ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 15/ मन्त्र 3
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सद्मे॑व॒ प्राचो॒ वि मि॑माय॒ मानै॒र्वज्रे॑ण॒ खान्य॑तृणन्न॒दीना॑म्। वृथा॑सृजत्प॒थिभि॑र्दीर्घया॒थैः सोम॑स्य॒ ता मद॒ इन्द्र॑श्चकार॥
स्वर सहित पद पाठसद्म॑ऽइव । प्राचः॑ । वि । मि॒मा॒य॒ । मानैः॑ । वज्रे॑ण । खानि॑ । अ॒तृ॒ण॒त् । न॒दीना॑म् । वृथा॑ । अ॒सृ॒ज॒त् । प॒थिऽभिः॑ । दी॒र्घ॒ऽया॒थैः । सोम॑स्य । ता । मदे॑ । इन्द्रः॑ । च॒का॒र॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सद्मेव प्राचो वि मिमाय मानैर्वज्रेण खान्यतृणन्नदीनाम्। वृथासृजत्पथिभिर्दीर्घयाथैः सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार॥
स्वर रहित पद पाठसद्मऽइव। प्राचः। वि। मिमाय। मानैः। वज्रेण। खानि। अतृणत्। नदीनाम्। वृथा। असृजत्। पथिऽभिः। दीर्घऽयाथैः। सोमस्य। ता। मदे। इन्द्रः। चकार॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या य इन्द्रो जगदीश्वरो मानैः सद्मेव प्राचो विमियाय नदीनां खानि वज्रेणातृणद्दीर्घयाथैः पथिभिस्सह सर्वांल्लोकान्वृथासृजत् सोमस्य मदे ता चकार स जगन्निर्माता दयालुरीश्वरो वेद्यः ॥३॥
पदार्थः
(सद्मेव) गृहमिव (प्राचः) प्राचीनाँल्लोकान् (वि) (मिमाय) मिमीते (मानैः) परिमाणैः (वज्रेण) विज्ञानेन (खानि) खातानि (अतृणत्) सन्तारयति। अत्र व्यत्ययेन श्ना (नदीनाम्) अव्यक्तशब्दयुक्तानां सरिताम् (वृथा) (असृजत्) (पथिभिः) मार्गैः (दीर्घयाथैः) दीर्घा यथा गमनानि येषु तैः (सोमस्य) उत्पद्यमानस्य (ता) तानि (मदे) हर्षे (इन्द्रः) (चकार) करोति ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ, हे मनुष्या ! येन जगदीश्वरेण प्राक्कल्पनारीत्या परमाणुभिश्च लोकलोकान्तराणि निर्मीयन्ते यस्य स्वकीयं प्रयोजनं परोपकारं विहाय किंचिदपि नास्ति तानि जगदीश्वरस्य धन्यवादार्हाणि कर्माणि यूयं सततं स्मरत ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो जो (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वर (मानैः) परिमाणों से (सद्मेव) घर के समान (प्राचः) प्राचीन लोकों को (विमियाय) निर्माण करता बनाता है, (नदीनाम्) अव्यक्तशब्दयुक्त नदियों के (खानि) खातों को अर्थात् जलस्थानों को (वज्रेण) विज्ञान से (अतृणत्) विस्तारता (दीर्घयाथैः) जिनमें दीर्घ बड़े-बड़े गमन चालें उन (पथिभिः) मार्गों के साथ सब लोकों को (वृथा) वृथा (असृजत्) रचता (सोमस्य) उत्पन्न हुए जगत् के (मदे) हर्ष के निमित्त (ता) उन उक्त कर्मों को (चकार) करता है, वह जगत् का निर्माण करनेवाला दयालु ईश्वर जानना चाहिये ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! जिस ईश्वर से पूर्व कल्प की रीति से और परमाणुओं से लोक-लोकान्तरों का निर्माण किया जाता है, जिसका अपना प्रयोजन केवल परोपकार को छोड़कर और कुछ भी नहीं है, उस जगदीश्वर के उक्त काम धन्यवाद के योग्य हैं, उनका तुम स्मरण करो ॥३॥
विषय
लोकनिर्माण व नदियों का प्रवाहण
पदार्थ
१. उस प्रभु ने (प्राचः) = [प्र अञ्च्] इन निरन्तर आगे बढ़नेवाले लोकों को (सद्म इव) = घर की भाँति-प्राणियों में स्थित होने के स्थान की तरह (मानैः) = बड़े मानपूर्वक मापकर (विमिमाय) = बनाया है । २. (नदीनाम्) = नदियों के (खानि) = निर्गमन धारों को- मार्गों को (वज्रेण) = वज्र से ही (अतृणत्) = खोद डाला है। इन नदियों के मार्गों को भी बनानेवाले वे प्रभु ही हैं। इस प्रकार इनके मार्गों को बनाकर (दीर्घयाथैः पथिभिः) = दीर्घकाल में गन्तव्य अर्थात् बहुत लम्बे इन मार्गों से (वृथा) = अनायास ही- बिना ही श्रम के (असृजत्) = इन्हें सृष्ट किया है- प्रवाहित किया है । (ता) = उन सब कार्यों को (इन्द्रः) = सर्वशक्तिशाली प्रभु ने (सोमस्य मदे) = शक्ति के उल्लास में चकार किया है। के निवासस्थानभूत निरन्तर अग्रगतिवाले लोकों को प्रभु ने बनाया है। प्रभु =
