अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
ऋषिः - उपरिबभ्रवः
देवता - पूषा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वस्तिदा पूषा सूक्त
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प्रप॑थे प॒थाम॑जनिष्ट पू॒षा प्रप॑थे दि॒वः प्रप॑थे पृथि॒व्याः। उ॒भे अ॒भि प्रि॒यत॑मे स॒धस्थे॒ आ च॒ परा॑ च चरति प्रजा॒नन् ॥
स्वर सहित पद पाठप्रऽप॑थे । प॒थाम् । अ॒ज॒नि॒ष्ट॒ । पू॒षा । प्रऽप॑थे । दि॒व: । प्रऽप॑थे । पृ॒थि॒व्या: । उ॒भे इति॑ । अ॒भि । प्रि॒यत॑मे॒ इति॑ प्रि॒यऽत॑मे । स॒धऽस्थे इति॑ स॒धऽस्थे॑ । आ । च॒ । परा॑ । च॒ । च॒र॒ति॒ । प्र॒ऽजा॒नन् ॥१०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रपथे पथामजनिष्ट पूषा प्रपथे दिवः प्रपथे पृथिव्याः। उभे अभि प्रियतमे सधस्थे आ च परा च चरति प्रजानन् ॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽपथे । पथाम् । अजनिष्ट । पूषा । प्रऽपथे । दिव: । प्रऽपथे । पृथिव्या: । उभे इति । अभि । प्रियतमे इति प्रियऽतमे । सधऽस्थे इति सधऽस्थे । आ । च । परा । च । चरति । प्रऽजानन् ॥१०.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के उपासना का उपदेश।
पदार्थ
(पूषा) पूषा, पोषण करनेवाला परमेश्वर (पथाम्) सब मार्गों में से (प्रपथे) चौड़े मार्ग में (दिवः) सूर्य के (प्रपथे) चौड़े मार्ग में और (पृथिव्याः) पृथिवी के (प्रपथे) चौड़े मार्ग में (अजनिष्ट) प्रकट हुआ है। (प्रजानन्) बड़ा विद्वान् वह (उभे) दोनों (प्रियतमे) [परस्पर] अति प्रिय (सधस्थे) एक साथ स्थिति करनेवाले [सूर्य और पृथिवी लोक] (अभि) में (आ) हमारे निकट (च च) और (परा) दूर (चरति) विचरता रहता है ॥१॥
भावार्थ
जो परमात्मा सूर्य, पृथिवी आदि लोकों को परस्पर आकर्षण से धारण करता है, वही हमारा पालन पोषण करता है, चाहे हम अपने घर के निकट वा दूर हों ॥१॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है-म० १०।१७।६ ॥
टिप्पणी
१−(प्रपथे) प्रकृष्टे विस्तृते मार्गे (पथाम्) मार्गाणां मध्ये (अजनिष्ट) प्रादुर्भूत (पूषा) अ० १।९।१। पोषकः परमेश्वरः (दिवः) सूर्यस्य (पृथिव्याः) भूलोकस्य (उभे) द्वे द्यावापृथिव्यौ (अभि) प्रति (प्रियतमे) अतिशयेन प्रीतिमत्यौ (सधस्थे) परस्पराकर्षणेन सहस्थितिशीले (आ) समीपे (च च) (परा) दूरे (चरति) गच्छति (प्रजानन्) प्रकृष्टविद्वान् ॥
विषय
पूषा
पदार्थ
१. (पूषा) = पोषक प्रभु [मार्गदर्शक देव] (पथाम् प्रपथे अजनिष्ट) = [प्रक्रान्त:पन्थाः प्रपथः] मार्गों के प्रारम्भ में प्रादुर्भूत होता है। प्रभु ही प्रत्येक मार्ग का रक्षण कर रहे हैं। वह पूषा ही (दिवः प्रपथे) = धुलोक के प्रवेशद्वार पर और (पृथिव्याः प्रपथे) = पृथिवी के प्रवेशद्वार पर रक्षक के रूप में विद्यमान है। २. वह पूषा प्रभु (उभे) = दोनों (प्रियतमे) = अतिशयेन प्रीतिवाले (सधस्थे) = परस्पर मिलकर रहनेवाले [द्यौ पिता, पृथिवी माता] सब प्राणियों के माता व पितारूप द्यावापृथिवी को (अभि) = लक्ष्य करके (प्रजानन्) = प्राणियों से किये गये कर्मों व उन कर्मों के फलों को जानता हुआ (आ च परा च चरति) = धुलोक से पृथिवीलोक में और पृथिवी से झुलोक में सर्वत्र विचरते हैं। दोनों लोकों में विचरते हुए वे प्रभु सर्वप्राणिकृत कर्मों के साक्षी हैं।
भावार्थ
'उपरिबभु'-उन्नति पथ का उपासक प्रभु को सब मार्गों के रक्षक के रूप में देखता है। वह प्रभु को झुलोक से पृथिवीलोक तक सर्वत्र विचरता हुआ व सब प्राणियों के कर्मों का साक्षी होता हुआ अनुभव करता है।
भाषार्थ
(पथाम्) मार्गों में से (प्रपथे) श्रेष्ठमार्ग पर चलते हुए, (पूषा) पोषक परमेश्वर (अजनिष्ट) प्रकट होता है, (दिवः) अर्थात् दिव्य (प्रपथे) श्रेष्ठ मार्ग पर, तथा (पृथिव्याः) पार्थिव (प्रपथे) श्रेष्ठ मार्ग पर [चलते हुए को]। (उभे) ये दोनों मार्ग (प्रियतमे) अत्यन्त लगते हैं, और जीवन में साथ-साथ स्थित रहते हैं। (प्रजानन्) प्रज्ञानी व्यक्ति (अभि) इन दोनों मार्गों को संमुख कर (आ च) इधर के अर्थात् प्रेय के मार्ग की ओर, (परा च) और परले अर्थात् श्रेयमान की ओर [युगपत्] (चरति) चलता है।
