अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 5
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - वरुणः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सत्यानृतसमीक्षक सूक्त
सर्वं॒ तद्राजा॒ वरु॑णो॒ वि च॑ष्टे॒ यद॑न्त॒रा रोद॑सी॒ यत्प॒रस्ता॑त्। संख्या॑ता अस्य नि॒मिषो॒ जना॑नाम॒क्षानि॑व श्व॒घ्नी नि मि॑नोति॒ तानि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसर्व॑म् । तत् । राजा॑ । वरु॑ण: । वि । च॒ष्टे॒ । यत् । अ॒न्त॒रा । रोद॑सी इति॑ । यत् । प॒रस्ता॑त् । सम्ऽख्या॑ता: । अ॒स्य॒ । नि॒ऽमिष॑: । जना॑नाम् । अ॒क्षान्ऽइ॑व । श्व॒ऽघ्नी । नि । मि॒नो॒ति॒ । तानि॑ ॥१६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्वं तद्राजा वरुणो वि चष्टे यदन्तरा रोदसी यत्परस्तात्। संख्याता अस्य निमिषो जनानामक्षानिव श्वघ्नी नि मिनोति तानि ॥
स्वर रहित पद पाठसर्वम् । तत् । राजा । वरुण: । वि । चष्टे । यत् । अन्तरा । रोदसी इति । यत् । परस्तात् । सम्ऽख्याता: । अस्य । निऽमिष: । जनानाम् । अक्षान्ऽइव । श्वऽघ्नी । नि । मिनोति । तानि ॥१६.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 5
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( रोदसी अन्तरा यत् ) = द्युलोक और पृथिवीलोक के मध्य में जो प्राणिमात्र वर्त्तमान हैं ( यत् परस्तात् ) = और जो हमारे सम्मुख वा हमसे परे वर्त्तमान हैं ( सर्वं तद् ) = उन सबको ( विचष्टे ) = वरुण राजा भली प्रकार देखते हैं, ( जनानाम् निमिष: ) = प्राणियों के नेत्रस्पन्दादि सर्व व्यवहार ( अस्य संख्याता: ) = इस वरुण के गिने हुए हैं ( श्वघ्नी अक्षान् इव तानि निमिनोति ) = जैसे जुआरी अपनी जय के लिए जुए के पासों को फेंकता है, ऐसे ही सब प्राणियों के पुण्य पाप कर्मों के फलों को वरुण राजा देते हैं।
भावार्थ -
भावार्थ = हे श्रेष्ठ प्रभो! ऊपर का द्युलोक, नीचे का पृथिवी लोक और इन दोनों में जो प्राणिमात्र वर्त्तमान हैं और जो हमारे सम्मुख वा हमसे परे वर्त्तमान हैं इन सबको आप अपनी सर्वज्ञता से देख रहे हैं। जैसे कोई जुआरी पासों को जानकर फेंकता है ऐसे आप ही प्राणियों के शुभ-अशुभ कर्मों के फलप्रदाता हैं ।
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