अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 73/ मन्त्र 9
ऋषिः - अथर्वा
देवता - घर्मः, अश्विनौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - धर्म सूक्त
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जुष्टो॒ दमू॑ना॒ अति॑थिर्दुरो॒ण इ॒मं नो॑ य॒ज्ञमुप॑ याहि वि॒द्वान्। विश्वा॑ अग्ने अभि॒युजो॑ वि॒हत्य॑ शत्रूय॒तामा भ॑रा॒ भोज॑नानि ॥
स्वर सहित पद पाठजुष्ट॑: । दमू॑ना: । अति॑थि: । दु॒रो॒णे । इ॒मम् । न॒: । य॒ज्ञम् । उप॑ । या॒हि॒ । वि॒द्वान् । विश्वा॑: । अ॒ग्ने॒ । अ॒भि॒ऽयुज॑: । वि॒ऽहत्य॑ । श॒त्रु॒ऽय॒ताम् । आ । भ॒र॒ । भोज॑नानि ॥७७.९॥
स्वर रहित मन्त्र
जुष्टो दमूना अतिथिर्दुरोण इमं नो यज्ञमुप याहि विद्वान्। विश्वा अग्ने अभियुजो विहत्य शत्रूयतामा भरा भोजनानि ॥
स्वर रहित पद पाठजुष्ट: । दमूना: । अतिथि: । दुरोणे । इमम् । न: । यज्ञम् । उप । याहि । विद्वान् । विश्वा: । अग्ने । अभिऽयुज: । विऽहत्य । शत्रुऽयताम् । आ । भर । भोजनानि ॥७७.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे बिजुली सदृश उत्तम गुणवाले राजन् ! (जुष्टः) सेवा किया गया वा प्रसन्न किया गया, (दमूनाः) शम दम आदि से युक्त, (अतिथिः) सदा गतिशील [महापुरुषार्थी], (विद्वान्) विद्वान् तू (नः) हमारे (दुरोणे) घर में वर्तमान (इमम्) इस (यज्ञम्) उत्तम दान को (उप याहि) सादर प्राप्त हो। और (शत्रूयताम्) शत्रुसमान आचरण करनेवालों की (विश्वाः) सब (अभियुजः) चढ़ाई करती हुई सेनाओं को (विहत्य) अनेक प्रकार से मार कर (भोजनानि) पालनसाधनों को (आ) सब ओर से (भर) धारण कर ॥९॥
भावार्थ
सब प्रजागण धर्मात्मा पराक्रमी राजा को सदा प्रसन्न रक्खें, जिससे वह शत्रुओं को जीत कर प्रजापालन करता रहे ॥९॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−५।४।५ ॥
टिप्पणी
९−(जुष्टः) सेवितः प्रीतो वा (दमूनाः) अ० ७।१४।४। शमदमादियुक्तः (अतिथिः) अ० ७।२१।१। अतनशीलः। महापुरुषार्थी (दुरोणे) अ० ५।२।६। गृहे वर्तमानम् (इमम्) प्रत्यक्षम् (नः) अस्माकम् (यज्ञम्) उत्तमपदार्थदानम् (उप) (याहि) (विद्वान्) (विश्वाः) समग्राः (अग्ने) विद्युदिव शुभगुणाढ्य राजन् (अभियुजः) अभियोक्त्रीः परसेनाः (विहत्य) विविधं हत्वा (शत्रूयताम्) अ० ३।१।३। शत्रुवदाचरताम् (आ) समन्तात् (भर) धर (भोजनानि) पालनसाधनानि ॥
विषय
प्रभु-उपासन व शत्रु-विनाश
पदार्थ
१. हे प्रभो! आप (जुष्ट:) = प्रीतिपूर्वक सेवित हुए-हुए (दमूना:) = [दानमना:-नि० ४।४] सब-कुछ देने के मनवाले (अतिथि:) = निरन्तर गतिशील (विद्वान्) = ज्ञानी हैं। ये प्रभु (नः दुरोणे) = इस हमारे घर में (इमं यज्ञं उपयाहि) = इस यज्ञ को प्रास हों। हम सब घरों में यज्ञशील बनें। यज्ञों द्वारा प्रभु की उपासना करते हुए प्रभु को प्राप्त करें। २.हे (अग्रे) = अग्रणी प्रभो! (विश्वा:) = सब (शत्रूयताम्) = शत्रु की भाँति आचरण करते हुए लोगों की (अभियुज:) = आक्रमणकारिणी पर-सेनाओं को (विहत्य) = नष्ट करके (भोजनानि आभर) = हमारे लिए पालन-साधनों को प्राप्त कराइए। इसप्रकार व्यवस्था कीजिए कि हम शत्रुओं को पराजित करके ठीक प्रकार अपना पालन कर सकें।
भावार्थ
हम यज्ञों द्वारा प्रौतिपूर्वक प्रभु का उपासन करें। प्रभु हमारे शत्रुओं का विनाश करें। प्रभु हमें पालन-साधनों को प्राप्त कराएं।
भाषार्थ
(अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रि ! (जुष्टः) प्रीत तथा सेवाई (दमूना) शम-दम सम्पन्न मन वाला (अतिथिः) अतिथि (दुरोणे) जैसे गृहस्थी के घर में आता है, वैसे तू (विद्वान्) राज्यव्यवस्था का जानने वाला (नः) हमारे (इमम् यज्ञम्) इस राष्ट्र यज्ञ में (उप याहि) उपस्थित होजा। और (विश्वाः अभियुजः) सब आक्रमणकारी परकीय सेनाओं का (विहत्य) विशेष हनन करके (शत्रूयताम्) हमारे साथ शत्रुता चाहने वालों के (भोजनानि) भोजनों को (आभर = आहर) छीन ले।
टिप्पणी