टिप्पणी
[जीवन के दो मार्ग है, दिव् का मार्ग अर्थात् देवों का मार्ग मार्ग, श्रेयमार्ग और पार्थिव जीवन का मार्ग, प्रेयमार्ग। इन दोनों मार्गों पर साथ-साथ चला जा सकता है (सधस्थे) यदि इन दोनों मार्गों पर उत्कृष्टरूप में– अर्थात् दोनों मार्गों के लिये निर्दिष्ट समन्वित निजकर्तव्यों का पालन करते हुए, चला जाय (प्रपथे) तो दोनों मार्गों में परमेश्वर की प्राप्ति हो सकती है। परमेश्वर पूषा है, वह दोनों मार्गों पर युगपत् चलने वाले को पुष्टि प्रदान करता रहता है]।
विषय
उत्तम मार्गदर्शक, पति और पालक से प्रार्थना।
भावार्थ
(पूषा) समस्त संसार का पोषक परमात्मा (पथाम्) समस्त मार्गों या लोकों के (प्रपथे) उत्कृष्ट, उच्चतर मार्ग में और (दिवः प्रपथे) द्यौ = सूर्य के मार्ग में और (पृथिव्याः प्रपथे) पृथिवी के मार्ग में (अजनिष्ट) विद्यमान है (प्रियतमे) अत्यन्त प्रियतम (सधस्थे) एक ही स्थान अर्थात् आकाश में विद्यमान है द्यौ और पृथिवी दोनों के (अभि) सन्मुख उन दोनों को (प्रजानन्) जानता हुआ (आ च चरति परा च) उनके पास और दूर सर्वत्र व्यापक है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उपरिबभ्रव ऋषिः। ऋग्वेदे देवश्रवा यामायन ऋषिः। पूषा देवता। १, २ त्रिष्टुभौ। ३ त्रिपदा आर्षी गायत्री। ४ अनुष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Worship of Divinity
Meaning
Pusha, Lord Divine, all sustainer, bright as sun, beatific as moon and inspiring as soma, manifests, pervades, protects and guides on the highest of the paths of existence, on the path of heaven and on the path of the earth. Both of these, paths and havens of life, earthly and heavenly, the path of earthly prosperity, Abhyudaya, and the path of heavenly bliss, Nihshreyas, the Lord pervades, this one here and the other one there, knowing every thing and all, present, past and future.
Subject
Pusan
Translation
The nourisher Lord (Sun) appears on the distant paths of paths, on the distant path of the sky, on the distant path of the earth. Both of them are his most pleasing abodes. He travels to and from those (abodes) with full knowledge (prajanan). (Also Rg. X.17.6)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.10.1AS PER THE BOOK
Translation
Pushan, the Guardian of this universe is manifest in the broade space of the pathways of heavenly bodies, He is manifest in the wide path remote from heaven and remote from earth. He pervades the both of the inter-connected regions, the earth and the sun from all sides knowing everything of them.
Translation
God, the Nourisher of the world, is present in the pathways of the atmosphere, sun and earth. The Omniscient Lord is near us and far from us, in both the lovely and mutually attracted Sun and Earth.
Footnote
(1-4) In these verses Pusha has been translated as God. Pusha may also mean, the king Octroi officer, Treasurer, Householder, Tax collector, vide Shatpath, 3-4-1-14, 11-4-3-15, 2-5-1-11, 11-1-2-17.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(प्रपथे) प्रकृष्टे विस्तृते मार्गे (पथाम्) मार्गाणां मध्ये (अजनिष्ट) प्रादुर्भूत (पूषा) अ० १।९।१। पोषकः परमेश्वरः (दिवः) सूर्यस्य (पृथिव्याः) भूलोकस्य (उभे) द्वे द्यावापृथिव्यौ (अभि) प्रति (प्रियतमे) अतिशयेन प्रीतिमत्यौ (सधस्थे) परस्पराकर्षणेन सहस्थितिशीले (आ) समीपे (च च) (परा) दूरे (चरति) गच्छति (प्रजानन्) प्रकृष्टविद्वान् ॥
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