ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 26/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - वैश्वानरः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
तं शु॒भ्रम॒ग्निमव॑से हवामहे वैश्वान॒रं मा॑त॒रिश्वा॑नमु॒क्थ्य॑म्। बृह॒स्पतिं॒ मनु॑षो दे॒वता॑तये॒ विप्रं॒ श्रोता॑र॒मति॑थिं रघु॒ष्यद॑म्॥
स्वर सहित पद पाठतम् । शु॒भ्रम् । अ॒ग्निम् । अव॑से । ह॒वा॒म॒हे॒ । वै॒श्वा॒न॒रम् । मा॒त॒रिश्वा॑नम् । उ॒क्थ्य॑म् । बृह॒स्पति॑म् । मनु॑षः । दे॒वऽता॑तये । विप्र॑म् । श्रोता॑रम् । अति॑थिम् । र॒घु॒ऽस्यद॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं शुभ्रमग्निमवसे हवामहे वैश्वानरं मातरिश्वानमुक्थ्यम्। बृहस्पतिं मनुषो देवतातये विप्रं श्रोतारमतिथिं रघुष्यदम्॥
स्वर रहित पद पाठतम्। शुभ्रम्। अग्निम्। अवसे। हवामहे। वैश्वानरम्। मातरिश्वानम्। उक्थ्यम्। बृहस्पतिम्। मनुषः। देवऽतातये। विप्रम्। श्रोतारम्। अतिथिम्। रघुऽस्यदम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 26; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या मनुषो देवतातये रघुष्यदं विप्रं श्रोतारमतिथिमिव यमवसे मातरिश्वानमुक्थ्यं बृहस्पतिं वैश्वानरं शुभ्रमग्निं हवामहे तं यूयमपि विजानीत ॥२॥
पदार्थः
(तम्) (शुभ्रम्) भास्वरम् (अग्निम्) विद्युदादिस्वरूपं वह्निम् (अवसे) रक्षणाद्याय (हवामहे) स्वीकुर्महे (वैश्वानरम्) विश्वेषु नायकेषु विराजमानम् (मातरिश्वानम्) यो मातरि वायौ श्वसिति तम् (उक्थ्यम्) प्रशंसितुं योग्यम् (बृहस्पतिम्) बृहतां पृथिव्यादीनां पालकम् (मनुषः) मननधर्माणः (देवतातये) दिव्यगुणप्राप्तये (विप्रम्) मेधाविनम् (श्रोतारम्) (अतिथिम्) पूजनीयमनित्यस्थितिं विद्वांसम् (रघुष्यदम्) यो रघु लघु स्यन्दति तम् ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पूर्णविद्योऽतिथिः श्रोतॄन् ज्ञानसम्पन्नान्करोति तथैव वह्निः शिल्पिभ्यः पुष्कलधनानि निष्पादयति ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (मनुषः) मननकर्त्ता (देवतातये) उत्तम गुणों की प्राप्ति के लिये (रघुष्यदम्) शीघ्रगामी (विप्रम्) बुद्धिमान् (श्रोतारम्) वेदशास्त्र आदि सुननेवाले को (अतिथिम्) अतिथि के तुल्य जिसको (अवसे) रक्षण आदि के लिये (मातरिश्वानम्) वायु में श्वासकारी (उक्थ्यम्) प्रशंसा करने योग्य (बृहस्पतिम्) पृथिवी आदि पदार्थों के धारक (वैश्वानरम्) राजा आदि में विराजमान (शुभ्रम्) प्रकाशमान (अग्निम्) बिजुली आदि स्वरूप अग्नि का (हवामहे) स्वीकार करते हैं (तम्) उसको आप लोग भी जानो ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पूर्ण विद्वान् अतिथि जन श्रोता जनों को ज्ञानयुक्त करता है, उसी प्रकार अग्नि शिल्पी जनों के लिये अत्यन्त धनों को उत्पन्न करता है ॥२॥
विषय
रक्षक का दिव्यगुण विस्तारक प्रभु
पदार्थ
[१] (तम्) = उस (शुभ्रम्) = शुद्धस्वरूप (अग्निम्) = अग्रणी प्रभु को (अवसे) = रक्षण के लिए (हवामहे) = पुकारते हैं। जो प्रभु (वैश्वानरम्) = सब मनुष्यों का हित करनेवाले हैं। (मातरिश्वानम्) = वेदमाता में वृद्धि को प्राप्त होनेवाले हैं, सारे वेद उस प्रभु का ही तो प्रतिपादन करते हैं। (उक्थ्यम्) = स्तुतियोग्य हैं। [२] (मनुष:) = विचारशील पुरुष के (देवतातये) = दिव्यगुणों के विस्तार के लिए उस प्रभु को पुकारते हैं, जो कि (बृहस्पतिम्) = बड़े-बड़े आकाशादि लोकों के स्वामी हैं। (विप्रम्) = हमारा विशेषरूप से पूरण करनेवाले हैं। (श्रोतारम्) = हमारी पुकार को सुननेवाले हैं। (अतिथिम्) = हमारे हित के लिए निरन्तर गतिवाले हैं। (रघुष्यदम्) = तीव्र वेगवाले हैं। सब कार्यों को शीघ्रता से स्फूर्ति के साथ करनेवाले हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु को पुकारें । प्रभु ही हमारा रक्षण करते हैं, प्रभु ही हमारे में दिव्यगुणों का विस्तार करते हैं।
विषय