भावार्थ
भावार्थ- प्राणियों के निवासस्थानभूत निरन्तर अग्रगतिवाले लोकों को प्रभु ने बनाया है। प्रभु ने ही मार्गों को बनाकर नदीयों को प्रवाहित किया है।
विषय
परमेश्वर का वर्णन ।
भावार्थ
( मानैः सद्म-इव ) माप माप कर जिस प्रकार घर बनाया जाता है उसी प्रकार ( इन्द्रः ) प्रभु परमेश्वर ( मानैः ) अपने निर्माण साधनों से और विज्ञान युक्त नियमों से ( प्राचः ) अति वेग से चलने वाले या प्राचीन कल्प और वर्त्तमान के भी समस्त लोकों को ( वि मिमाय ) विशेष रूप से रचता है । वह ( वज्रेण ) ज्ञान रूप वज्र से ( नदीनां ) नदियों की (खानि) खुदी नहरों जल मार्गों को इञ्जिनीयर के समान ( अतृणत् ) काटता है । और ( दीर्घयाथैः ) दूर तक जाने वाले ( पथिभिः ) मार्गों से वह उन सबको ( वृथा ) अनायस ही ( असृजत् ) रचता है। वह ( सोमस्य ) सर्व प्रेरक और उत्पादक बल के ( मदे ) अपने वश में रखने के कारण ही ( ता ) ये सब कर्म ( चकार ) करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १ भुरिक् पङ्क्तिः । ७ स्वराट् पङ्क्तिः । २, ४, ५, ६, १, १० त्रिष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् । पञ्च दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. ज्या ईश्वराकडून पूर्वकल्पाप्रमाणे परमाणूंद्वारे लोकलोकान्तरांची निर्मिती केली जाते, त्याचे प्रयोजन केवळ परोपकार असून दुसरे काही नाही. त्या जगदीश्वराचे वरील काम धन्यवाद देण्यायोग्य असून त्याचे तुम्ही स्मरण करा. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Like a sacred house of prayer, Indra, lord creator, makes the worlds of existence since eternity with exact measures and perfect knowledge of their form, function and purpose. He splits open the upsurge of waters from river sources, digs the beds of flow with a natural and spontaneous stroke of the thunderbolt and releases the floods by paths deep and wide for us to move and navigate. Indra does all these in joy and ecstasy for his love of creation and for the soma pleasure of his children.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The theme of scholar, sun and God is dealt with in a different way.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
God creates all the planets with His particular measurement on the previous pattern. Verily, He is great and prosperous with His knowledge and actions and expands the river ways, ponds, oceans etc. His no action and creation are useless and vain. He creates the universe for His own pleasure or desires. We should therefore know the potentiality of that Great God.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! God created the universe as before with the composition of the elements in a set manner. The only purpose behind this is to do good for the human and other beings and we should therefore thank, honor and remember Him. (This idea has been developed in the Upanishad – सोऽकामयत । बहुभ्यां प्रजायेयम् i.e. that He desired to create Universe for the varied manifestations. Editor.)
Foot Notes
(प्राच:) प्राचीनांल्लोकन् = The ancient planets. (मिमाय) मिमीते । = Takes measure. (खानि) खातानि ।=Water ways. (अतृणम्) सन्तारयति। = Expands. (दीर्घयाथै:) दीर्घा याथा गमनानि येषु तै: = Of long distance. (मदे) हर्षे = In happiness.
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