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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अनुमतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अनुमति सूक्त
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    अनु॑ मन्यतामनु॒मन्य॑मानः प्र॒जाव॑न्तं र॒यिमक्षी॑यमाणम्। तस्य॑ व॒यं हेड॑सि॒ मापि॑ भूम सुमृडी॒के अ॑स्य सुम॒तौ स्या॑म ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । म॒न्य॒ता॒म् । अ॒नु॒ऽमन्य॑मान: । प्र॒जाऽव॑न्तम् । र॒यिम् । अक्षी॑यमाणम् । तस्य॑ । व॒यम् । हेड॑सि । मा । अपि॑ । भू॒म॒ । सु॒ऽमृ॒डी॒के । अ॒स्य॒ । सु॒ऽम॒तौ । स्या॒म॒ ॥२१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनु मन्यतामनुमन्यमानः प्रजावन्तं रयिमक्षीयमाणम्। तस्य वयं हेडसि मापि भूम सुमृडीके अस्य सुमतौ स्याम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु । मन्यताम् । अनुऽमन्यमान: । प्रजाऽवन्तम् । रयिम् । अक्षीयमाणम् । तस्य । वयम् । हेडसि । मा । अपि । भूम । सुऽमृडीके । अस्य । सुऽमतौ । स्याम ॥२१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 20; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्यों के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (अनुमन्यमानः) निरन्तर जाननेवाला परमेश्वर (प्रजावन्तम्) उत्तम सन्तान, भृत्य आदि वाला, (अक्षीयमाणम्) न घटनेवाला (रयिम्) धन (अनु) अनुग्रह करके (मन्यताम्) जतावे। (वयम्) हम (तस्य) उसके (हेडसि) क्रोध में (अपि) कभी (मा भूम) न होवें, (अस्य) इसके (सुमृडीके) उत्तम सुख में और (सुमतौ) सुमति [कल्याणी बुद्धि] में (स्याम) बने रहें ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य धार्मिक रीति में प्राप्त किये धन से प्रजापालन करके ईश्वर की आज्ञा में सुख के साथ सदा वर्तमान रहें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(अनु) सर्वदा (मन्यताम्) ज्ञापयतु (अनुमन्यमानः) निरन्तरं मन्ता ज्ञाता परमेश्वरः (प्रजावन्तम्) प्रशस्तसन्तानभृत्यादियुक्तम् (रयिम्) धनम् (अक्षीयमाणम्) क्षि क्षये-शानच्। अक्षीणम् (तस्य) ईश्वरस्य (वयम्) (हेडसि) क्रोधे-निघ० २।१३। (अपि) कदापि (मा भूम) न स्याम (सुमृडीके) मृडः कीकच्कङ्कणौ। उ० ४।२४। इति मृड सुखने-कीकच्। शोभने सुखे (अस्य) (सुमतौ) कल्याण्यां बुद्धौ (स्याम) भवेम ॥

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    विषय

    प्रशस्त प्रजावाली, अक्षीयमाण 'सम्पत्ति'

    पदार्थ

    १. (अनुमन्यमानः) = सदा सत्कर्मानुकूल बुद्धि को प्रास कराता हुआ अनुमन्ता देव हमारे लिए (प्रजावन्तम्) = प्रशस्त सन्तानोंवाली, (अक्षीयमाणम) = नष्ट न होती हुई, क्षीणता का कारण न बनती हुई, (रयिम्) =  सम्पत्ति को (अनुमन्यताम्) = अनुज्ञात करें, प्राप्त कराएँ। २. (वयम्) = हम (तस्य) = उस अनुमन्ता देव के (हेडसि) = क्रोध में (मा अपि भूम) = मत ही हों। हम प्रभु के क्रोध के पात्र न बनें। (अस्य) = इस अनुमन्ता प्रभु की (समडीके) = शोभन सुखकारिणी (समतौ) = अनुग्रहात्मक शोभनयुद्धि में (स्याम) = हों।

    भावार्थ

    प्रभु हमें प्रशस्त प्रजावाली अक्षीयमाण सम्पत्ति दें। हम प्रभु के क्रोधपात्र न हों और शोभन सुखकारिणी सुमति को प्राप्त करें।

