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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 103 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 103/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    बृह॑स्पते॒ परि॑ दीया॒ रथे॑न रक्षो॒हामित्राँ॑ अप॒बाध॑मानः । प्र॒भ॒ञ्जन्त्सेना॑: प्रमृ॒णो यु॒धा जय॑न्न॒स्माक॑मेध्यवि॒ता रथा॑नाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॑स्पते । परि॑ । दी॒य॒ । रथे॑न । र॒क्षः॒ऽहा । अ॒मित्रा॑न् । अ॒प॒ऽबाध॑मानः । प्र॒ऽभ॒ञ्जन् । सेनाः॑ । प्र॒ऽमृ॒णः । यु॒धा । जय॑न् । अ॒स्माक॑म् । ए॒धि॒ । अ॒वि॒ता । रथा॑नाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पते परि दीया रथेन रक्षोहामित्राँ अपबाधमानः । प्रभञ्जन्त्सेना: प्रमृणो युधा जयन्नस्माकमेध्यविता रथानाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पते । परि । दीय । रथेन । रक्षःऽहा । अमित्रान् । अपऽबाधमानः । प्रऽभञ्जन् । सेनाः । प्रऽमृणः । युधा । जयन् । अस्माकम् । एधि । अविता । रथानाम् ॥ १०.१०३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 103; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (बृहस्पते) हे बड़ी सेना के स्वामी ! (रथेन परि दीय) तू रथ से-यान से सर्वत्र जा (रक्षोहा) राक्षसों का दुष्टों का हनन करनेवाला (अमित्रान्)  शत्रुओं को (अपबाधमानः) पीड़ित करता हुआ (प्रमृणः) प्रकृष्टरूप से नाशक होता हुआ (सेनाः प्रभञ्जन्) शत्रुसेनाओं को रौंदता हुआ (युधा जयन्) युद्ध से-युद्ध करके जीतता हुआ (अस्माकम्) हमारे (रथानाम्) रथों का (अविता) रक्षक (एधि) हो ॥४॥

    भावार्थ

    राजा को चाहिये कि भारी सेना को रखे, यान से राष्ट्र में सर्वत्र भ्रमण करे, दुष्टों का नाश करे, शत्रुओं का पीडन करे, शत्रुसेनाओं का मर्दन करते हुए युद्ध द्वारा जीतते हुए प्रजा के रथों-रमणसाधनों की रक्षा करे ॥४॥

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    विषय

    ज्ञानी बनो

    पदार्थ

    प्रभु जीव से कहते हैं (बृहस्पते) = हे ज्ञान के स्वामिन्! तू (रथेन) = इस शरीररूप रथ के द्वारा (परिदीया) = चमकनेवाला बन [ दी = to shine ] और आकाश में उड़नेवाला बन, अर्थात् उन्नति की ओर चल । जीव ने उन्नत होने के लिए ज्ञानी बनना है, बिना ज्ञान के किसी भी प्रकार की उन्नति सम्भव नहीं । यह बृहस्पति उन्नति करते-करते ऊर्ध्वादिक् का अधिपति बनता है। यह अपने शरीररूप रथ के द्वारा ऊर्ध्वगति करनेवाला बनता है [ दी = to soar ]। यह उन्नति की ओर चलता हुआ 'रक्षोहा' - रमण के द्वारा [र] क्षय [क्ष] करनेवाली वृत्तियों का संहार करता है । इनका संहार करके ही यह अपनी ऊर्ध्वगति को स्थिर रख पाएगा। यह अपनी यात्रा में आगे बढ़ता है- (अमित्रान्) = द्वेष की भावनाओं को (अपबाधमानः) = दूर करता हुआ। ईर्ष्या-द्वेष से मन मृत हो जाता है - मन के मृत हो जाने पर उन्नति सम्भव कहाँ ? हे बृहस्पते ! तू (सेना:) = इन वासनाओं के सैन्य को (प्रभञ्जन्) = प्रकर्षेण पराजित करता हुआ [रणे भङ्गः पराजयः] (प्रमृण:) = कुचल डाल । इस प्रकार (युधा) = इन वासनाओं के साथ युद्ध के द्वारा (जयन्) = विजयी बनता हुआ तू (अस्माकम्) = हमारे दिये हुए इन (रथानाम्) = रथों का (अविता) = रक्षक (एधि) = हो । इस रथ को तू इन राक्षसों, अमित्रों और वासना-सैन्यों का शिकार न होने दे। इसी प्रकार तू इस रथ के द्वारा 'ऊर्ध्वा दिक्' का अधिपति 'बृहस्पति' बन सकेगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम ज्ञानी बनकर इस रथ से यात्रा को ठीक रूप में पूर्ण करनेवाले बनें ।

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    विषय

    युद्ध के प्रकार का निर्देश। अध्यात्म में—इन्द्र आत्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (बृहस्पते) बड़े भारी राष्ट्र, सेना और ऐश्वर्य के पालक ! तू (रथेन) वेगयुक्त रथ नाम सेनाङ्ग (परि दीयाः) आगे बढ़। तू (रक्षः-हा) दुष्टों, विघ्नों का नाशक होकर और (अमित्रान् अप-बाधमानः) शत्रुओं को दूर से ही पीड़ित कर भगाता हुआ, (सेनाः) नायकों सहित शत्रु दलों को (प्रभञ्जन्) तोड़ता फोड़ता हुआ, (प्रमृणः) हिंसाकारी शत्रुओं को (युधा) युद्ध द्वारा (जयन्) विजय करता हुआ, (अस्माकं रथानां) हम रथारोहियों, वा हमारे रथों का (अविता एधि) रक्षक हो। (२) अध्यात्म में—यह आत्मा ‘इन्द्र’ है। वह देह रथ से आगे बढ़े। सब बाधक काम क्रोधादि पर वश करे। और रथों, रमण साधन इन्द्रियों की रक्षा करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरप्रतिरथ ऐन्द्रः॥ देवता—१—३,५–११ इन्द्रः। ४ बृहस्पतिः। १२ अप्वा। १३ इन्द्रो मरुतो वा। छन्दः–१, ३–५,९ त्रिष्टुप्। २ स्वराट् त्रिष्टुप्। ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, १०, १२ विराट् त्रिष्टुप्। १३ विराडनुष्टुप्। त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (बृहस्पते) हे बृहत्याः सेनायाः पालकः ! “बृहस्पतिः-बृहत्याः सेनायाः पालकः” [यजु० १७।४८ दयानन्दः] (रथेन परि दीय) रथेन परितो गच्छ “दीयति-गतिकर्मा” [निघ० २।१४] (रक्षोहा) राक्षसाणां दुष्टानां हन्ता (अमित्रान्-अपबाधमानः) शत्रून्-अपपीडयन् (प्रमृणः-सेनाः प्रभञ्जन्) प्रकर्षेण नाशकः सन् शत्रुसेनाः प्रकर्षेण मृद्नन् (युधा जयन्) युद्धेन युद्धं कृत्वा जयं कुर्वन् (अस्माकं रथानाम्-अविता-एधि) अस्माकं रथानां रक्षको भव ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Fly by the chariot, Brhaspati, destroyer of demons, repeller of enemies, breaking through and routing their forces. Fighting and conquering by battle, come, defend and save our chariots of the social order.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने शूर उत्तम सेना बाळगावी. यानाने राष्ट्रात सर्वत्र भ्रमण करावे. दुष्टांचा नाश करावा, शत्रूंना त्रास द्यावा. शत्रूसेनेचे मर्दन करून युद्ध जिंकून प्रजेच्या रथाचे रक्षण करावे. ॥४॥

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