ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 15/ मन्त्र 6
सोद॑ञ्चं॒ सिन्धु॑मरिणान्महि॒त्वा वज्रे॒णान॑ उ॒षसः॒ सं पि॑पेष। अ॒ज॒वसो॑ ज॒विनी॑भिर्विवृ॒श्चन्त्सोम॑स्य॒ ता मद॒ इन्द्र॑श्चकार॥
स्वर सहित पद पाठसः । उद॑ञ्चम् । सिन्धु॑म् । अ॒रि॒णा॒त् । म॒हि॒त्वा । वज्रे॑ण । अनः॑ । उ॒षसः॑ । सम् । पि॒पे॒ष॒ । अ॒ज॒वसः॑ । ज॒विनी॑भिः । वि॒ऽवृ॒श्चन् । सोम॑स्य । ता । मदे॑ । इन्द्रः॑ । च॒का॒र॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सोदञ्चं सिन्धुमरिणान्महित्वा वज्रेणान उषसः सं पिपेष। अजवसो जविनीभिर्विवृश्चन्त्सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार॥
स्वर रहित पद पाठसः। उदञ्चम्। सिन्धुम्। अरिणात्। महित्वा। वज्रेण। अनः। उषसः। सम्। पिपेष। अजवसः। जविनीभिः। विऽवृश्चन्। सोमस्य। ता। मदे। इन्द्रः। चकार॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 15; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सूर्यविषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या य इन्द्रः सूर्यो महित्वा वज्रेणोदञ्चं सिन्धुमरिणादुषसो नः संपिपेषाऽजवसो जविनीभिः पदार्थान् विवृश्चन् सोमस्य मदे ता चकार स युष्माभिर्वेद्यः ॥६॥
पदार्थः
(सः) (उदञ्चम्) ऊर्ध्वं प्राप्नुवन्तम् (सिन्धुम्) समुद्रम् (अरिणात्) रिणाति प्राप्नोति (महित्वा) महत्वेन (वज्रेण) किरणेन वज्रेण (अनः) शकटम् (उषसः) प्रभातात् (सम्) (पिपेष) पिनष्टि (अजवसः) वेगरहितः (जवनीभिः) वेगवतीक्रियाभिः (विवृश्चन्) विविधतया छिन्दन् (सोमस्य) ऐश्वर्ययुक्तस्य संसारस्य (ता) तानि (मदे) आनन्दे (इन्द्रः) (चकार) करोति ॥६॥
भावार्थः
यथा सूर्यो महत्त्वेन स्वप्रकाशेन जलमुपरि गमयति रात्रिं नाशयत्यतिवेगैर्गमनैरद्भुतानि कर्माणि करोति तथाऽस्माभिरप्यनुष्ठेयम् ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सूर्य के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (इन्द्रः) सब पदार्थों को अपनी किरणों से छिन्न-भिन्न करनेवाला सूर्य (महित्वा) महत्त्व से (वज्रेण) अपने किरण रूपी वज्र से (उदञ्चम्) ऊपर को प्राप्त होते हुए (सिन्धुम्) समुद्र को (अरिणात्) गमन करता वा उच्छिन्न करता (उषसः) प्रभात समय से लेकर (संपिपेष) अच्छे प्रकार पीसता अर्थात् अपने आतप से समुद्र के जलको कण-कणकर शोखता (अजवसः) वेगरहित भी (जविनीभिः) वेगवती क्रियाओं से पदार्थों को (विवृश्चन्) छिन्न-भिन्न करत हुआ (सोमस्य) ऐश्वर्ययुक्त संसार के (मदे) आनन्द के निमित्त (ता) उन कामों को (चकार) करता है (सः) वह तुम लोगों को जानने योग्य है ॥६॥
भावार्थ
जैसे सूर्य महत्त्व से अपने प्रकाश से जल को ऊपर पहुँचाता, रात्रि को विनाशता अतिवेग और अपनी चालों से अद्भुत कामों को करता है, वैसे हम लोगों को भी आरम्भ करना चाहिये ॥६॥
विषय
ज्ञानप्रकाश व स्फूर्ति
पदार्थ
१. (सः) = वे प्रभु (महित्वा) = अपनी महिमा से (सिन्धुम्) = शरीर में बहनेवाले रेतः कणों के प्रवाह को (उदञ्चम्) = ऊर्ध्वगतिवाला (अरिणात्) = करते हैं । इस रेत: प्रवाह को ऊर्ध्वोन्मुख करते हैं। प्रभु ही (वज्रेण) = क्रियाशीलतारूप वज्र द्वारा (उषसः) = [रात्रिर्वा उषा: तै० ३.८.१६.४] अज्ञानरूप रात्रि के (अनः) = शकट को (संपिपेष) = पीस डालते हैं, अर्थात् हमारे जीवनों को क्रियामय बनाकर हमारे अज्ञान का विध्वंस करते हैं । २. (जविनीभिः) = वेगयुक्त क्रियाओं द्वारा (अजवस:) = आलस्य के भावों को– वेगशून्यताओं को (विवृश्चन्) = काटते हुए (इन्द्रः) = वे प्रभु (सोमस्य) = सोम के– वीर्यशक्ति के (मदे) = उल्लास होने पर (ता) = उन कार्यों को (चकार) = करते हैं। प्रभुकृपा से ही सोम की ऊर्ध्वगति होती है। ऐसा होने पर अज्ञानान्धकार नष्ट होता है- आलस्य का स्थान स्फूर्ति ले लेती है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभुस्मरण होने पर शरीर में वीर्य की ऊर्ध्वगति होती है। इससे ज्ञान का प्रकाश व स्फूर्ति प्राप्त होती है।
