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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 73/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - घर्मः, अश्विनौ छन्दः - जगती सूक्तम् - धर्म सूक्त
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    स्वाहा॑कृतः॒ शुचि॑र्दे॒वेषु॑ य॒ज्ञो यो अ॒श्विनो॑श्चम॒सो दे॑व॒पानः॑। तमु॒ विश्वे॑ अ॒मृता॑सो जुषा॒णा ग॑न्ध॒र्वस्य॒ प्रत्या॒स्ना रि॑हन्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वाहा॑ऽकृत: । शुचि॑: । दे॒वेषु॑ । य॒ज्ञ: । य: । अ॒श्विनो॑: । च॒म॒स॒: । दे॒व॒ऽपान॑: । तम् । ऊं॒ इति॑ । विश्वे॑ । अ॒मृता॑स: । जु॒षा॒णा: । ग॒न्ध॒र्वस्य॑ । प्रति॑ । आ॒स्ना । रि॒ह॒न्ति॒ ॥७७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वाहाकृतः शुचिर्देवेषु यज्ञो यो अश्विनोश्चमसो देवपानः। तमु विश्वे अमृतासो जुषाणा गन्धर्वस्य प्रत्यास्ना रिहन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वाहाऽकृत: । शुचि: । देवेषु । यज्ञ: । य: । अश्विनो: । चमस: । देवऽपान: । तम् । ऊं इति । विश्वे । अमृतास: । जुषाणा: । गन्धर्वस्य । प्रति । आस्ना । रिहन्ति ॥७७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 73; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवेषु) उत्तम गुणों में वर्तमान, (अश्विनोः) दोनों चतुर स्त्री-पुरुषों का (यः) जो (स्वाहाकृतः) सुन्दरवाणी से सिद्ध किया गया, (शुचिः) पवित्र (देवपानः) विद्वानों से रक्षा योग्य (यज्ञः) पूजनीय व्यवहार (चमसः) मेघ [के समान उपकारी] है। (तम् उ) उसी [उत्तम व्यवहार को] (जुषाणः) सेवन करते हुए (विश्वे) सब (अमृतासः) अमर [निरालसी] लोग (गन्धर्वस्य) पृथिवीरक्षक सूर्य के (आस्ना) मुख से [महातेजस्वी होकर] (प्रति) प्रत्यक्ष (रिहन्ति) पूजते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    विद्वान् स्त्री-पुरुषों के उत्तम व्यवहारों का अनुकरण करके पुरुषार्थी लोग उनको सराहते हैं ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(स्वाहाकृतः) अ० २।१६।१। सुवाचा निष्पन्नः (शुचिः) पवित्रः (देवेषु) दिव्यगुणेषु वर्तमानयोः (यज्ञः) पूजनीयो व्यवहारः (अश्विनोः) उत्तमस्त्रीपुरुषयोः (चमसः) अ० ६।४७।३। मेघः-निघ० १।१०। मेघ इवोपकारी (देवपानः) विद्वद्भिः पानं रक्षणं यस्य सः (तम्) यज्ञम्) (उ) एव (विश्वे) सर्वे (अमृतासः) अमराः। निरलसाः (जुषाणाः) सेवमानाः। प्रीयमाणाः (गन्धर्वस्य) अ० २।१।२। भूमिधारकस्य सूर्यस्य (प्रति) प्रत्यक्षम् (आस्ना) मुखेन। प्रकाशेनेत्यर्थः (रिहन्ति) अर्चन्ति-निघ० ३।१४ ॥

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    विषय

    यज्ञ व अमृतत्व,

    पदार्थ

    १. (यज्ञ:) = यज्ञ (देवेषु) = देववृत्ति के व्यक्तियों में (स्वाहाकृतः) = स्वार्थत्याग के द्वारा सिद्ध हुआ है। देववृत्ति के व्यक्ति निजू जीवन के व्ययों को कम करते हुए यज्ञों को सिद्ध करते हैं। यह यज्ञ (शुचि:) = जीवन को पवित्र बनानेवाला है। यह यज्ञ वह है (य:) = जोकि (अश्विनो: चमस:) = प्राणापान का-सोमपान का पात्र ही है। यज्ञ से जीवन पवित्र बनता है और वासनाओं से अनाक्रान्त होने के कारण शरीर में सोमरक्षण सम्भव होता है। यह यज्ञ (देवपान:) = दिव्य गुणों का रक्षक है। यज्ञ से दिव्यगुणों का वर्धन होता है। २. (तम् उ) = उस यज्ञ को निश्चय से (जुषाणा:) = प्रीतिपूर्वक सेवन करते हुए (विश्वे) = सब लोग (अमृतास:) = नौरोग शरीरवाले होते हैं, अत: देव लोग इस यज्ञ को (गन्धर्वस्य आस्ना) = वेदनाणी के धारक पुरुष के मुख से (प्रतिरिहन्ति) = प्रतिदिन आस्वादित करते हैं, अर्थात् ये देव मन्त्रोच्चारण करते हुए यज्ञ में प्रवृत्त होते हैं।

     

    भावार्थ

    स्वार्थत्याग होने पर ही यज्ञ सम्भव होता है। यह जीवन को पवित्र बनाता है, तभी सोम का रक्षण सम्भव होता है और दिव्य गुणों का वर्धन होता है। इस यज्ञ को वेदमन्त्रोच्चारणपूर्वक प्रीति से सेवन करते हुए लोग अमृत-नीरोग होते हैं।

