्मा हुतमहुतमाजगाम दत्तं पितृभिरनुमतं मनुष्यैः। यस्मान्मे मन उदिव रारजीत्यग्निष्टद्धोता सुहुतं कृणोतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । मा । हुतम् । अहुतम् । आऽजगाम। दत्तम् । पितृऽभि: । अनुऽमतम् । मनुष्यै: । यस्मात् । मे । मन: । उत्ऽइव । रारजीति । अग्नि: । तत् । होता । सुऽहुतम् ।कृणोतु ॥७१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 71; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    दोषों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (हुतम्) दिया हुआ [माता-पिता आदि से पाया हुआ], अथवा (अहुतम्) न दिया हुआ [स्वयं प्राप्त किया], (पितृभिः) दूसरे विद्वान् महाशयों करके (दत्तम्) दिया हुआ और (मनुष्यैः) मननशील पुरुषों करके (अनुमतम्) अङ्गीकार किया हुआ (यत्) जो कुछ द्रव्य (मा) मुझ को (आजगाम) प्राप्त हुआ है। (यस्मात्) जिसके कारण से (मे) मेरा (मनः) मन (उत् इव) उदय होता हुआ सा (रारजीति) अत्यन्त शोभित रहता है, (होता) दाता (अग्निः) सर्वव्यापक परमेश्वर (तत्) उसको (सुहुतम्) धार्मिक रीति से स्वीकार किया हुआ (कृणोतु) करे ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को जो कुछ पदार्थ अन्य महाशयों से अथवा अपने पुरुषार्थ से मिले, उसे विचारपूर्वक धार्मिक रीति से व्यय करें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यत्) द्रव्यम् (मा) माम् (हुतम्) दत्तं मातापित्रादिभिः (अहुतम्) अदत्तं स्वपौरुषेण प्राप्तम् (आजगाम) प्राप (दत्तम्) वितीर्णम् (पितृभिः) पालनशीलैर्महात्मभिः (अनुमतम्) अङ्गीकृतम् (मनुष्यैः) अ० ३।४।९। मननशीलैः पुरुषैः (यस्मात्) कारणात् (मे) मम (मनः) चित्तम् (उत् इव) उन्नतं यथा (रारजीति) राजृ दीप्तौ ऐश्वर्ये च, यङ्लुकि छान्दसमुपधाह्रस्वत्वम्। रारजीति। भृशं दीप्यते शोभते। अन्यद्गतम् ॥

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    विषय

    यज्ञ-विनियोग द्वारा ही उपयोग

    पदार्थ

    १. (यत्) = जो (हुतम्) = यज्ञिय अथवा (आहुतम्) = अयज्ञिय धन (मा) = मुझे (आजगाम्) = प्राप्त हुआ है, जो (पितृभिः दत्तम्) = मुझे अपने से बड़ों-पिता आदि से दिया गया है, जो (मनुष्यैः अनुमतम्) = मनुष्यों से अनुमत हुआ है, अर्थात् जिसमें समाज दोष नहीं देखती। (यस्मात्) = जिससे मे (मनः) = मेरा मन (उत् रारजीति इव) = खूब ही दीप्ता-सा होता है, (तत्) = उस सब धन को वह (होता अग्नि:) = सर्वप्रद अग्रणी प्रभु (सहतं कृणोतु) = सुहुत करने की कृपा करें। मैं उस धन का यज्ञों में विनियोग करके ही उपयोग करूँ।

    भावार्थ

    हम प्राप्त धनों का यज्ञों में विनियोग करके ही उपयोग करें।

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    भाषार्थ

    (पितृभिः) माता, पिता, आचार्यरूपी पिताओं द्वारा (दत्तम्) दिया गया (हुतम्) यज्ञाग्नि में हुत हुआ अर्थात हुतशेष तथा (मनुष्यैः) मनुष्यों द्वारा (अनुमतम्) अनुज्ञात (यत्) जो (अहुतम्) यज्ञाग्नि में हुत न हुआ (मा आ जगाम) मुझे अन्न प्राप्त हुआ है, (यस्मात्) जिस अन्न से (मे मनः) मेरा मन (इव) मानो (उद् रारजोति) उद्धर्षित हुआ है, या राग युक्त हुआ है, (तत्) उसे (होता) सबका दाता (अग्निम्) परमेश्वर सुहुतम्) उत्तम यज्ञशेषरूप (कृणोतु) करे।

