अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 62/ मन्त्र 10
सूक्त - गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
सूक्तम् - सूक्त-६२
स रा॑जसि पुरुष्टुतँ॒ एको॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नसे। इन्द्र॒ जैत्रा॑ श्रवस्या च॒ यन्त॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठस: । रा॒ज॒सि॒ । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । एक॑:। वृ॒त्राणि॑ । जि॒घ्न॒से॒ ॥ इन्द्र॑ । जैत्रा॑ । श्र॒व॒स्या॑ । च॒ । यन्त॑वे ॥६२.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
स राजसि पुरुष्टुतँ एको वृत्राणि जिघ्नसे। इन्द्र जैत्रा श्रवस्या च यन्तवे ॥
स्वर रहित पद पाठस: । राजसि । पुरुऽस्तुत । एक:। वृत्राणि । जिघ्नसे ॥ इन्द्र । जैत्रा । श्रवस्या । च । यन्तवे ॥६२.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 62; मन्त्र » 10
विषय - मन्त्र -१० परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ -
(पुरुष्टुत) हे बहुत स्तुति किये हुए (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (सः) सो (एकः) अकेला तू (जैत्रा) जीतनेवालों के योग्य धनों (च) और (श्रवस्या) यश के लिये हितकारी कर्मों को (यन्तवे) नियम में रखने में लिये (राजसि) राज्य करता है, और (वृत्राणि) रोकनेवाले विघ्नों को (जिघ्नसे) मिटाता है ॥१०॥
भावार्थ - अकेला महाविद्वान् और महापुरुषार्थी परमात्मा सबको परस्पर धारण-आकर्षण से चलाता हुआ अपने विश्वासी भक्तों को उनके पुरुषार्थ के अनुसार धन और कीर्ति देता है ॥९, १०॥
टिप्पणी -
८-१०−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।६१।४-६ ॥