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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 103 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 103/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒भि गो॒त्राणि॒ सह॑सा॒ गाह॑मानोऽद॒यो वी॒रः श॒तम॑न्यु॒रिन्द्र॑: । दु॒श्च्य॒व॒नः पृ॑तना॒षाळ॑यु॒ध्यो॒३॒॑ऽस्माकं॒ सेना॑ अवतु॒ प्र यु॒त्सु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । गो॒त्राणि॑ । सह॑सा । गाह॑मानः । अ॒द॒यः । वी॒रः । श॒तऽम॑न्युः । इन्द्रः॑ । दुः॒ऽच्य॒व॒नः । पृ॒त॒ना॒षाट् । अ॒यु॒ध्यः॑ । अ॒स्माक॑म् । सेनाः॑ । अ॒व॒तु॒ । प्र । यु॒त्ऽसु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि गोत्राणि सहसा गाहमानोऽदयो वीरः शतमन्युरिन्द्र: । दुश्च्यवनः पृतनाषाळयुध्यो३ऽस्माकं सेना अवतु प्र युत्सु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । गोत्राणि । सहसा । गाहमानः । अदयः । वीरः । शतऽमन्युः । इन्द्रः । दुःऽच्यवनः । पृतनाषाट् । अयुध्यः । अस्माकम् । सेनाः । अवतु । प्र । युत्ऽसु ॥ १०.१०३.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 103; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अदयः) शत्रुओं के विषय में दयारहित (वीरः) पराक्रमी (शतमन्युः) बहुत तेजस्वी (इन्द्रः) शासक या सेनानी (सहसा) बल से (गोत्राणि) शत्रु के सैन्य वर्गों को (अभि गाहमानः) अभिभूत करके विलोडता हुआ (दुश्च्यवनः) शत्रु से असह्य (पृतनाषाट्) संग्राम को वश में करनेवाला (अयुध्यः) अयोध्य (युत्सु) युद्धों में (अस्माकम्) हमारी (सेनाः) सेनाओं की (प्र अवतु) रक्षा करे ॥७॥

    भावार्थ

    शासक या सेनाध्यक्ष को चाहिये कि युद्ध के अवसर पर शत्रु के सम्बन्ध में दया न करे, किन्तु वीरता दिखाये, बहुत ओजस्वी होकर अपने सभी प्रकार के बल से शत्रु के सैन्य वर्गों पर प्रभाव डालता हुआ विलोडन करे-छिन्न-भिन्न करे, संग्राम में डटनेवाला हो, अन्य को उसके सम्मुख युद्ध करने का साहस न हो, ऐसा युद्धों में लड़नेवाला सेनाओं की रक्षा करे ॥७॥

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    विषय

    कमाएँ पर जोड़े नहीं

    पदार्थ

    (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव (गोत्राणि) = धनों को (सहसा) = प्रसन्नतापूर्वक [with a smiling face] (अभिगाहमानः) = सर्वतः अवगाहन करता हुआ, अर्थात् सब सुपथों से प्राप्त करता हुआ (अदयः) = [देङ् रक्षणे ] उन्हें अपने पास सुरक्षित रखनेवाला नहीं होता। क्या पेट, जो रुधिर बनता है, उस रुधिर को अपने पास रख लेता है ? अपने पास न रखने से ही वह वस्तुतः स्वस्थ रहता है । इसी प्रकार यह इन्द्र धनों को कमाता है, उनमें अवगाहन करता है-rolls in wealth, परन्तु उन्हें जोड़कर अपने पास नहीं रख लेता, इसीलिए तो वह प्रसन्न भी रहता है । (वीरः) = यह दानवीर बनता है। धन के प्रति आसक्ति न होने से यह कमाता है और देता है (शतमन्युः) = यह सैकड़ों क्रतुओं व प्रज्ञानोंवाला होता है। धनों का यह यज्ञों व ज्ञानप्राप्ति में विनियोग करता है । (दुश्च्यवनः) = यह अपने इस यज्ञ मार्ग से सुगमता से हटाया नहीं जा सकता। धन का लोभ इसे अयज्ञिय नहीं बना पाता यह (पृतनाषाट्) = काम-क्रोधादि शत्रु सेनाओं का पराभव करनेवाला होता है (अयुध्यः) = काम-क्रोधादि इसे कभी युद्ध में पराजित नहीं कर पाते। यह इन्द्र (प्रयुत्सु) = इन उत्कृष्ट आध्यात्मिक संग्रामों में (अस्माकं सेना) = हमारी दिव्य गुणों की सेनाओं को (अवतु) = सुरक्षित करे। काम-क्रोधादि का पराजय हो, प्रेम व मित्रता की भावना की विजय हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम धन कमाएँ, परन्तु उसे जोड़ें नहीं, जिससे हमारे दिव्य गुण उसमें नष्ट न हो ।