    टिप्पणी

    [प्राप्त अन्न दो प्रकार का है, हुत और अहुत। पितरों द्वारा प्राप्त अन्न तो हुतरूप है। उस के ग्रहण करने से मन उद्दीप्त होता है, उद्धषित होता है [उदृ राजृ दीप्तौ], और यज्ञ किये विना, परन्तु फिर भी सर्व साधारण मनुष्यों द्वारा अनुज्ञात अन्न, जो कि सेवन करने वाले को सांसारिक या धन के राग से रंजित कर देता है। इन दोनों प्रकार के अन्नों को, सुहुत करने अर्थात् जाठराग्नि में परिपक्व हो जाने की अभिलाषा प्रकट की गई है। उद् + रञ्ज रागे। रारजीति= यङ्लुगन्तरूप]

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    विषय

    दुष्ट अन्न का त्याग और उत्तम अन्न आदि पदार्थों को ग्रहण करने का उपदेश।

    भावार्थ

    (यत्) जो (हुतम्) श्रद्धापूर्वक दिया गया (अहुतम्) या श्रद्धापूर्वक न दिया गया और (पितृभिः) पालक पिता माता गुरु भाई आदि से (दत्तम्) दिया गया या (मनुष्यैः अनुमतम्) मनुष्यों, मननशील विद्वानों द्वारा अनुमत, स्वीकृत पदार्थ (आजगाम) मेरे पास आ गया हो और (यस्मात्) जिससे (मे मनः) मेरा मन (उद् रारजीति इव) ऊपर उठता हुआ, प्रसन्न सा होता हो (तत्) उसको (होता अग्निः) सर्व पदार्थों का दाता परमेश्वर (सुहुतं कृणोतु) उत्तम दान अर्थात् स्वीकार करने योग्य पदार्थ बना दे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अग्निर्देवता। ३ विश्वेदेवाः। १-२ जगत्यौ। ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-Surrender and Gratitude

    Meaning

    Whatever I have come by, whether offered by others or not, i.e., produced by me, whether given to me by parents and earlier generations and approved by wise people, by which my mind waxes and shines with pleasure and excitement, may Agni, Almighty performer of cosmic yajna, turn all that into the yajnic mode of consumption and fragrant production in the service of Divinity and accept it as homage.

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    Translation

    Whatever given or not given, gifted by the elders and -approved by men, has come into my possession, and with which my heart is highly excited, may the Lord, the offerer, make all that properly obtained

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    Translation

    Whatever I have received through remuneration of conducting yajna, whatever I have got without conducting yajna, whatever I have obtained from parents in inheritance, whatever I have received from other people whereby my heart seems to leap up, may self-refulgent God, the giver of all prosperity make for my benefit.

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    Translation

    Whatever wealth hath been given to me by my parents, or acquired through self-exertion, or given by the sages, or presented by friends, whereby my heart leaps up through pleasure, may God, the Giver make it worthy of acceptance.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यत्) द्रव्यम् (मा) माम् (हुतम्) दत्तं मातापित्रादिभिः (अहुतम्) अदत्तं स्वपौरुषेण प्राप्तम् (आजगाम) प्राप (दत्तम्) वितीर्णम् (पितृभिः) पालनशीलैर्महात्मभिः (अनुमतम्) अङ्गीकृतम् (मनुष्यैः) अ० ३।४।९। मननशीलैः पुरुषैः (यस्मात्) कारणात् (मे) मम (मनः) चित्तम् (उत् इव) उन्नतं यथा (रारजीति) राजृ दीप्तौ ऐश्वर्ये च, यङ्लुकि छान्दसमुपधाह्रस्वत्वम्। रारजीति। भृशं दीप्यते शोभते। अन्यद्गतम् ॥

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