वैश्वानर मातरिश्वा।
भावार्थ
हम लोग जिस प्रकार (अवसे) गति उत्पन्न करने और पदार्थों के सत्यासत्य रूप का ज्ञान करने और कान्ति या प्रकाश के लिये (शुभ्रम्) खूब चमकने वाले (अग्निम् हवामहे) अग्नि को उपयोग में लेते हैं उसी प्रकार हम लोग (अवसे) रक्षा, ज्ञान और कान्ति आदि कमनीय गुणों के लिये (शुभ्रम्) तेजस्वी, शुद्ध कर्मों वाले, (वैश्वानरं) सब नायकों के नायक (मातरिश्वानम्) वायु के आश्रय जीवित अग्नि के समान मातृस्वरूप मातृभूमि के निमित्त प्राण धारण करने वाले और माता अर्थात् उत्तम ज्ञानवान् पुरुषों के आश्रय एवं उनके निमित्त रहने वाले, (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय (बृहस्पतिम्) बड़े वेदज्ञान वाणी और बड़े राष्ट्र के पालक (विप्रं) विविध ऐश्वर्यों से राष्ट्र को पूरने वाले, और शिष्यों को विविध ज्ञानों से पूर्ण करने वाले, (श्रोतारम्) श्रवणशील, बहुश्रुत, एवं सबके सुख दुःख निवेदनों को यथावत् सुनने वाले, (अतिथिम्) अतिथि के समान पूज्य, सर्वोपरि उत्तम आसन पर अध्यक्ष रूप से विराजने वाले (रघुस्यदम्) अतिशीघ्रगामी, तीव्रबुद्धि, (अग्निम्) तेजस्वी विद्वान् और नायक को (मनुषः) हम मननशील पुरुष मिलकर (देवतातये) उत्तम प्रकाशों और गुणों को पाने और विद्वानों और वीरों के हित के लिये (हवामहे) प्राप्त करें। (२) परमेश्वर शुद्ध होने से ‘शुभ्र’ है। वह ज्ञानी के हृदय में व्यापक होने से ‘मातरिश्वा’ है। दया से सबकी सुनने से श्रोता, व्यापक होने से अतिथि, स्वल्पशक्ति जीवों और लोकों को भी वेग से चलाने वाला होने से रघुस्यद है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रः। ७ आत्मा ऋषिः॥ १-३ वैश्वानरः। ४-६ मरुतः। ७, ८ अग्निरात्मा वा। ९ विश्वामित्रोपाध्यायो देवता॥ छन्दः- १—६ जगती। ७—९ त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा पूर्ण विद्वान अतिथी व श्रोता यांना ज्ञानयुक्त करतो त्याचप्रकारे अग्नी शिल्पीजनांसाठी अत्यंत धन उत्पन्न करतो. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
We, people dedicated to research and yajnic meditation, invoke, enkindle, raise and develop Agni for the sake of divine virtues for noble humanity, Agni which is bright and blazing, vitality of the world, breath of the winds, worthy of celebration. It is Brhaspati, lord of mighty stars and planets. It is Vipra, vibrant voice of the universe: It is intelligent and omniscient, listening to prayers, worthy as a learned visitor, and it is ever in motion faster than the fastest.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of fire are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men you should also acquire the knowledge of that Agni thoroughly (in the form of electricity etc.), which we thoughtful persons accept for our protection. That element is active, responds to our supplications, genius guest, and pervading the firmament. Praiseworthy, protector of the earth and other worlds, the benefactor of mankind and is radiant. We accept and utilize it for the attainment of divine virtues.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As a guest who is blessed with deep wisdom and knowledge makes his hosts full of knowledge, so the fire bestows many kinds of wealth upon artisans.
Foot Notes
(अग्निम् ) विद्युदादिस्वरूपं वह्निम् । = Fire in the form of electricity etc. (वृहस्पतिम्) वृहतां पृथिव्यादीनां पालकम्। = Protector or guardian of the earth and other worlds. (रघुप्पदम् ) यो रघु लघु स्यन्दति तम् । = Quick moving, active.
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