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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 26/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - मरूतः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    अ॒ग्नि॒श्रियो॑ म॒रुतो॑ वि॒श्वकृ॑ष्टय॒ आ त्वे॒षमु॒ग्रमव॑ ईमहे व॒यम्। ते स्वा॒निनो॑ रु॒द्रिया॑ व॒र्षनि॑र्णिजः सिं॒हा न हे॒षक्र॑तवः सु॒दान॑वः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नि॒ऽश्रियः॑ । म॒रुतः॑ । वि॒श्वऽकृ॑ष्टयः । आ । त्वे॒षम् । उ॒ग्रम् । अवः॑ । ई॒म॒हे॒ । व॒यम् । ते । स्वा॒निनः॑ । रु॒द्रियाः॑ । व॒र्षऽनि॑र्निजः । सिं॒हाः । न । हे॒षऽक्र॑तवः । सु॒ऽदान॑वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निश्रियो मरुतो विश्वकृष्टय आ त्वेषमुग्रमव ईमहे वयम्। ते स्वानिनो रुद्रिया वर्षनिर्णिजः सिंहा न हेषक्रतवः सुदानवः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निऽश्रियः। मरुतः। विश्वऽकृष्टयः। आ। त्वेषम्। उग्रम्। अवः। ईमहे। वयम्। ते। स्वानिनः। रुद्रियाः। वर्षऽनिर्निजः। सिंहाः। न। हेषऽक्रतवः। सुऽदानवः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 26; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्वाय्वादिना किं साध्यमित्याह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यथा वयं ये विश्वकृष्टयोऽग्निश्रियः स्वानिनो मरुत रुद्रिया वर्षनिर्णिजो सिंहा न शब्दायन्ते यान् हेषक्रतवः सुदानवो वयमेमहे ते समन्ताद्याचनीयास्तेभ्यो वयमुग्रं त्वेषमुग्रमव ईमहे ॥५॥

    पदार्थः

    (अग्निश्रियः) अग्निना श्रीः शोभा धनं येषां ते (मरुतः) वायवः (विश्वकृष्टयः) विश्वा कृष्टिर्येभ्यस्ते (आ) (त्वेषम्) प्रकाशम् (उग्रम्) कठिनम् (अवः) रक्षणादिकम् (ईमहे) याचामहे (वयम्) (ते) (स्वानिनः) बहवः स्वानाः शब्दा विद्यन्ते येभ्यस्ते (रुद्रियाः) रुद्रेऽग्नौ भवाः (वर्षनिर्णिजः) वर्षस्य वृष्टेः शोधकाः पोषका वा (सिंहाः) व्याघ्राः (न) इव (हेषक्रतवः) हेषाः शब्दाः क्रतवः प्रज्ञाः क्रिया वा येषान्ते (सुदानवः) सुष्ठुदानं येभ्यस्ते ॥५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । मनुष्यैर्विद्वत्सङ्गेन धीमद्भिर्भूत्वा वाय्वादिपदार्थविद्या याचनीया सिंह इव पराक्रमश्च धरणीयः ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वायु आदि से क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (वयम्) हम लोग जो (विश्वकृष्टयः) सम्पूर्ण सृष्टि के उत्पन्नकर्त्ता (अग्निश्रियः) अग्नि से धनयुक्त (स्वानिनः) अतिशय शब्दों से विशिष्ट (रुद्रियाः) अग्नि में उत्पन्न होनेवाले (वर्षनिर्णिजः) सृष्टि के पवित्र करने वा पुष्ट करनेवाले (मरुतः) वायुदल (सिंहाः) व्याघ्रों के (न) सदृश शब्द करते जिनको (हेषक्रतवः) शब्दरूप बुद्धि वा क्रियावाले (सुदानवः) उत्तम दानकारक हम लोग (आ, ईमहे) अच्छे प्रकार याचना करते हैं (ते) वे सब प्रकार माँगने योग्य हैं, उनसे हम लोग (उग्रम्) कठिन (त्वेषम्) प्रकाश और कठिन (अवः) रक्षण आदि की याचना करते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि विद्वान् लोगों के सङ्ग से बुद्धिमान् होकर वायु आदि की सम्बन्धिनी पदार्थविद्या की प्रार्थना करें और सिंह के समान पराक्रम को धारण करें ॥५॥

