ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 103/ मन्त्र 11
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒स्माक॒मिन्द्र॒: समृ॑तेषु ध्व॒जेष्व॒स्माकं॒ या इष॑व॒स्ता ज॑यन्तु । अ॒स्माकं॑ वी॒रा उत्त॑रे भवन्त्व॒स्माँ उ॑ देवा अवता॒ हवे॑षु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्माक॑म् । इन्द्रः॑ । सम्ऽऋ॑तेषु । ध्व॒जेषु॑ । अ॒स्माक॑म् । याः । इष॑वः । ताः । ज॒य॒न्तु॒ । अ॒स्माक॑म् । वी॒राः । उत्ऽत॑रे । भ॒व॒न्तु॒ । अ॒स्मान् । ऊँ॒ इति॑ । दे॒वाः॒ । अ॒व॒त॒ । हवे॑षु ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्माकमिन्द्र: समृतेषु ध्वजेष्वस्माकं या इषवस्ता जयन्तु । अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्त्वस्माँ उ देवा अवता हवेषु ॥
स्वर रहित पद पाठअस्माकम् । इन्द्रः । सम्ऽऋतेषु । ध्वजेषु । अस्माकम् । याः । इषवः । ताः । जयन्तु । अस्माकम् । वीराः । उत्ऽतरे । भवन्तु । अस्मान् । ऊँ इति । देवाः । अवत । हवेषु ॥ १०.१०३.११
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 103; मन्त्र » 11
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अस्माकम्) हमारा राजा (समृतेषु ध्वजेषु) सङ्गत हुईं भिन्न-भिन्न राष्ट्रध्वजाओं में अपने देश की ध्वजा को उन्नत करे (अस्माकम्) हमारे जो बाण शस्त्र हैं (ताः) वे (जयन्तु) जय प्राप्त करें (अस्माकम्) हमारे (वीराः) वीर सैनिक योद्धा (उत्तरे भवन्तु) भिन्न-भिन्न देशस्थ वीर सैनिकों के ऊपर होवें (अस्माकम्-उ) हमारे ही (देवाः) अग्नि विद्युत् आदि अस्त्र प्रयुक्त होकर या उनके जाननेवाले विद्वान् (हवेषु) संग्रामों में (अवत) रक्षा करें ॥११॥
भावार्थ
ऐसा प्रयत्न राजा या प्रजा को मिलकर करना चाहिये, जिससे भिन्न-भिन्न देशों या राष्ट्रों की ध्वजाओं में अपनी ध्वजा ऊँची प्रसिद्ध हो, वाणशस्त्र भी अपने सफलरूप में चलें, अपने वीर सैनिक अन्य राष्ट्र के सैनिकों के ऊपर रहें युद्ध करने में, तथा संग्रामों में अपने ही अग्नि विद्युत् आदि देव अस्त्र में प्रयुक्त होकर उनके विद्या के जाननेवाले विद्वान् रक्षा करें ॥११॥
विषय
आस्तिक मनोवृत्ति व विजय
पदार्थ
१. प्रस्तुत मन्त्र में चार बातें कही गयी हैं। पहली बात तो यह कि (ध्वजेषु समृतेषु) = ध्वजाओं व पताकाओं को ठीक प्रकार से प्राप्त कर लेने पर (अस्माकम्) = हम आस्तिक बुद्धिवालों का (इन्द्रः) = परमात्मा हो, अर्थात् हम प्रभु को ही अपना आश्रय मानकर चलें । 'ध्वजा' एक लक्ष्य का प्रतीक है। जब हम एक लक्ष्य बना लें तब प्रभु को अपना आश्रय बनाकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति में जुट जाएँ । वस्तुतः संसार में प्रभु का आश्रय मनुष्य को कभी निरुत्साहित नहीं होने देता । आस्तिक मनुष्य प्रभु को सदा अपनाता है और किसी प्रकार से निरुत्साहित न हो अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता चलता है। २. प्रभु से दूसरी प्रार्थना यह है कि (अस्माकम्) = हम आस्तिक वृत्तिवालों की (या:) = जो (इषवः) = प्रेरणाएँ हैं— अन्तः स्थित प्रभु से दिये जा रहे निर्देश हैं (ताः) = वे निर्देश और प्रेरणाएँ ही (जयन्तु) = जीतें । प्रभु की प्रेरणा होती है कि 'उषाकाल हो गया, उठ बैठ। क्यों सो रहा है ?' उसी समय एक इच्छा पैदा होती है कि कितनी मधुर वायु चल रही है, रात को नींद भी तो पूरी नहीं आई, दिन में सुस्ताते रहोगे, थोड़ा और सो ही लो। सामान्यतः यह इच्छा उस प्रेरणा को दबा देती है और व्यक्ति सोया रह जाता है। इसी को हम वैदिक शब्दों में इस रूप में भी कहते हैं कि दैवी प्रेरणा को आसुर कामना दबा लेती है। हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हमारी प्रेरणाएँ ही विजयी हों - इच्छाएँ नहीं । ३. तीसरी प्रार्थना यह है कि (अस्माकम्) = हम आस्तिक वृत्तिवाले में (वीराः) = वीरता की भावनाएँ न कि कायरता की प्रवृत्ति (उत्तरे भवन्तु) = उत्कृष्ट हों - प्रबल हों। हम कायरता से कोई कार्य न करें। दबकर कार्य करना मनुष्यत्व से गिरना है । हमारे कार्य वीरता का परिचय दें । ४. हे (देवा:) = देवो! (अस्मान्) = हम आस्तिकों को (आहवेषु) = इन संग्रामों में (उ) = निश्चय से (अवत) = रक्षित करो। देव हमारे रक्षक हों। जब हम प्रभु में पूर्ण आस्था से चलेंगे, जब हम सदा अन्तःस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनेंगे, जब हम सदा वीरता के कार्य ही करेंगे तो क्यों देवताओं की रक्षा के पात्र न होंगे। जब मनुष्य अपनी वृत्ति को अच्छा बनाता है और पुरुषार्थ में किसी प्रकार की कमी नहीं आने देता तब वह देवों की रक्षा का पात्र होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - १. जीवन-लक्ष्य को ओझल न होने देते हुए हम प्रभु को अपना आश्रय समझें, २. हममें प्रेरणा की विजय हो न कि इच्छा की, ३. हम सदा वीरतापूर्ण कार्य करें और ४. हम सदा अध्यात्म-संग्रामों में देवों की रक्षा के पात्र हों ।
विषय
ध्वजाधारियों के साथ नायक और वीरों का विजय-कार्य।
भावार्थ
(अस्माकं) हमारे (ध्वजेषु समृतेषु) ध्वजों, ध्वजा वाले वीर नायकों के एकत्र मिलकर जुट जाने पर (इन्द्रः) हमारा सेनापति और (अस्माकं याः इषवः) हमारे जो बाण आदि युक्त सैन्य हैं (ताः) वे सब (जयन्तु) विजय लाभ करें। (अस्माकं वीराः) हमारे वीर जन (उत्तरे भवन्तु) उत्तर, अर्थात् शत्रुओं पर विजयी हों। हे (देवाः) वीर विजिगीषु लोग (हवेषु) युद्ध के अवसरों में (अस्मान् उ अवत) हमारी रक्षा करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरप्रतिरथ ऐन्द्रः॥ देवता—१—३,५–११ इन्द्रः। ४ बृहस्पतिः। १२ अप्वा। १३ इन्द्रो मरुतो वा। छन्दः–१, ३–५,९ त्रिष्टुप्। २ स्वराट् त्रिष्टुप्। ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, १०, १२ विराट् त्रिष्टुप्। १३ विराडनुष्टुप्। त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अस्माकम्-इन्द्रः) अस्माकं राजा (समृतेषु ध्वजेषु) सङ्गतेषु भिन्नभिन्नराष्ट्रध्वजेषु स्वकीयं ध्वजमन्नयतु (अस्माकम्) अस्माकं खलु (याः इषवः) यानि वाणशस्त्राणि (ताः-जयन्तु) तानि जयं प्राप्नुवन्तु (अस्माकं वीराः) अस्माकं वीरसैनिका योद्धारः (उत्तरे भवन्तु) भिन्नभिन्नदेशस्थवीरसैनिकानामुपरि भवन्तु (अस्माकम्-उ-देवाः) अस्माकमेवाग्निविद्युत्प्रभृतयोऽस्त्रप्रयुक्तास्तद्विद्यावेत्तारो विद्वांसश्च (हवेषु) सङ्ग्रामेषु (अवत) रक्षत ॥११॥
इंग्लिश (1)
Meaning
In international gatherings, let Indra, our leader, raise our flag high in the flag lines, may our shots of arrows hit the targets and win the battles, let our brave progeny and our brave warriors be higher than others in excellence, and may the divinities protect us in the call to action in the battle field.
मराठी (1)
भावार्थ
राजा व प्रजा यांनी मिळून असा प्रयत्न केला पाहिजे, की ज्यामुळे भिन्न-भिन्न देश व राष्ट्राच्या ध्वजापेक्षा आपली ध्वजा उंच व प्रसिद्ध असावी. बाणशस्त्रही सफलतापूर्वक चालावे. आपले वीर सैनिक इतर राष्ट्रांच्या सैनिकांपेक्षा अधिक पुढे जावेत. युद्ध करण्यात व संग्रामात आपले अग्नी, विद्युत इत्यादी देव अस्त्रात प्रयुक्त व्हावेत. त्यांची विद्या जाणणाऱ्या विद्वानांनी त्यांचे रक्षण करावे. ॥११॥
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