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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 15
    ऋषिः - चातनः देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा छन्दः - जगती सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
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    अ॒द्या मु॑रीय॒ यदि॑ यातु॒धानो॒ अस्मि॒ यदि॒ वायु॑स्त॒तप॒ पूरु॑षस्य। अधा॒ स वी॒रैर्द॒शभि॒र्वि यू॑या॒ यो मा॒ मोघं॒ यातु॑धा॒नेत्याह॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒द्य । मु॒री॒य॒ । यदि॑ । या॒तु॒ऽधान॑: । अस्मि॑ । यदि॑। वा॒ । आयु॑: । त॒तप॑ । पुरु॑षस्य । अध॑ । स: । वी॒रै: । द॒शऽभि॑: । वि । यू॒या॒: । य: । मा॒ । मोघ॑म् । यातु॑ऽधान । इति॑ ।आह॑ ॥४.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अद्या मुरीय यदि यातुधानो अस्मि यदि वायुस्ततप पूरुषस्य। अधा स वीरैर्दशभिर्वि यूया यो मा मोघं यातुधानेत्याह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अद्य । मुरीय । यदि । यातुऽधान: । अस्मि । यदि। वा । आयु: । ततप । पुरुषस्य । अध । स: । वीरै: । दशऽभि: । वि । यूया: । य: । मा । मोघम् । यातुऽधान । इति ।आह ॥४.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 15
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा और मन्त्री के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (अद्य) आज (मुरीय) मैं मर जाऊँ, (यदि) जो मैं (यातुधानः) पीड़ा देनेवाला (अस्मि) हूँ, (यदि वा) अथवा (पुरुषस्य) किसी पुरुष के (आयुः) जीवन को (ततप) मैंने सताया है। (अध) सो (सः) वह तू (दशभिः) दश (वीरैः) वीरों से (वि यूयाः) अलग हो जा, (यः) जो आप (मा) मुझ से (मोघम्) व्यर्थ (इति) यह (आह) कहे (यातुधान) “तू दुःखदायी है” ॥१५॥

    भावार्थ

    सत्पुरुषों के दुःखदायी होने से मनुष्य का मर जाना अच्छा है, और मिथ्या अपवादियों का भी नाश होना चाहिये ॥१५॥

    टिप्पणी

    १५−(अद्य) वर्तमाने दिने (मुरीय) मृङ् प्राणत्यागे-विधिलिङ्। बहुलं छन्दसि। पा० २।४।७३। तुदादेरदादित्वम्। बहुलं छन्दसि। पा० ७।१।१०३। ऋकारस्य उकारः। अहं म्रियेय (यदि) (यातुधानः) पीडाप्रदः (अस्मि) (यदि वा) (आयुः) जीवनम् (ततप) अहं सन्तापितवान् (पुरुषस्य) मनुष्यस्य (अद्य) अथ (सः) स त्वम् (वीरैः) शूरैः (दशभिः) (वियूयाः) वियुक्तोः भवेः (यः) यो भवान् (मा) माम् (मोघम्) व्यर्थम् (यातुधान) त्वं यातुधानोऽसि (इति) अनेन प्रकारेण (आह) ब्रूते ॥

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    विषय

    न यातुधान, न सन्तापक

    पदार्थ

    १. (यदि) = यदि मैं (यातुधान:) = पीड़ा का आधान करनेवाला राक्षस (अस्मि) = हूँ, तो (अद्या मुरीय) = आज ही मर जाऊँ। (यदि वा) = अथवा यदि (पूरुषस्य) = किसी भी पुरुष के (आयुः ततप) = जीवन को मैं सन्तस करता हूँ तो मैं उसी समय मृत्यु को प्राप्त हो जाऊँ। पापी बनने से मर जाना अच्छा है। २. परन्तु (यः) = जो (मा) = मुझे (मोघम्) = व्यर्थ ही (यातुधान इति आह) = पीड़ित करनेवाला कहता है, अर्थात् मुझपर व्यर्थ ही दोषारोपण करता है, (स:) = वह (दशभिः वीरैः) = दसों पुत्रों से सब बन्धुओं से (वियूया:) = पृथक् हो जाए। सब बन्धु उसे अच्छा न समझें और उसका सामाजिक बहिष्कार कर दें।

