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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 6
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अनुमतिः छन्दः - अतिशाक्वरगर्भा जगती सूक्तम् - अनुमति सूक्त
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    अनु॑मतिः॒ सर्व॑मि॒दं ब॑भूव॒ यत्तिष्ठ॑ति॒ चर॑ति॒ यदु॑ च॒ विश्व॒मेज॑ति। तस्या॑स्ते देवि सुम॒तौ स्या॒मानु॑मते॒ अनु॒ हि मंस॑से नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ऽमति: । सर्व॑म्‌ । इ॒दम् । ब॒भू॒व॒ । यत् । तिष्ठ॑ति । चर॑ति । यत् । ऊं॒ इति॑ । च॒ । विश्व॑म् । एज॑ति । तस्या॑: । ते॒ । दे॒वि॒ । सु॒ऽम॒तौ । स्या॒म॒ । अनु॑ऽमते । अनु॑ । हि । मंस॑से । न॒: ॥२१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनुमतिः सर्वमिदं बभूव यत्तिष्ठति चरति यदु च विश्वमेजति। तस्यास्ते देवि सुमतौ स्यामानुमते अनु हि मंससे नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनुऽमति: । सर्वम्‌ । इदम् । बभूव । यत् । तिष्ठति । चरति । यत् । ऊं इति । च । विश्वम् । एजति । तस्या: । ते । देवि । सुऽमतौ । स्याम । अनुऽमते । अनु । हि । मंससे । न: ॥२१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 20; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्यों के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (अनुमतिः) अनुमति [अनुकूल बुद्धि] (इदम्) इस (सर्वम्) सब में (बभूव) व्यापी है, (यत्) जो कुछ (तिष्ठति) खड़ा होता है, (चरति) चलता है, (च) और (विश्वम्) सब (यत् उ) जो कुछ भी (एजति) चेष्टा करता है [हाथ-पाँव चलाता है]। (देवि) हे देवी ! (तस्याः ते) उस तेरी (सुमतौ) सुमति [अनुग्रहबुद्धि] में (स्याम) हम रहें, (अनुमते) हे अनुमति ! तू (हि) ही (नः) हमें (अनु) अनुग्रह से (मंससे) जानती रहे ॥६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य प्रतिकूलता त्यागकर प्रत्येक कर्तव्य में अनुकूलता देवी का ध्यान रखते हैं, वे ही परमेश्वर के कृपापात्र होते हैं ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(अनुमतिः) म० १। अनुकूला बुद्धिः (सर्वम्) समस्तं जगत् (इदम्) दृश्यमानम् (बभूव) भू प्राप्तौ। प्राप (यत्) जगत् (तिष्ठति) स्थित्या वर्तते (चरति) गच्छति (यत्) (उ) अपि (च) (विश्वम्) सर्वम् (एजति) एजृ कम्पने। साहसेन चेष्टते (तस्याः) तादृश्याः (ते) तव (सुमतौ) अनुग्रहबुद्धौ (स्याम) भवेम (अनु) अनुग्रहेण (हि) अवश्यम् (मंससे) म० २। जानीय (नः) अस्मान् ॥

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    विषय

    सबका ध्यान

    पदार्थ

    १. (अनुमतिः) = यह अनुमति देवी (इदं सर्व बभूव) = इस सबको व्याप्त करती है, (यत्) = जो (तिष्ठति) = स्थावर वृक्षगुल्मादिरूप में स्थित है, (चरति) = जो अबुद्धिपूर्वक चेष्टा कर रहा है, (च) = और (यत्) = जो (विश्वम्) = संसार (उ) = निश्चय से (एजति) = बुद्धिपूर्वक चेष्टा कर रहा है, अनुमति 'वृक्षों, सूर्य आदि गतिमान् पिण्डों व सब प्राणियों का ध्यान करती है। २. हे (देवि) = प्रकाशमयि (अनुमते) = अनुमते ! हम (तस्याः ते) = उस तेरी (सुमतौ स्याम) = कल्याणी मति में हों। तू (हि) = निश्चय से (न:) = हमें (अनुमंससे) = उत्तम कर्मों की अनुज्ञा देती है। तेरे कारण हम सदा उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होते हैं|

    भावार्थ

    अनुमति 'स्थावर, जंगम जगत् का तथा सब प्राणियों का ध्यान करती है। यह हमें सदा यज्ञ आदि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त करती है। इसप्रकार अनुमति द्वारा उत्तम कर्मों को करता हुआ यह अथर्वा 'ब्रह्मा' [बढ़ा हुआ] बनता है। अगले दो सूक्त इसी ऋषि के हैं -

