अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 70/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - श्येनः
छन्दः - अतिजगतीगर्भा जगती
सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
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या॑तु॒धाना॒ निरृ॑ति॒रादु॒ रक्ष॒स्ते अ॑स्य घ्न॒न्त्वनृ॑तेन स॒त्यम्। इन्द्रे॑षिता दे॒वा आज॑मस्य मथ्नन्तु॒ मा तत्सं पा॑दि॒ यद॒सौ जु॒होति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठया॒तु॒ऽधाना॑: । नि:ऽऋ॑ति: । आत् । ऊं॒ इति॑ । रक्ष॑: । ते । अ॒स्य॒ । घ्न॒न्तु॒ । अनृ॑तेन । स॒त्यम् । इन्द्र॑ऽइषिता: । दे॒वा: । आज्य॑म् । अ॒स्य॒ । म॒थ्न॒न्तु॒ । मा । तत् । सम् । पा॒दि॒ । यत् । अ॒सौ । जु॒होति॑ ॥७३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यातुधाना निरृतिरादु रक्षस्ते अस्य घ्नन्त्वनृतेन सत्यम्। इन्द्रेषिता देवा आजमस्य मथ्नन्तु मा तत्सं पादि यदसौ जुहोति ॥
स्वर रहित पद पाठयातुऽधाना: । नि:ऽऋति: । आत् । ऊं इति । रक्ष: । ते । अस्य । घ्नन्तु । अनृतेन । सत्यम् । इन्द्रऽइषिता: । देवा: । आज्यम् । अस्य । मथ्नन्तु । मा । तत् । सम् । पादि । यत् । असौ । जुहोति ॥७३.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रु के दमन का उपदेश।
पदार्थ
(निर्ऋतिः) अलक्ष्मी (आत् उ) और भी (ते) वे सब (यातुधानाः) दुःखदायी (रक्षः) राक्षस (अस्य) इस [शत्रु] की (सत्यम्) सफलता को (अनृतेन) मिथ्या आचरण के कारण (घ्नन्तु) नाश करें (इन्द्रेषिताः) इन्द्र, परम ऐश्वर्यवाले सेनापति के भेजे हुए (देवाः) विजयी शूर (अस्य) इसके (आज्यम्) घृत [तत्त्वपदार्थ] को (मथ्नन्तु) विध्वंस करें, (असौ) वह [शत्रु] (यत्) जो कुछ (जुहोति) आहुति दे, (तत्) वह (मा सम् पादि) सम्पन्न [सफल] न होवे ॥२॥
भावार्थ
सेनापति की नीतिनिपुणता से शत्रुओं में निर्धनता और परस्पर फूट पड़ जाने से शत्रु लोग निर्बल होकर आधीन हो जावें ॥२॥
टिप्पणी
२−(यातुधानाः) अ० १।७।१। पीडाप्रदाः (निर्ऋतिः) म० १। कृच्छ्रापत्तिः। दरिद्रतादिः (आत् उ) अपि च (रक्षः) राक्षसः (ते) सर्वे (अस्य) शत्रोः (घ्नन्तु) नाशयन्तु (अनृतेन) मिथ्याचरणेन (सत्यम्) कर्मसाफल्यम् (इन्द्रेषिताः) इन्द्रेण परमैश्वर्यवता सेनापतिना प्रेरिताः (देवाः) विजयिनः शूराः (आज्यम्) घृतम्। तत्त्वपदार्थम् (अस्य) शत्रोः (मथ्नन्तु) नाशयन्तु (तत्) (मा सम् पादि) पद गतौ, माङि लुङि रूपम्। सम्पन्नं सफलं मा भवेत् (यत्) यत् किञ्चित् (असौ) सः (जुहोति) आहुतिं करोति ॥
विषय
यातुधानाः निर्ऋति:
पदार्थ
१. (यातुधाना:) = शत्रु की पर-पीड़ाकारी प्रवृत्तियों, (निर्ऋति:) = निकृष्टगमनवृत्ति, दुराचरण, (आत उ) = और निश्चय से (रक्ष:) = राक्षसीभाव ते वे सब-के-सब (अस्य सत्यम्) = इसके सत्य को भी (अनतेन घ्नन्तु) = अन्त से नष्ट कर डालें। ये ऐसा करें कि शत्रु से हमारे विषय में क्रियमाण कर्म उसे अभीष्ट फलप्रद न हो, अपितु विपरीत फल देनेवाला हो। २. (इन्द्रेषिता:) = परमैश्वर्यशाली प्रभु से प्रेरित (देवा:) = सूर्य, विद्युत, अग्नि आदि देव (अस्य आग्यम्) = इस शत्रु की दीप्ति को [अंज-toshine, to be beautiful] मथ्नन्तु नष्ट कर डालें। (असो) = वह शत्रु (यत् जुहोति) = हमारी बाधा के लिए जो कर्म करता है (तत् मा संपादि) = वह कर्म सम्पन्न न हो, फलप्रद न हो, अंगविकल होकर उसी का विनाश करनेवाला हो।
भावार्थ
पर-पीड़ाकारी प्रवृत्तियाँ, दुराचरण व राक्षसीभाव इस विरोधी के कर्म को असफल करें। प्रभु की शक्तियाँ इस सामजविद्वेषी की दीप्ति को विनष्ट करें और इसका अभिचारकर्म असफल हो हो।
भाषार्थ