विषय
परमेश्वर का वर्णन ।
भावार्थ
(इन्द्रः) सूर्य जिस प्रकार ( उदञ्चं ) ऊपर की तरफ जानेवाले ( सिन्धुम् ) जल को ( महित्वा ) अपने बड़े सामर्थ्य से (अरिणात्) प्राप्त कर लेता हो, और जिस प्रकार सूर्य ( वज्रेण ) अपने प्रकाश से ( उषसः ) प्रभात वेला का (अनः) आगे बढ़ने का साधन, सवारी रूप रात्रिकाल को ( सं पिपेष ) अच्छी प्रकार छिन्न भिन्न कर देता है । और जिस प्रकार सूर्य ( अजवसः ) वेगरहित होकर अपने ( जवनीभिः ) वेगवती तीव्र क्रियाओं से (विद्दश्चन्) विवध रूप से छिन्न भिन्न करता है, तो वह सब ( सोमस्य मदे ) उत्पन्न हुए संसार के आनन्द के निमित्त ही करता उसी प्रकार ( सः ) वह परमेश्वर ( महित्वा ) अपने महान् सामर्थ्य से ( सिन्धुम् ) बन्धन में पड़े ( उद्-अञ्चं अरिणात् ) उन्नत मार्ग पर चलने वाले जीव को स्वयं प्राप्त करता । उस पर अनुग्रह करता है । ( वज्रेण) अपने ज्ञान वज्र से ( उषसः अनः ) प्रभात वेला के समान कान्तिमती चेतना के शकट रूप इस देह को ( संपिपेष ) अच्छी प्रकार नष्ट कर देता है अर्थात् विदेह मुक्ति प्राप्त होती है। स्वयं वह प्रभु निर्वेग, निष्क्रिय रहकर भी ( जवनीभिः ) वेग वाली ज्ञान क्रियाओं से क्लेशों को काट डालता है। यह सब वह प्रभु ( सोमस्य मदे ) सोम अर्थात् उत्पन्न होने वाले एवं प्रभु के उपासना करने वाले जीव के आनन्द के निमित्त ही ( चकार ) करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १ भुरिक् पङ्क्तिः । ७ स्वराट् पङ्क्तिः । २, ४, ५, ६, १, १० त्रिष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् । पञ्च दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसा सूर्य प्रचंड शक्तीने जल वर पोचवितो, रात्रीचा नाश करतो, अति वेगाने गमन करून अद्भुत कार्ये करतो, तसे आम्हीही अनुष्ठान केले पाहिजे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
With his blazing might he reaches and raises the rising sea. With his light he adorns the chariot of the dawn. Moving and shaking the motionless with his own forces of velocity, Indra goes on with his actions in the joy of his creation for the joy of his children.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The greatness of sun is stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The sun with its glory and rays reaches at the oceans and water-stores and from dawn to sunset extracts and dries up the water therefrom, with its fast actions. But still unmoved, it smashes various substances and to seekers of happiness, He sets them to action. We should realize this truth in our life.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
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Foot Notes
(उदन्चम् ) ऊर्ध्व प्राप्रवन्तम् = Taking up side. (सिन्धुम् ) समुद्रम् = Oceans. (अरिणात्) रिणाति प्राप्नोति = Gets. (वज्रेण) किरणेनवज्रेण = Through the rays. (उषस:) प्रभातात् |= From the dawn. ( जवनीभिः) वेगवतीक्रियाभिः । = By dint of quick action, (मदे ) आनन्दे | = In the happiness.
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