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    विषय

    उपासक का स्वरूप

    पदार्थ

    [१] (अग्निश्रियः) = अग्नि के समान श्री वाले, अर्थात् तेजस्वी, (मरुतः) = प्राणसाधना को करनेवाले अथवा (मितरावी) = परिमित बोलनेवाले (विश्वकृष्टयः) = सब कृषि आदि काम साध्य कर्मों को करनेवाले (वयम्) = हम (त्वेषम्) = दीप्त (उग्रम्) = तेजस्वी (अवः) = रक्षण को (आ ईमहे) = सर्वथा माँगते हैं। प्रभु का रक्षण हमें ज्ञान से दीप्त करता है तथा तेजस्वी शरीरवाला बनाता है। वस्तुतः प्रभु का उपासक अग्नि के समान श्रीवाला बनने का प्रयत्न करता है। इसके लिए ही प्राणसाधना को अपनाता है, परिमित बोलता है और श्रमसाध्य कर्मों में आनन्द का अनुभव करता है । (२) ते = वे प्रभु के उपासक स्वानिनः = उत्तम स्वनों व शब्दोंवाले होते हैं- प्रभु के नामों का जप करते हैं । रुद्रिया:- उस रुद्र (रुत्+र) ज्ञान देनेवाले प्रभु के उपासक बनते हैं। प्रकृति के उपासक न बनकर प्रभु के उपासक बनते हैं। वर्षनिर्णिज:- (वृष् सेचने) अपने में शक्ति के सेचन द्वारा अपना शोधन करनेवाले होते हैं । सिंहा न= -शेरों के समान हेषक्रतवः = गम्भीर शब्द को करनेवाले होते हैं। इनकी वाणी में ओज होता है। सुदानव:- (दाप् लवने) बुराई को पूर्णतया नष्ट करनेवाले होते हैं । भावार्थ - प्रभुरक्षण प्राप्त करके हम तेजस्वी व पवित्र जीवनवाले बनें ।

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    विषय

    तेजस्वी पुरुषों की वायुओं से श्लिष्टोपमा।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (मरुतः) वायुगण (अग्निश्रियः) विद्युत् की विशेष शोभा को धारण करने वाले (विश्वकृष्टयः) सब प्रकार की कृषियों को उत्पन्न करने के कारण होते हैं उसी प्रकार (मरुतः) विद्वान् और वायु के समान शत्रु-उच्छेदक वीर पुरुष भी (अग्निश्रियः) अग्नि के समान तीक्ष्ण प्रतापी होने से उसी के समान विशेष तेजस्वी रूप को धारण करने हारे और (विश्व-कृष्टयः) समस्त विश्व को सद्गुणों से अपनी ओर आकर्षण करने हारे हों। (वयम्) हम लोग उनके (उग्रं) उग्र, शत्रु के लिये भयदायक, तीक्ष्ण (त्वेषम्) तेज और (अवः) रक्षण का (ईमहे) याचना करते हैं। (ते) वे (स्वानिनः) मेघ के समान गर्जना करने वाले (रुद्रियाः) दुष्टों को रुलाने वाले, सेनापति के अधीन रहने वाले (वर्षनिर्णिजः) जलवर्षी वायु गण के समान शस्त्रवर्षण द्वारा राष्ट्र के शोधक, (सिंहाः न) सिंहों के समान शूरवीर, (हेषक्रतवः) उत्तम हर्ष ध्वनियों और उत्तम प्रज्ञा वा कर्म वाले (सुदानवः) शुभ ऐश्वर्य देने और उत्तम रीति से रक्षा करने वाले हों। (२) विद्वान् पुरुष अग्नि के समान तेजस्वी, सबके चित्तों के आकर्षक, उत्तम उपदेष्टा, वर्षों में बूढ़े, सिंहों के समान हर्षपूर्ण ध्वनि और ज्ञान वाले उत्तम ज्ञानप्रद हों। उनके तेज और रक्षा, ज्ञान की हम सब कामना करें। इति षड्विंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्रः। ७ आत्मा ऋषिः॥ १-३ वैश्वानरः। ४-६ मरुतः। ७, ८ अग्निरात्मा वा। ९ विश्वामित्रोपाध्यायो देवता॥ छन्दः- १—६ जगती। ७—९ त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी विद्वान लोकांच्या संगतीने बुद्धिमान बनून वायू इत्यादी संबंधी पदार्थविद्या शिकावी व सिंहाप्रमाणे पराक्रम गाजवावा. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Maruts, the winds, are blest with the beauty and vitality of fire. They are friends of humanity, turbulent, impetuous, laden with clouds of rain, roaring like lions and highly generous. We beseech them for light, lustre and our protection.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The powerfulness of the winds is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! the Maruts (heroes) , mighty like the winds are friendly to men, are glorious like the fire, and uttering good words to the sons of God. They roar like lions, are purifiers of the rains (through the Yajna). We being liberal donors and blessed with intellect and good speaking power, implore them and seek their fierce radiance and protection.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The men should become wise with the association of the enlightened persons and request them to give the knowledge of the air, fire and other elements and substances. They should also possess the power like that of the lion.

    Foot Notes

    (वर्षनिर्णिज:) वर्षस्य वृष्टे: शोधकाः पोषकाः वा । वर्षनिणिज:- णिजिर शौचपोषणयोः (अदा० ) = Purifiers of rains or its up keepers (त्वेषम् ) प्रकाशम् | = Radiance, light. (रुद्रियाः) रुद्रग्नौ भवाः रुद्रियाः | अग्निर्वेरुद्रः ( Stph. 5, 3, 1, 10, 6, 1, 3, 10 ) रुद्रोऽग्निः ।। ( ताण्ड्य ब्राह्मणे 12, 4, 24) = Born in Agni God or fire i.e. True sons of God and full of splendor like the fire. (त्विय) दीप्तौ = To shine.

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