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    भाषार्थ

    (यत् तिष्ठति) जो स्थित है, (चरति) चलता है, (यद्, उ, च) और जो (विश्वम्) सब ब्रह्माण्ड (एजति) प्रदीप्त हो रहा है, या कुम्पित हो रहा है, (इदम्, सर्वम्) यह सब (अनुमतिः) अनुमति परमेश्वर मातारूप (बभूव) है। (देवि) हे परमेश्वर-मातृदेव! (ते) तेरी (तस्याः) उस (सुमतौ) सुमति में (स्याम) हम हों, या रहें। (अनुमते) हे अनुमति मातः ! (नः) हमें (अनु मंससे) अपनी अनुकूता में मान।

    टिप्पणी

    [अनुमति है, समग्र ब्रह्माण्ड में अनुकूलरूप में वर्तमान परमेश्वर माता। वह किसी के प्रतिकूल नहीं है, अपितु सब के प्रति अनुकूलरूप में वर्तमान है, सब की उन्नत्ति चाहती अभिप्राय यह है कि जैसे माता पुत्र१ में प्रकट होती है, यथा “आत्मा वै पुत्रनामासि" (निरुक्त ३।१।४), वैसे परमेश्वर माता भी ब्रह्माण्ड-रूप में प्रकट हो रही है। प्रलय काल में ब्रह्म, प्रकृति और जीवात्मा निष्क्रिय थे। ब्रह्म की सक्रियता में ब्रह्माण्ड पैदा हुआ। अतः मानो ब्रह्म, ब्रह्माण्डरूप में प्रकट हुआ। उस परमेश्वर-माता की सुमति में रहने की प्रार्थना हुई है, या इच्छा प्रकट हुई है। साथ ही यह कहा है कि हम तेरी अनुकूलता में वर्तमान हैं-यह तू मान, अतः हमारी सदा उन्नति कर। एजति= एजृ दीप्तौ, तथा एजृ कम्पने, दोनों धातुएं (भ्वादिः)। कम्पित होना= गतिशील होना। मंससे= लेट् लकार “सिप्’’]। [१. माता के गुण जैसे सन्तति में प्रकट होते हैं, वैसे परमेश्वर-माता के गुण सृष्टिकर्तृत्व, न्यायकारित्व, अनुग्रह आदि ब्रह्माण्ड में प्रकट हो रहे हैं।]

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    विषय

    ‘अनुमति’ नाम सभा का वर्णन।

    भावार्थ

    इस ईश्वरीय विराट् अनुमति का स्वरूप दर्शाते हैं—(यत्) जो (तिष्ठति) स्थिर रूप से विद्यमान है। (चरति) जो चल रहा है, गति कर रहा है, (यद् उ च विश्वम् एजति) और जो सब बुद्धिपूर्वक चेष्टा कर रहा है (सर्वम् इदम्) यह सब (अनु-मतिः बभूव) अनुमति ही है उसी की आज्ञा से चलता और खड़ा है। हे (देवि) दिव्य प्रकाश और गतिदायक शक्ति ! (तस्याः ते) उस तेरी (सु-मतौ) शुभ कल्याणकारी उत्तम मति में हम (स्याम) रहें। हे (अनुमते) सबकी आज्ञापक (नः) हमें भी तू ही (अनु मंससे) सब कार्य वरने की आज्ञा देती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अनुमतिर्देवता। १, २ अनुष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्। ४ भुरिक्। ५, ६ अतिशक्वरगर्भा अनुष्टुप्। षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Consensus and consent

    Meaning

    Anumati, dynamic spirit of integrative thought and will, is all this, i.e., pervades and inspires all this that stands, moves and agitates to evolve and move forward as one sociopolitical organismic organisation. O divine spirit of union and progress, Anumati, let us abide in your good will and accept us for favour of your pleasure and grace.

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    Translation

    The assent (of the Lord) has ever been all this whatever stands still, or moves, and also whatever makes all move, as such, O divine assent, may we be always in your good grace; may you always accord approval to us.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.21.6AS PER THE BOOK

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    Translation

    In the light of full-moon night everything whatever standeth, walketh and all that moveth become like full-moon night. Let us enjoy the pleasure of this gleaming night as it is Anumati which becomes the source of our pleasure, and fancy.

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    Translation

    Whatever standeth, or walketh everything that moveth in the world, all Is in obedience to the Law of God. O Mighty power of God, may we enjoy thy gracious love. O All controlling power of God, regard us with favor!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(अनुमतिः) म० १। अनुकूला बुद्धिः (सर्वम्) समस्तं जगत् (इदम्) दृश्यमानम् (बभूव) भू प्राप्तौ। प्राप (यत्) जगत् (तिष्ठति) स्थित्या वर्तते (चरति) गच्छति (यत्) (उ) अपि (च) (विश्वम्) सर्वम् (एजति) एजृ कम्पने। साहसेन चेष्टते (तस्याः) तादृश्याः (ते) तव (सुमतौ) अनुग्रहबुद्धौ (स्याम) भवेम (अनु) अनुग्रहेण (हि) अवश्यम् (मंससे) म० २। जानीय (नः) अस्मान् ॥

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