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    विषय

    सेनापति कैसा हो।

    भावार्थ

    (शत-मन्युः) सैकड़ों क्रोधों, गर्वों और ज्ञानों वाला (इन्द्रः) शत्रुहन्ता सेनापति, (वीरः) वीर, (अदयः) शत्रु पर र्निदय, अन्यो से अपनी रक्षा की अपेक्षा न करने वाला, (सहसा) शत्रु पराजयकारी बल से (गोत्राणि अभि) भूमि के रक्षाकारी शत्रु सैन्यों के प्रति (गाहमानः) आगे बढ़ता हुआ (दुश्च्यवनः) कठिनता से पदच्युत न करने योग्य (पृतना-षाड्) सैन्यों और संग्रामों का विजय करने वाला (अयुध्यः) ऐसा प्रचन्ड हो कि उससे शत्रुगण युद्ध न कर सकें। वह (युत्सु) युद्धों में (अस्माकं सेनाः प्र अवतु) हमारी सेनाओं की रक्षा करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरप्रतिरथ ऐन्द्रः॥ देवता—१—३,५–११ इन्द्रः। ४ बृहस्पतिः। १२ अप्वा। १३ इन्द्रो मरुतो वा। छन्दः–१, ३–५,९ त्रिष्टुप्। २ स्वराट् त्रिष्टुप्। ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, १०, १२ विराट् त्रिष्टुप्। १३ विराडनुष्टुप्। त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अदयः) शत्रूणां विषये दयारहितः (वीरः) पराक्रमी (शतमन्युः) बहुतेजस्वी “मन्युर्मन्यतेर्दीप्तिकर्मणः” [निरु० १०।२९] (इन्द्रः) शासकः सेनानीर्वा (सहसा) बलेन (गोत्राणि-अभि गाहमानः) शत्रोः सैन्यवर्गान् खल्वभिभूय विलोडयन् (दुश्च्यवनः) शत्रुणाऽसह्यः (पृतनाषाट्) सङ्ग्रामस्याभिभविता (अयुध्यः) अयोध्यः (पृत्सु) युद्धेषु (अस्माकं सेनाः  प्र-अवतु) अस्माकं सेनाः प्ररक्षतु ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May Indra, breaker of clouds and enemy strongholds, with his courage and valour, unmoved by pity, hero of a hundredfold passion, shaker of the strongest evils, destroyer of enemy forces, irresistible warrior, protect our army in our assaults and advances.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शासक किंवा सेनाध्यक्षांनी युद्धाच्या वेळी शत्रूवर दया करू नये, तर वीरता दाखवावी. अत्यंत ओजस्वी बनून आपल्या सर्व प्रकारच्या बलाने शत्रूच्या सैन्यावर प्रभाव पाडून ते नष्ट करावे. छिन्नभिन्न करावे. तो युद्धात स्थित राहणारा असावा. इतरांनी त्याच्यासमोर युद्ध करण्याचे साहस करता कामा नये. अशा प्रकारे युद्धात लढणाऱ्याने सेनेचे रक्षण करावे. ॥७॥

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