[अग्ने = अग्निः अग्रणीर्भवति (निरुक्त ७।४।१४)। मन्त्रवर्णन से स्पष्ट ज्ञात होता है कि अग्नि, यज्ञाग्नि नहीं; अपितु वह राजनीतिज्ञ सर्वाग्रणी व्यक्ति है जो कि शत्रुओं का हनन कर उनके भोजनों को छीनकर उन्हें भूखे मरने देता है। अतः मन्त्र में यज्ञ का अभिप्राय है "राष्ट्रयज्ञ"। अभियुजः= "हमारे संमुख जुटी हुई" परसेनाएं]।
विषय
ब्रह्मानन्द रस।
भावार्थ
(दमूना:) जितेन्द्रिय, जितचित्त (अतिथिः) अतिथि के समान पूजायोग्य, सर्वत्र शरीर में शक्ति रूप से व्यापक या निरन्तर गतिशील, ज्ञानवान्, (दुरोणे) देहरूप गृह में, (जुष्टः) अति प्रसन्न, अपने कर्म-फलों को करने द्वारा आत्मा (नः) हमारे, हम इन्द्रियगण के (इमं यज्ञम्) इस यज्ञको, परस्पर संगत हुए प्राणों के परस्पर आदानप्रतिदानमय व्यवस्थित जीवनमय यज्ञ को (उप याहि) प्राप्त हो। हे (अग्ने) सबके अग्रणी ! सेनापति या राजा जिस प्रकार परन्तप होकर (विश्वाः) समस्त (अभि-युजः) आक्रमणकारी सेनाओं को (विहत्य) विनाश करके (शत्रूयताम्) अपना बल नाश करने वाले, अपने पर आक्रमणकारी शत्रुओं के (भोजनानि) भोजन सामग्री को छीनकर अपने लोगों को ला देता है, उसी प्रकार हे आत्मन् ! तू (विश्वाः) समस्त (अभियुजः) प्रत्यक्ष रूपसे इन्द्रियों से योग करने हारे पदार्थों को (वि-हत्य) प्राप्त कर उनको अपने अधीन करके (शत्रूयताम्) अपने शत्रु के समान ‘त्वं’ कारास्पद, आत्मा से भिन पदार्थों के (भोजनानि) भोग योग्य फलों को प्राप्त कर, और हम इन्द्रियों के निमित्त प्राप्त करा। इन्द्रियगण का आत्मा के प्रति वचन है। प्रजा या सेनानायक का अपने सेनापति या राजा के प्रति वचन भी स्पष्ट है। आत्मा के अतिथि आदि नाम उपनिषद् में स्पष्ट कहे हैं।
टिप्पणी
हंसः शुचिषद् वसुरन्तरिक्षसद् होता वेदिषद् अतिथिर्दुरोणसत्॥ (क० उप० वल्ली ४। क०२) “अस्या ऋग्वेदे वसुश्रुत आभेय ऋषिः॥”
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। अश्विनौ देवते। धर्मसूक्तम्। १, ४, ६ जगत्यः। २ पथ्या बृहती। शेषा अनुष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Yajna Karma
Meaning
Agni, ruler, leader, sagely scholar, giver of light and life, self-controlled friend of the home and family, vibrant and dynamic, invoked, invited and loved in the home, come and grace this yajna of ours, having overcome and crossed over all fighting forces of our enemies, and bear and bring the sweetest nutriments of life for us.
Translation
O adorable Lord (Agne), You are loving, generous and honoured as respectable guest an our homes. May you come to bless our fire-ritual. May you having scattered all our adversaries, bring to us the possessions of our foe-men. (Also Rg. V.4.5)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.77.9AS PER THE BOOK
Translation
O Self-refulgent God! may the learned guest who is kind to preach us, respectfully invited come to participate in this yajna of ours in our house. O mighty one destroying all our internal enemies via passion, anger etc which harm us like foes bring to us means of our maintenance.
Translation
O noble, well-served, self-controlled, ever-energetic, learned king, having destroyed all assailants, take hold of the possessions of our foes!
Footnote
See Rig, 5-4-5.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(जुष्टः) सेवितः प्रीतो वा (दमूनाः) अ० ७।१४।४। शमदमादियुक्तः (अतिथिः) अ० ७।२१।१। अतनशीलः। महापुरुषार्थी (दुरोणे) अ० ५।२।६। गृहे वर्तमानम् (इमम्) प्रत्यक्षम् (नः) अस्माकम् (यज्ञम्) उत्तमपदार्थदानम् (उप) (याहि) (विद्वान्) (विश्वाः) समग्राः (अग्ने) विद्युदिव शुभगुणाढ्य राजन् (अभियुजः) अभियोक्त्रीः परसेनाः (विहत्य) विविधं हत्वा (शत्रूयताम्) अ० ३।१।३। शत्रुवदाचरताम् (आ) समन्तात् (भर) धर (भोजनानि) पालनसाधनानि ॥
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