Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 27

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 27/ मन्त्र 12
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिवृत् छन्दः - एकावसानार्च्युष्णिक् सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त

    ये दे॑वा अ॒न्तरि॑क्ष॒ एका॑दश॒ स्थ ते॑ देवासो ह॒विरि॒दं जु॑षध्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये। दे॒वाः॒। अ॒न्तरि॑क्षे। एका॑दश। स्थ। ते। दे॒वा॒सः॒। ह॒विः। इ॒दम्। जु॒ष॒ध्व॒म् ॥२७.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये देवा अन्तरिक्ष एकादश स्थ ते देवासो हविरिदं जुषध्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। देवाः। अन्तरिक्षे। एकादश। स्थ। ते। देवासः। हविः। इदम्। जुषध्वम् ॥२७.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 27; मन्त्र » 12

    पदार्थ -
    (देवाः) हे विद्वानो ! (ये) जो तुम (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (एकादश) ग्यारह [श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, नासिका, वाणी, हाथ, पाँव, गुदा, लिङ्ग और मन−इन ग्यारह के समान] (स्थ) हो, (देवासः) हे विद्वानो ! (ते) वे तुम (इदम्) इस (हविः) ग्रहणयोग्य वस्तु [वचन] को (जुषध्वम्) सेवन करो ॥१२॥

    भावार्थ - जैसे सूर्यादि लोकों में सब पदार्थ स्थित रहकर अपना-अपना कर्तव्य कर रहे हैं, वैसे ही मनुष्यों को ईश्वर और वेद में दृढ़ रहकर अपने कर्तव्य में परम निष्ठा रखनी चाहिये ॥११-१३॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top