(यातुधाना) यातनाओं का जिस में निधान है ऐसी (निर्ऋतिः) कृच्छ्रापत्ति, (आत् उ) तथा (रक्षः) जो राक्षसरूपी व्याधि-कीटाणु हैं (ते) वे, (अस्य) इस शत्रु के (अमृतेन) अनृतमार्ग१ द्वारा (सत्यम्) सद्रूप होने वाले युद्धकर्म को (घ्नतु) नष्ट कर दें। (इन्द्रेषिताः) इन्द्र अर्थात् सम्राट् द्वारा प्रेषित (देवाः) विजिगीषु सैनिक (अस्य) इस शत्रु के (आज्यम्) आजि अर्थात् युद्धसम्बन्धी कर्म को (मथ्नन्तु) मथ डालें, ताकि (तत्) वह युद्धकर्म (मा संपादि) न सम्पन्न हो, (यत्) जिस के लिये (असौ) वह शत्रु (जुहोति) युद्ध-यज्ञ में आहुतियां देता है। [रक्षः = रक्षांसि, जात्येकवचन। देवाः = दिवु क्रीडाविजिगीषा आादि (दिवादिः), अर्थात् विजिगीषु सैनिक।
टिप्पणी
[१. लोभाक्रान्त होकर परराष्ट्र पर आक्रमण करना "अनृतमार्ग" है।]
विषय
दुष्ट पुरुषों का वर्णन।
भावार्थ
आसुर भाव वाले पुरुषों के कार्यों के विनाश के कारणों का उपदेश करते हैं। (यातु-धानाः) पीड़ाकारी घटनाएं (निः-ऋतिः) पाप की चाल, (आत् उ) और (रक्षः) बाधक विघ्न ही (अस्य सत्यम्) इसके सत्य, सत् इष्ट फल का (अनृतेन) इसके असत्य व्यवहार के कारण (घ्नन्तु) नाश कर देते हैं। और (इन्द्र-इषिताः) इन्द्र परमेश्वर से प्रेरित (देवाः) प्राकृतिक, दैवी उत्पात (अस्य) उक्त प्रकार के नीच पुरुष के (आज्यम्) सामर्थ्य, बल को (मथनन्तु) मथ डालते हैं, और फल यह होता है कि (यद्) जो कुछ भी (असौ जुहोति) वह त्याग करता है (तत्) वह (मा सं-पादि) कभी फल नहीं देता।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। श्येन उत मन्त्रोक्ता देवता॥ १ त्रिष्टुप्। अत्तिजगतीगर्भा जगती। ३-५ अनुष्टुभः (३ पुरः ककुम्मती)॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Nip the Enemy
Meaning
Raksha, forces of the watch and reconnaissance, Yatudhana, forces of attack in advance, Nir-rti, his own state of deprivation, these, by reasons of the falsehood of his intention and design, would destroy the enemy’s simulation of truth and rectitude. Let the brilliant forces inspired and reinforced by the ruler, Indra, shake and rout his forces. Whatever he plans and tries to execute must not be allowed to be accomplished.
Translation
May the painful viruses, the perdition and the germs of the wasting diseases, all of them strike and destroy his accomplishment with untruth. May the bounties of Nature, urged by the resplendent Lord, ruin his purified butter. May that not be achieved for which he performs the sacrifice.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.73.2AS PER THE BOOK
Translation
The calamity, disease-germs and ailment destroy the success of this man through their cruel and misleading actions. The organs and limbs of this man inspired by self which is their master destroy his knowledge and effort and in this way make ineffective whatever he performs.
Translation
Distressing events, chili penury, troublesome obstacle render ineffective the success of a sinner through his unrighteous conduct. Physical calamities sent by God destroy the strength of a sinner, with the result that his sacrifice never fructifies.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(यातुधानाः) अ० १।७।१। पीडाप्रदाः (निर्ऋतिः) म० १। कृच्छ्रापत्तिः। दरिद्रतादिः (आत् उ) अपि च (रक्षः) राक्षसः (ते) सर्वे (अस्य) शत्रोः (घ्नन्तु) नाशयन्तु (अनृतेन) मिथ्याचरणेन (सत्यम्) कर्मसाफल्यम् (इन्द्रेषिताः) इन्द्रेण परमैश्वर्यवता सेनापतिना प्रेरिताः (देवाः) विजयिनः शूराः (आज्यम्) घृतम्। तत्त्वपदार्थम् (अस्य) शत्रोः (मथ्नन्तु) नाशयन्तु (तत्) (मा सम् पादि) पद गतौ, माङि लुङि रूपम्। सम्पन्नं सफलं मा भवेत् (यत्) यत् किञ्चित् (असौ) सः (जुहोति) आहुतिं करोति ॥
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