अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 27/ मन्त्र 15
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिवृत्
छन्दः - त्र्यवसाना सप्तपदा बृहतीगर्भातिशक्वरी
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
दि॒वो मा॑दि॒त्या र॑क्षन्तु॒ भूम्या॑ रक्षन्त्व॒ग्नयः॑। इ॑न्द्रा॒ग्नी र॑क्षतां मा पु॒रस्ता॑द॒श्विना॑व॒भितः॒ शर्म॑ यच्छताम्। ति॑र॒श्चीन॒घ्न्या र॑क्षतु जा॒तवे॑दा भूत॒कृतो॑ मे स॒र्वतः॑ सन्तु॒ वर्म॑ ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वः। मा॒। आ॒दि॒त्याः। र॒क्ष॒न्तु॒। भूम्याः॑। र॒क्ष॒न्तु॒। अग्न॒यः॑। इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑। र॒क्ष॒ता॒म्। मा॒। पु॒रस्ता॑त्। अ॒श्विनौ॑। अ॒भितः॑। शर्म॑। य॒च्छ॒ता॒म्। ति॒र॒श्चीन्। अ॒घ्न्या। र॒क्ष॒तु। जा॒तऽवे॑दाः। भू॒त॒ऽकृतः॑। मे॒। स॒र्वतः॑। स॒न्तु॒। वर्म॑ ॥२७.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवो मादित्या रक्षन्तु भूम्या रक्षन्त्वग्नयः। इन्द्राग्नी रक्षतां मा पुरस्तादश्विनावभितः शर्म यच्छताम्। तिरश्चीनघ्न्या रक्षतु जातवेदा भूतकृतो मे सर्वतः सन्तु वर्म ॥
स्वर रहित पद पाठदिवः। मा। आदित्याः। रक्षन्तु। भूम्याः। रक्षन्तु। अग्नयः। इन्द्राग्नी इति। रक्षताम्। मा। पुरस्तात्। अश्विनौ। अभितः। शर्म। यच्छताम्। तिरश्चीन्। अघ्न्या। रक्षतु। जातऽवेदाः। भूतऽकृतः। मे। सर्वतः। सन्तु। वर्म ॥२७.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 27; मन्त्र » 15
विषय - आशीर्वाद देने का उपदेश।
पदार्थ -
(आदित्याः) अखण्डव्रती शूर (मा) मुझे (दिवः) आकाश से (रक्षन्तु) बचावें, (अग्नयः) ज्ञानी पुरुष (भूम्याः) भूमि से (रक्षन्तु) बचावें। (इन्द्राग्नी) बिजुली और अग्नि [के समान तेजस्वी और व्यापक राजा और मन्त्री दोनों] (मा) मुझे (पुरस्तात्) सामने से (रक्षताम्) बचावें, (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा [के समान ठीक मार्ग पर चलनेवाले वे दोनों] (अभितः) सब ओर से (शर्म) सुख (यच्छताम्) देवें। (जातवेदाः) बहुत धनवाली (अघ्न्या) अटूट [राजनीति] (तिरश्चीन=तिरश्चिभ्यः) आड़े चलनेवाले [वैरियों] से [मुझे] (रक्षतु) बचावे, (भूतकृतः) उचित कर्म करनेवाले पुरुष (मे) मेरे लिये (सर्वतः) सब ओर से (वर्म) कवच (सन्तु) होवें ॥१५॥
भावार्थ - जो राजा और राजपुरुष आकाश में वायुयान द्वारा चलनेवाले वीरों से और पृथिवी पर अश्ववार आदि से अस्त्र-शस्त्र द्वारा शत्रुओं का नाश करते हैं, वही प्रजा की रक्षा कर सकते हैं ॥१५॥
टिप्पणी -
यह मन्त्र ऊपर आ चुका है-अ०१९।१६।२॥१५−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ०१९।१६।२॥