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    भाषार्थ

    (यः यज्ञः) जो सत्कार यज्ञ (अश्विनोः) दो अश्वियों के (चमसः) खाने का साधन है और इन (देवपानः) दो देवों के पान के लिये है, वह (शुचिः) पवित्र यज्ञ (देवेषु) अन्य विजिगीषु अधिकारियों के निमित भी (स्वाहाकृतः) खाद्य आहुतिप्रदान पूर्वक किया गया है। (विश्वे) सब (अमृतासः) मरण-रहित [विजिगीषु अन्य अधिकारी भी] (तम् उ) उस सत्कार यज्ञ का (जुषाण) प्रीतिपूर्वक सेवन करते हुए, उसमें सम्मिलित हुए, (गन्धर्वस्य) पृथिवी-धारक राजा के (आस्ना) मुख द्वारा स्वीकृति द्वारा (प्रतिरिहन्ति) खान-पान का आस्वादन करते हैं।

    टिप्पणी

    [जैसे सैन्यविभाग के अश्वों के दो अधिकारियों का सत्कार खान-पान द्वारा किया जाता है (मन्त्र १), वैसे ही सत्कार-यज्ञ पूर्वक अन्य अधिकारियों का भी सत्कार करना चाहिये। इस सत्कार के लिये राजा की मौखिक स्वीकृति चाहिये। “अमृतासः” द्वारा सेनाधिकारियों का युद्धकौशल दर्शाया है कि वे पर सैनिकों को मारते हुए स्वयं मृत्यु से बचे रहते हैं। गन्धर्वस्य = गो (पृथिवी) + धृ (धारणे) + वः। चमसः= चमु अदने (भ्वादिः)]।

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    विषय

    ब्रह्मानन्द रस।

    भावार्थ

    (यज्ञः) यज्ञस्वरूप, आत्मस्वरूप (शुचिः) सब तामस आवरणों से रहित होकर (देवेषु) विषयों में क्रीड़ाशील इन्द्रियों, विद्वानों, द्विव्य पदार्थों या अन्य प्राणों के भीतर (स्वाहा-कृतः) स्वयम् अपनी शक्ति से प्रविष्ट होकर विराजमान है। (यः) जो आत्मा (अश्विनोः) अश्वि = प्राण और अपान दोनों को (चमसः) शक्ति प्राप्त करने या अन्नरस के भोजन का साधन है वही (देव-पानः) देव इन्द्रियों के रक्षा करने वाला है। (विश्वे) समस्त (अमृतासः) अमर आत्मा (तम् उ) उसकी ही (जुषाणाः) सेवा करते हुए (गन्धर्वस्य) गौ वेद वाणी को धारण करने हारे परमात्मा के (आस्ना) मुख अर्थात् मुखवत् ब्राह्मणों के हेतु उनके उपदेशों द्वारा (प्रति-हन्ति) परमात्मा को प्राप्त होते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अश्विनौ देवते। धर्मसूक्तम्। १, ४, ६ जगत्यः। २ पथ्या बृहती। शेषा अनुष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yajna Karma

    Meaning

    Consecrated and conducted with oblations capped with selfless, ‘svaha’, pure and shining yajna in the assembly of the learned is a metaphor of the heavenly bowl of the Ashvins, fit for joyous soma drink of divinities, which all the immortalities of nature and brilliancies of humanity cherish with love, and they tdoration and taste the nectar with the first rays of the sun, father sustainer of the earth.

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    Translation

    A sacrifice, in which good dedications are made, is considered excellent (unblemished) by the enlightened ones. It is, as if a bowl from which the twin-healers drink their divine beverage. All the immortals also enjoying that (bowl) with pleasure, lick severally through the mouth of the (sacrificial) fire (gandharva).

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.77.3AS PER THE BOOK

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    Translation

    To that yajna which is free from all impurities, performed by the utterance of Vedic hymns ending with word Svaha in the assembly of learned men, which is chamasa, the cloud the grasping medium of the heaven and the earth and is grasped by the physical forces, all the immortal physical forces grasping embrace through the mouth of Gandharva, the fire or the rays of the sun.

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    Translation

    The soul, being pure, released from the coverings of darkness, pervades the learned with its inherent strength. The soul is the source of lending strength to the Prana and Apana, and guards all organs of sense. All immortal souls serving Him alone, achieve Him, following the commands of God.

    Footnote

    Griffith and Sayana have translated- Gandharva as fire. The word means God,-Who is the Master of Vedic speech

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(स्वाहाकृतः) अ० २।१६।१। सुवाचा निष्पन्नः (शुचिः) पवित्रः (देवेषु) दिव्यगुणेषु वर्तमानयोः (यज्ञः) पूजनीयो व्यवहारः (अश्विनोः) उत्तमस्त्रीपुरुषयोः (चमसः) अ० ६।४७।३। मेघः-निघ० १।१०। मेघ इवोपकारी (देवपानः) विद्वद्भिः पानं रक्षणं यस्य सः (तम्) यज्ञम्) (उ) एव (विश्वे) सर्वे (अमृतासः) अमराः। निरलसाः (जुषाणाः) सेवमानाः। प्रीयमाणाः (गन्धर्वस्य) अ० २।१।२। भूमिधारकस्य सूर्यस्य (प्रति) प्रत्यक्षम् (आस्ना) मुखेन। प्रकाशेनेत्यर्थः (रिहन्ति) अर्चन्ति-निघ० ३।१४ ॥

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