    भावार्थ

    न मैं राक्षसीवृत्तिवाला बनें और न ही किसी के जीवन को कष्टमय करनेवाला होऊँ।

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    भाषार्थ

    (अद्य) आज (मुरीय) मैं मर जाऊं (यदि) यदि (यातुधानः) यातना देने वाला (अस्मि) मैं हूं, (यदि वा) अथवा यदि (पुरुषस्य) किसी पुरुष के (आयुः) जीवन को (ततप) मैंने संतप्त किया है। (अधा) तथा (सः) वह (दशभिः वीरैः) १० पुत्रों से (वियूयाः) वियुक्त हो जाय (यः) जो कि (मा) मुझे (मोघम) व्यर्थ में (आह) कहता है (यातुधान इति) कि हे "यातुधान" ! अर्थात् जो मुझ पर यातुधान होने का दोषारोपण करता है। यातुधानः= यातनाओं का निधान।

    टिप्पणी

    [वियूयाः= पुरुषव्यत्यय हुआ है। मन्त्र में साम्राज्य के संविधान के के अनुसार [सोम] सेनाध्यक्ष कहता है कि मैं आज ही मर जाऊं, अर्थात् मुझे आज ही मृत्युदण्ड दिया जाय, यदि मैं अपराधी हूं। तथा वह व्यक्ति जो कि साम्राज्य के न्यायाधीश के सामने मुझ पर यातुधान होने का आरोप करता है, यदि वह आरोप असत्य निर्णीत हो जाय तो आरोपकर्त्ता को १० पुत्रों से सदा के लिए वियुक्त करने का दण्ड दिया जाय, अर्थात् उसे मृत्युदण्ड दिया जाय या पुत्रों से अलग कर दिया जाय। १० पुत्र इसलिये कहा कि वेदाज्ञा के अनुसार गृहस्थी को १० पुत्र उत्पन्न करने की स्वतन्त्रता दी है, इससे अधिक की नहीं। यथा “दशास्यां पुत्रानाधेहि पतिमेकादशं कृधि" (ऋग्वेद १०।८५।४५)। व्याख्येय मन्त्र में शपथ और अभिशाप का वर्णन प्रतीत नहीं होता, अपितु प्रकरणानुसार वैदिक न्यायालय में सेनाध्यक्ष द्वारा अभियोग मात्र का वर्णन है। यदि प्रकरण का ध्यान न कर मन्त्र पर विचार किया जाय तो मन्त्र में शपथ और अभिशाप की प्रतीति अवश्य होती है]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Enemies

    Meaning

    If I were a demon on the move, or if I tormented any person in life, then let me suffer death right now today. But I am not, nor have I done so. Then let that person be deprived of all his ten faculties of sense and prana who falsely proclaims that I am a demonic tormentor of others.

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    Translation

    In case I have harassed any one in this life, or if I have behaved like a demon, may death come to me this day. May he, verily, lose all his ten children and may he die also who with his false tongue has called me a fiend coming in disguise. (Also Rg. VII.104.15)

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    Translation

    O King! so may I die now if I am the wicked and torturer of people and if I harass any man’s life. So let loose him- self with his ten vital airs the man who calls me yatudhana (mischief creating wicked) in vain.

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    Translation

    May I die this day if I have harassed any man’s life, or if I be a demon. Yea, may he lose all his ten breaths or sons, who with false tongue hath called me Yatudhana, a tormentor of others.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १५−(अद्य) वर्तमाने दिने (मुरीय) मृङ् प्राणत्यागे-विधिलिङ्। बहुलं छन्दसि। पा० २।४।७३। तुदादेरदादित्वम्। बहुलं छन्दसि। पा० ७।१।१०३। ऋकारस्य उकारः। अहं म्रियेय (यदि) (यातुधानः) पीडाप्रदः (अस्मि) (यदि वा) (आयुः) जीवनम् (ततप) अहं सन्तापितवान् (पुरुषस्य) मनुष्यस्य (अद्य) अथ (सः) स त्वम् (वीरैः) शूरैः (दशभिः) (वियूयाः) वियुक्तोः भवेः (यः) यो भवान् (मा) माम् (मोघम्) व्यर्थम् (यातुधान) त्वं यातुधानोऽसि (इति) अनेन प्रकारेण (आह) ब्रूते ॥

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