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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 135

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 2
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    को॑श॒बिले॑ रजनि॒ ग्रन्थे॑र्धा॒नमु॒पानहि॑ पा॒दम्। उत्त॑मां॒ जनि॑मां ज॒न्यानुत्त॑मां॒ जनी॒न्वर्त्म॑न्यात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    को॒श॒बिले॑ । रजनि॒ । ग्रन्थे॑: । धा॒नम् । उ॒पानहि॑ । पा॒दम् ॥ उत्त॑मा॒म् । जनि॑माम् । ज॒न्या । अनुत्त॑मा॒म् । जनी॒न् । वर्त्म॑न् । यात् ॥१३५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कोशबिले रजनि ग्रन्थेर्धानमुपानहि पादम्। उत्तमां जनिमां जन्यानुत्तमां जनीन्वर्त्मन्यात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कोशबिले । रजनि । ग्रन्थे: । धानम् । उपानहि । पादम् ॥ उत्तमाम् । जनिमाम् । जन्या । अनुत्तमाम् । जनीन् । वर्त्मन् । यात् ॥१३५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (रजनि) रात्रि में [जैसे] (कोशबिले) कोश [सोना चाँदी रखने] के कुण्ड के भीतर (ग्रन्थेः) गाँठ के (धानम्) रखने को, [अथवा जैसे] (उपानहि) जूते में (पादम्) पैर को, [वैसे ही] (जन्या) मनुष्यों के बीच (उत्तमाम्) उत्तम (जनिमाम्) जन्म लक्ष्मी [शोभा वा ऐश्वर्य], (अनुत्तमाम्) अति उत्तम गति और (जनीन्) उत्पन्न पदार्थों को (वर्त्मनि) मार्ग में (यात्) [मनुष्य] प्राप्त होवे ॥२॥

    भावार्थ - जैसे रात्रि में कोशागार में रखकर सोने चाँदी की, और जूता पहिनकर पैर की रक्षा करते हैं, वैसे ही मनुष्य श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न होकर उत्तम प्रवृत्ति करके उन्नति करें ॥२॥

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