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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 82

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 82/ मन्त्र 1
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-८२

    यदि॑न्द्र॒ याव॑त॒स्त्वमे॒ताव॑द॒हमीशी॑य। स्तो॒तार॒मिद्दि॑धिषेय रदावसो॒ न पा॑प॒त्वाय॑ रासीय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । इ॒न्द्र॒ । याव॑त: । त्वम् । ए॒ताव॑त् । अ॒हम् । ईशी॑य ॥ स्तो॒तार॑म् । इत् । दि॒धि॒षे॒य॒ । र॒द॒व॒सो॒ इति॑ रदऽवसो । न । पा॒प॒ऽत्वाय॑ । रा॒सी॒य॒ ॥८२.१‍॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदिन्द्र यावतस्त्वमेतावदहमीशीय। स्तोतारमिद्दिधिषेय रदावसो न पापत्वाय रासीय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । इन्द्र । यावत: । त्वम् । एतावत् । अहम् । ईशीय ॥ स्तोतारम् । इत् । दिधिषेय । रदवसो इति रदऽवसो । न । पापऽत्वाय । रासीय ॥८२.१‍॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 82; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (रदावसो) हे धनों के खोदनेवाले ! (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (त्वम्) तू (यावतः) जितने धन का [स्वामी है, उसमें से] (अहम्) मैं (एतावत्) इतने का (ईशीय) स्वामी हो जाऊँ, (यत्) जितने से (स्तोतारम्) गुणव्याख्याता [विद्वान्] को (इत्) अवश्य (दिधिषेय) पोषण करूँ और (पापत्वाय) पाप होने के लिये [उसको] (न)(रासीय) दूँ ॥१॥

    भावार्थ - राजा प्रजा परस्पर ऐसी प्रीति रक्खें कि सब लोग विद्वान् होवें और पदार्थों के गुण जानकर धर्म से एक-दूसरे का पालन करें और कभी पाप कर्म न करें ॥१॥

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