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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 80

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 80/ मन्त्र 1
    सूक्त - शंयुः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-८०

    इन्द्र॒ ज्येष्ठं॑ न॒ आ भ॑रँ॒ ओजि॑ष्ठं॒ पपु॑रि॒ श्रवः॑। येने॒मे चि॑त्र वज्रहस्त॒ रोद॑सी॒ ओभे सु॑शिप्र॒ प्राः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । ज्येष्ठ॑म् । न॒: । आ ।भ॒र॒ । ओजि॑ष्ठम् । पपु॑रि । श्रव॑: ॥ येन॑ । इ॒मे इति॑ । चि॒त्र॒ । व॒ज्र॒ऽह॒स्त॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । आ । उ॒भे इति॑ । सु॒ऽशि॒प्र॒ । प्रा: ॥८०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र ज्येष्ठं न आ भरँ ओजिष्ठं पपुरि श्रवः। येनेमे चित्र वज्रहस्त रोदसी ओभे सुशिप्र प्राः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र । ज्येष्ठम् । न: । आ ।भर । ओजिष्ठम् । पपुरि । श्रव: ॥ येन । इमे इति । चित्र । वज्रऽहस्त । रोदसी इति । आ । उभे इति । सुऽशिप्र । प्रा: ॥८०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 80; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (नः) हमारे लिये (ज्येष्ठम्) अतिश्रेष्ठ, (ओजिष्ठम्) अत्यन्त बल देनेवाला, (पपुरि) पालन करनेवाला (श्रवः) यश (आ) सब ओर से (भर) धारण कर (येन) जिस [यश] से, (चित्र) हे अद्भुत स्वभाववाले, (वज्रहस्त) हे वज्र हाथ में रखनेवाले ! (सुशिप्र) हे दृढ़ जबड़ों वाले ! (इमे) इन (उभे) दोनों (रोदसी) अन्तरिक्ष और भूमि को (आ प्राः) तूने भर दिया है ॥१॥

    भावार्थ - दृढ़ स्वभाव और दृढ़ शरीरवाला राजा आकाश और भूमि पर चलने के लिये उपाय करके यशस्वी होवे ॥१॥

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