अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 62/ मन्त्र 9
सूक्त - गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
सूक्तम् - सूक्त-६२
यस्य॑ द्वि॒बर्ह॑सो बृ॒हत्सहो॑ दा॒धार॒ रोद॑सी। गि॒रीँरज्राँ॑ अ॒पः स्वर्वृषत्व॒ना ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । द्वि॒ऽबर्ह॑स: । बृ॒हत् । सह॑: । दा॒धार॑ । रोद॑सी॒ इति॑ ॥ गि॒रीन् । अज्रा॑न् । अ॒प: । स्व॑: । वृ॒ष॒ऽत्व॒ना॥६२.९॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य द्विबर्हसो बृहत्सहो दाधार रोदसी। गिरीँरज्राँ अपः स्वर्वृषत्वना ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । द्विऽबर्हस: । बृहत् । सह: । दाधार । रोदसी इति ॥ गिरीन् । अज्रान् । अप: । स्व: । वृषऽत्वना॥६२.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 62; मन्त्र » 9
विषय - मन्त्र -१० परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ -
(द्विबर्हसः) दोनों विद्या और पुरुषार्थ में बढ़े हुए (यस्य) जिस [परमात्मा] के (बृहत्) बड़े (सहः) सामर्थ्य ने (रोदसी) सूर्य और भूमि, (अज्रान्) शीघ्रगामी (गिरीन्) मेघों, (अपः) जलों [समुद्र आदि] और (स्वः) प्रकाश को (वृषत्वना) बल के साथ (दाधार) धारण किया है ॥९॥
भावार्थ - अकेला महाविद्वान् और महापुरुषार्थी परमात्मा सबको परस्पर धारण-आकर्षण से चलाता हुआ अपने विश्वासी भक्तों को उनके पुरुषार्थ के अनुसार धन और कीर्ति देता है ॥९, १०॥
टिप्पणी -
८-१०−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।६१।४-६ ॥