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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 71/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - विश्वे देवाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अन्न सूक्त
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    यदन्न॒मद्म्यनृ॑तेन देवा दा॒स्यन्नदा॑स्यन्नु॒त सं॑गृ॒णामि॑। वै॑श्वान॒रस्य॑ मह॒तो म॑हि॒म्ना शि॒वं मह्यं॒ मधु॑मद॒स्त्वन्न॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अन्न॑म् । अद्मि॑ । अनृ॑तेन । दे॒वा॒: । दा॒स्यन् । अदा॑स्यन् । उ॒त । स॒म्ऽगृ॒णामि॑ । वै॒श्वा॒न॒रस्य॑ । म॒ह॒त: । म॒हि॒म्ना । शि॒वम् । मह्य॑म् । मधु॑ऽमत् । अ॒स्तु॒ । अन्न॑म् ॥७१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदन्नमद्म्यनृतेन देवा दास्यन्नदास्यन्नुत संगृणामि। वैश्वानरस्य महतो महिम्ना शिवं मह्यं मधुमदस्त्वन्नम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अन्नम् । अद्मि । अनृतेन । देवा: । दास्यन् । अदास्यन् । उत । सम्ऽगृणामि । वैश्वानरस्य । महत: । महिम्ना । शिवम् । मह्यम् । मधुऽमत् । अस्तु । अन्नम् ॥७१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 71; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    दोषों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवाः) हे विद्वान् पुरुषो ! (यत्) जो कुछ (अन्नम्) अन्न (अनृतेन) असत्य व्यवहार से (अद्मि) मैं खाता हूँ, (उत) और (दास्यन्) देना चाहता हुआ [अथवा] (अदास्यन्) न देना चाहता हुआ मैं [जो कुछ] (संगृणामि=संगिरामि) खा जाता हूँ। (महतः) पूजनीय (वैश्वानरस्य) सब नरों के हितकारी परमेश्वर की (महिम्ना) महिमा से (अन्नम्) वह अन्न (मह्यम्) मेरे लिये (शिवम्) सुखकारक और (मधुमत्) मीठे रसवाला (अस्तु) होवे ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर की महिमा जानकर दुष्ट कर्म छोड़ कर अपने कर्तव्य सत्यमार्ग पर चलकर आनन्द भोगें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(यत्) (अन्नम्) (अद्मि) भक्षयामि (अनृतेन) असत्यव्यवहारेण (देवाः) हे विद्वांसः (दास्यन्) लृटः सद्वा। पा० ३।३।१४। इति दास्यतेः−शतृ। दातुमिच्छन् (अदास्यन्) अदातुमिच्छन् (उत) अपि च (संगृणामि) गॄ निगरणे, छान्दसः श्ना। संगिरामि। भक्षयामि (वैश्वानरस्य) सर्वनरहितस्य परमेश्वरस्य (महतः) पूजनीयस्य (महिम्ना) प्रतापेन (शिवम्) सुखकरम् (मह्यम्) मदर्थम् (मधुमत्) माधुर्य्योपेतम् (अस्तु) भवतु (अन्नम्) भोजनम् ॥

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    विषय

    न अनुत से, न उधार लेकर

    पदार्थ

    १. हे (देवा:) = देवो-विद्वान् पुरुषो! (यत् अन्नम्) = जिस अन्न को मैं (अनृतेन) = असत्य बोलकर, पराये व्यक्ति का अपहत करके (अधि) = खाता है, (उत) = तथा (दास्यन् अदास्यन्) = जो पदार्थ दूसरे को देना है, उसे दे नहीं रहा हूँ, यूँही (संगृणामि) = 'दूंगा' बस, इतनी प्रतिज्ञा ही करता हूँ, वह सब (अन्नम्) = अन्न (वैश्वानरस्य) = सब मनुष्यों का हित करनेवाले महतो महान् महिमावाले देव की (महिम्ना) = महिमा से (मह्यम्) = मेरे लिए (शिवम्) = सुखकर व (मधुमत् अस्तु) = माधुर्यवाला हो, अर्थात् प्रभु ऐसा अनुग्रह करें कि बिना अनृत के, बिना औरों से उधार लिये पुरुषार्थ से अपने भोजन का अर्जन कर सकें।

    भावार्थ

    हम अनृत से प्राप्त भोजन को अशिव समझें, औरों से उधार लेकर खाने को 'कट' जानें। पुरुषार्थ से ही अपना भोजन अर्जन करने के लिए यत्नशील हों।

