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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 135

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 4
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च छन्दः - आर्ष्युष्णिक् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    वीमे दे॒वा अ॑क्रंस॒ताध्व॒र्यो क्षि॒प्रं प्र॒चर॑। सु॑स॒त्यमिद्गवा॑म॒स्यसि॑ प्रखु॒दसि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । इ॑मे । दे॒वा: । अ॑क्रंस॒त । अध्व॒र्यो । क्षि॒प्रम् । प्र॒चर॑ ॥ सु॒स॒त्यम् । इत् । गवा॑म् । अ॒सि । असि॑ । प्रखु॒दसि॑ ॥१३५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वीमे देवा अक्रंसताध्वर्यो क्षिप्रं प्रचर। सुसत्यमिद्गवामस्यसि प्रखुदसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । इमे । देवा: । अक्रंसत । अध्वर्यो । क्षिप्रम् । प्रचर ॥ सुसत्यम् । इत् । गवाम् । असि । असि । प्रखुदसि ॥१३५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (इमे देवाः) इन विद्वानों ने (वि) विविध प्रकार (अक्रंसत) पैर बढ़ाया है, (अध्वर्यो) हे हिंसा न करनेवाले विद्वान् (क्षिप्रम्) शीघ्र (प्रचर) आगे बढ़। और (प्रखुदसि) बड़े आनन्द में (असि) तू हो, (असि) तू हो, [यह वचन] (गवाम्) स्तोताओं [गुणव्याख्याताओं] का (सुसत्यम् इत्) बड़ा ही सत्य है ॥४॥

    भावार्थ - पहिले विद्वान् लोग काम करने से बड़े हो गये हैं, वैसे ही हम भी विद्वानों का वचन मानकर आगे बढ़ें ॥४॥

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