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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 12/ मन्त्र 8
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - शाला, वास्तोष्पतिः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - शालनिर्माण सूक्त

    पू॒र्णं ना॑रि॒ प्र भ॑र कु॒म्भमे॒तं घृ॒तस्य॒ धारा॑म॒मृते॑न॒ संभृ॑ताम्। इ॒मां पा॒तॄन॒मृते॑ना सम॑ङ्ग्धीष्टापू॒र्तम॒भि र॑क्षात्येनाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पू॒र्णम् । ना॒रि॒ । प्र । भ॒र॒ । कु॒म्भम् । ए॒तम् । घृ॒तस्य॑ । धारा॑म् । अ॒मृते॑न । सम्ऽभृ॑ताम् । इ॒माम् । पा॒तृृन् । अ॒मृते॑न । सम् । अ॒ङ्ग्धि॒ । इ॒ष्टा॒पू॒र्तम् । अ॒भि । र॒क्षा॒ति॒ । ए॒ना॒म् ॥१२.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूर्णं नारि प्र भर कुम्भमेतं घृतस्य धाराममृतेन संभृताम्। इमां पातॄनमृतेना समङ्ग्धीष्टापूर्तमभि रक्षात्येनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पूर्णम् । नारि । प्र । भर । कुम्भम् । एतम् । घृतस्य । धाराम् । अमृतेन । सम्ऽभृताम् । इमाम् । पातृृन् । अमृतेन । सम् । अङ्ग्धि । इष्टापूर्तम् । अभि । रक्षाति । एनाम् ॥१२.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 12; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (नारि) हे नर का हित करनेवाली गृहपत्नी ! (एतम्) इस (पूर्णम्) पूरे (कुम्भम्) घड़े में से (अमृतेन) अमृत [हितकारी पदार्थ] से (संभृताम्) भरी हुई (घृतस्य) घी की (धाराम्) धारा को (प्र, भर=हर) अच्छे प्रकार ला। (इमाम्) इस [शाला] को और (पातॄन्) पानकर्ताओं वा रक्षकों को (अमृतेन) अमृत से (सम्) अच्छे प्रकार (अङ्ग्धि) पूर्ण कर। (इष्टापूर्तम्) यज्ञ और वेदों का अध्ययन, अन्नदानादि पुण्यकर्म (एनाम्) इस [शाला] की (अभि) सब ओर से (रक्षाति) रक्षा करे ॥८॥

    भावार्थ - गृहपत्नी घर को घृत, दुग्ध आदि अमृत पदार्थों से परिपूर्ण रखकर सब कुटुम्बियों को स्वस्थ और पुष्ट रक्खे। और सब स्त्री-पुरुष धार्मिक, पुरुषार्थी तथा धनी होकर चोर-उचक्के सिंहादि दुष्टों से रक्षा करते हुए बस्ती को बसाये रक्खें ॥८॥ मनु भगवान् ने कहा है−सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया। सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया ॥ मनु० ५।१५०॥ स्त्री सदा प्रसन्नचित्त और घर के कामों में चतुर हो और (सुसंस्कृतोपस्करया) घर की सामग्री बासन-भाँडे भली-भाँति ठीक रखती हुई, व्यय करने में हाथ सकोड़ों रहे ॥

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