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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 34/ मन्त्र 16
    सूक्त - गृत्समदः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३४

    जा॒तो व्यख्यत्पि॒त्रोरु॒पस्थे॒ भुवो॒ न वे॑द जनि॒तुः पर॑स्य। स्त॑वि॒ष्यमा॑णो॒ नो यो अ॒स्मद्व्र॒ता दे॒वानां॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जा॒त: । वि । अ॒ख्य॒त् । पि॒त्रो: । उ॒पस्थे॑ । भु॒व॒: । न । वे॒द॒ । जनि॒तु: । परस्य॑ ॥ स्त॒वि॒ष्यमा॑ण: । नो इति॑ । य: । अ॒स्मत् । व्र॒ता । दे॒वाना॑म् । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३४.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जातो व्यख्यत्पित्रोरुपस्थे भुवो न वेद जनितुः परस्य। स्तविष्यमाणो नो यो अस्मद्व्रता देवानां स जनास इन्द्रः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जात: । वि । अख्यत् । पित्रो: । उपस्थे । भुव: । न । वेद । जनितु: । परस्य ॥ स्तविष्यमाण: । नो इति । य: । अस्मत् । व्रता । देवानाम् । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३४.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 16

    पदार्थ -
    (यः) जो (जातः) प्रकट होकर (पित्रोः) [हमारे] माता-पिता के (उपस्थे) समीप में (वि अख्यत्) व्याख्यात हुआ है, और (परस्य) [अपने से] दूसरे (जनितुः) जनक और (भुवः) जननी को (न) नहीं (वेद) जानता है, और (देवानाम्) विद्वानों को (स्तविष्यमाणः) स्तुति किया गया [जो] (नो) अभी ही (अस्मत्) हमारे (व्रता) कर्मों को [जानता है], (जनासः) हे मनुष्यो ! (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला परमेश्वर] है ॥१६॥

    भावार्थ - जो अनादि होने से हमारे पूर्वजों का पूर्वज है, और अजन्मा होने से जिसके माता-पिता नहीं हैं, और सर्वज्ञ होने से सबके कर्मों को जानता है, हम उस जगदीश्वर की उपासना करके अपना सामर्थ्य बढ़ावें ॥१६॥

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