    विशेष

    पवित्र भोजन से स्थिरवृत्तिवाला बनता हुआ 'अथर्वा' अगले सूक्तों का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (देवाः) हे दिव्य कोटी के पितरो! [मन्त्र २] (यत्) जो (अन्नम्) अन्न (अनृतेन) अन्त मार्ग से प्राप्त कर (अदिम) मैं खाता हूं; (दास्यन्) ऋण द्वारा प्राप्त अन्न को वापिस दूंगा (उत अदास्यन्) या न दूंगा तो भी (संगृणामि) मैं प्रतिज्ञा करता हूं [कि दूंगा], (मह्यम्) मेरे लिये वह, सब कुछ, (वैश्वानरस्य) सब नर-नारियों के हितकारी (महतः) महान् परमेश्वर की (महिम्ना) महिमा द्वारा, तथा वह (अन्नम) प्राप्त अन्न (शिवम्) सुखप्रद तथा (मधुमत्) मधुर (अस्तु) हो। अथवा "दास्यन् अदास्यन्= "दे सकूंगा, या न दे सकूंगा" [दानरूप में प्रतिज्ञात धन]।

    टिप्पणी

    [यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह अनुचित काम करके भी उस के दुष्फल को प्राप्त करना नहीं चाहता, और तदनुरूप प्रार्थना भी परमेश्वर से करता है। ऐसा प्रार्थनाएं भी अन्ततोगत्वा सुखप्रद हो जाती हैं। बार-बार प्रार्थनाओं के करते किसा समय प्रार्थी में अनुताप प्रकट हो जाता है और वह अनुचित कर्मों के करने से उपरत हो जाता है]।

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    विषय

    दुष्ट अन्न का त्याग और उत्तम अन्न आदि पदार्थों को ग्रहण करने का उपदेश।

    भावार्थ

    (देवाः) हे विद्वान् पुरुषो ! (दास्यन्) गृहस्थ में अन्न का दान करता हुआ (अनृतेन) खेती से अन्न को उत्पन्न करूं (यद् अन्नं अद्मि) जो मैं अन्न खाता हूं, (अदास्यन्) अथवा ब्रह्मचर्य या संन्यास आदि आश्रमों में अन्न का दान न करता हुआ भी जो भन्न मैं खाता हूं, (संगृणामि) तथा जो मैं प्रण, प्रतिज्ञा या व्रत करता हूं, (महतो वैश्वानरस्य महिम्ना) महान् तथा सब नरों के हित करने वाले प्रभु की महिमा कृपा से (अन्नम्) वह अन्न तथा व्रत आदि (मह्यम्) मेरे लिये (शिवं) कल्याणकारी तथा (मधुमत्) मधुर (अस्तु) हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अग्निर्देवता। ३ विश्वेदेवाः। १-२ जगत्यौ। ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-Surrender and Gratitude

    Meaning

    O Devas, divinities of nature and nobilities of humanity, whatever food I eat un-naturally, even by false understanding of the truth of life and consume with or even without the desire and purpose of giving, may all that food and consumption be good and honey sweet for me ultimately, by the grandeur and grace of Almighty Vaishvanara, gracious lord of humanity and its participation in cosmic yajna. (This sukta recognises and celebrates human potential and its limitations in performance which is done in a mood of grateful surrender. It also enjoins that with all our potential and limitations we must perform yajna as a symbol of our creative purpose and also as an exercise in prayer for grace and acceptance.)

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    Subject

    Vivedevah

    Translation

    O enlightened ones, ‘what food I eat falsely, and whatever I accumulate, whether giving or not giving in charities, with the greatness of the mighty Vaisvanara (benefactor of all) may that sweet food be propitious to me

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    Translation

    O learned men! whatever food I sometimes eat neglecting the Jaw of nature, what food I eat giving to others and what food I swallow without giving to others may be sweet and blessed for me by the grace of great God who is the master of the all worldly creatures.

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    Translation

    O learned persons, whatever food I eat unjustly, or store it for bestowing or preserving, may the Almighty God, through His greatness, make that food sweet and blessed for me.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यत्) (अन्नम्) (अद्मि) भक्षयामि (अनृतेन) असत्यव्यवहारेण (देवाः) हे विद्वांसः (दास्यन्) लृटः सद्वा। पा० ३।३।१४। इति दास्यतेः−शतृ। दातुमिच्छन् (अदास्यन्) अदातुमिच्छन् (उत) अपि च (संगृणामि) गॄ निगरणे, छान्दसः श्ना। संगिरामि। भक्षयामि (वैश्वानरस्य) सर्वनरहितस्य परमेश्वरस्य (महतः) पूजनीयस्य (महिम्ना) प्रतापेन (शिवम्) सुखकरम् (मह्यम्) मदर्थम् (मधुमत्) माधुर्य्योपेतम् (अस्तु) भवतु (अन्नम्) भोजनम् ॥

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