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अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
सूक्त - मातृनामा
देवता - मातृनामौषधिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - पिशाचक्षयण सूक्त
आ प॑श्यति॒ प्रति॑ पश्यति॒ परा॑ पश्यति॒ पश्य॑ति। दिव॑म॒न्तरि॑क्ष॒माद्भूमिं॒ सर्वं॒ तद्दे॑वि पश्यति ॥
स्वर सहित पद पाठआ । प॒श्य॒ति॒ । प्रति॑ । प॒श्य॒ति॒ । परा॑ । प॒श्य॒ति॒ । पश्य॑ति । दिव॑म् । अ॒न्तरि॑क्षम् । आत् । भूमि॑म् । सर्व॑म् । तत् । दे॒वि॒ । प॒श्य॒ति॒ ॥२०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ पश्यति प्रति पश्यति परा पश्यति पश्यति। दिवमन्तरिक्षमाद्भूमिं सर्वं तद्देवि पश्यति ॥
स्वर रहित पद पाठआ । पश्यति । प्रति । पश्यति । परा । पश्यति । पश्यति । दिवम् । अन्तरिक्षम् । आत् । भूमिम् । सर्वम् । तत् । देवि । पश्यति ॥२०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( देवि ) = हे दिव्यशक्तिवाले परमेश्वर ! आप ( तत् ) = विस्तार करनेवाले वा सब जगह में पूर्ण हो । ( आपश्यति ) = सबके सम्मुख देख रहे हो । ( प्रतिपश्यति ) = पीछे से देखते हो। ( परापश्यति ) = दूर से देख लेते हो ( पश्यति ) = सामने से देखते हो। ( दिवम् ) = सूर्यलोक ( अन्तरिक्षम् ) = मध्यलोक ( आत् ) = और भी ( भूमिम् ) = भूमि और ( सर्वम् पश्यति ) = सबको देखते हो ।
भावार्थ -
भावार्थ = दिव्यशक्तिवाले, सर्वत्र व्यापक सर्वज्ञ सर्वान्तर्यामी, परमात्मा अपने सम्मुख, पीछे से, दूर से और सामने से देख रहे हैं। सूर्यलोक, अन्तरिक्षलोक और भूमि तथा सब पदार्थमात्र को प्रत्यक्ष देख रहे हैं। ऐसे दिव्यशक्तिवाले, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, अन्तर्यामी परमात्मा को सदा समीप द्रष्टा जानते हुए सब पापों से बच कर सदा उसकी उपासना करनी चाहिये ।
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