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    भाषार्थ

    (अनुमन्यमानः) [अनुमति - पत्नी द्वारा] अनुकूलरूप में माना गया पति, (प्रजावन्तम्) प्रजासमेत (अक्षीयमाणम् रयिम्) न क्षीण होने वाले अर्थात् प्रभूत धन की (अनुमन्यताम्) स्वीकृति हमें प्रदान करे। (तस्य) उस पति के (हेडसि) क्रोध में (अपि) भी (वयम्) हम गृहवासी (मा भूम) न हों, (अस्य) ताकि इस पति द्वारा (सुमृडीके) प्रदत्त उत्तम-सुख मैं, तथा [इस की] (सुमती) सुमति में (स्याम) हम हों।

    टिप्पणी

    [२१ वें सूक्त के "सायण" प्रदिष्ट पाठों, तथा शाखान्तर प्रदिष्ट पाठों में बहुत भेद पाया जाता है। इस लिये अर्थ अनिश्चित है]।

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    विषय

    ‘अनुमति’ नाम सभा का वर्णन।

    भावार्थ

    जो (अनु मन्यमानः) सब को अनुमति देने वाला पुरुष अधिकारी है वह हमें (अक्षीयमाणम्) कभी न नष्ट होने वाले, (प्रजा-वन्तम्) प्रजा से युक्त (रयिम्) धन, बल को प्राप्त करने के लिये (अनु = मन्यताम्) सदा अनुमति दिया करे, इस से विपरीत नहीं। (तस्य) उस पुरुष के (हेडसि) क्रोध के पात्र (वयं) हम प्रजा जन (मा अपि भूम) कभी न हों। (अस्य) उस के (सु-मृडीके) सुखकर कार्य और (सुमतौ) उत्तम मति के अनुकूल (स्याम) रहें। पूर्व मन्त्रों में ‘अनुमति देवि’ अर्थात् अनुज्ञापक सभा और स्त्री का वर्णन है, इस मन्त्र में अनुज्ञापक-अधिष्ठाता सभापति और गृहस्थ के पति, पुरुष का वर्णन है। यजुर्वेद (३८। ८, ९) में इसी पुमान् विद्वान् सभापति का वर्णन किया गया है (देखो महर्षि दयानन्द कृत यजुभाष्य)

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अनुमतिर्देवता। १, २ अनुष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्। ४ भुरिक्। ५, ६ अतिशक्वरगर्भा अनुष्टुप्। षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Consensus and consent

    Meaning

    May the Lord Almighty, accepting our united action, bring us imperishable wealth, honour and excellence with noble progeny. May we never suffer the Lord’s anger and disapproval. May we always abide in His good will and favour of grace.

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    Translation

    May He, the approving Lord, approve for us inexhaustible wealth rich in children. May we never be under His wrath. May we be under His friendly grace, that extreme happiness.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.21.3AS PER THE BOOK

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    Translation

    May the Divinity approving my full-moon night yajna grant me inexhaustible wealth with lot of children. May we never be subject to His anger but rest always in his benevolence and good guidance.

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    Translation

    May the Omniscient God, accord us wealth inexhaustible with store of children. Never may we be subject to His anger, but rest in His benevolence and mercy.

    Footnote

    Griffith considers Anumati to be a deity connected with procreation. The hymn according to' Griffith is used in charms to remove sterility in cows.-This explanation is unacceptable. Anumati means the All-knowing God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(अनु) सर्वदा (मन्यताम्) ज्ञापयतु (अनुमन्यमानः) निरन्तरं मन्ता ज्ञाता परमेश्वरः (प्रजावन्तम्) प्रशस्तसन्तानभृत्यादियुक्तम् (रयिम्) धनम् (अक्षीयमाणम्) क्षि क्षये-शानच्। अक्षीणम् (तस्य) ईश्वरस्य (वयम्) (हेडसि) क्रोधे-निघ० २।१३। (अपि) कदापि (मा भूम) न स्याम (सुमृडीके) मृडः कीकच्कङ्कणौ। उ० ४।२४। इति मृड सुखने-कीकच्। शोभने सुखे (अस्य) (सुमतौ) कल्याण्यां बुद्धौ (स्याम) भवेम ॥

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