ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 26/ मन्त्र 7
अ॒ग्निर॑स्मि॒ जन्म॑ना जा॒तवे॑दा घृ॒तं मे॒ चक्षु॑र॒मृतं॑ म आ॒सन्। अ॒र्कस्त्रि॒धातू॒ रज॑सो वि॒मानोऽज॑स्रो घ॒र्मो ह॒विर॑स्मि॒ नाम॑॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निः । अ॒स्मि॒ । जन्म॑ना । जा॒तऽवे॑दाः । घृ॒तम् । मे॒ । चक्षुः॑ । अ॒मृत॑म् । मे॒ । आ॒सन् । अ॒र्कः । त्रि॒ऽधातुः॑ । रज॑सः । वि॒ऽमानः॑ । अज॑स्रः । घ॒र्मः । ह॒विः । अ॒स्मि॒ । नाम॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निरस्मि जन्मना जातवेदा घृतं मे चक्षुरमृतं म आसन्। अर्कस्त्रिधातू रजसो विमानोऽजस्रो घर्मो हविरस्मि नाम॥
स्वर रहित पद पाठअग्निः। अस्मि। जन्मना। जातऽवेदाः। घृतम्। मे। चक्षुः। अमृतम्। मे। आसन्। अर्कः। त्रिऽधातुः। रजसः। विऽमानः। अजस्रः। घर्मः। हविः। अस्मि। नाम॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 26; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्युद्वन्मनुष्यैर्वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे मनुष्या यथाग्निरिव जन्मना जातवेदा अहमस्मि मे चक्षुर्घृतं प्रदीप्तं म आसन्नमृतं भवेत्। यथा रजसो विमानो त्रिधातुरर्कोऽजस्रो घर्मो हविरस्ति तथा नामाहमस्मि ॥७॥
पदार्थः
(अग्निः) पावक इव (अस्मि) (जन्मना) (जातवेदाः) जातवित्तः (घृतम्) प्रदीप्तम् (मे) मम (चक्षुः) चष्टे नेनेक्ति नेत्रेन्द्रियम् (अमृतम्) अमृतात्मकरसम् (मे) मम (आसन्) आस्ये (अर्कः) वज्रो विद्युद्वा। अर्क इति वज्रना०। निघं० २। २०। (त्रिधातुः) त्रयो धातवो यस्मिन्सः (रजसः) लोकसमूहस्य (विमानः) विविधं मानं यस्य सः (अजस्रः) निरन्तरं गन्ता (घर्मः) प्रदीप्तो दिवसकरः (हविः) (अस्मि) (नाम) प्रसिद्धौ ॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विद्युद्वत्कार्य्यसिद्धिधारणं रोगविनाशकाऽऽहारकरणं शत्रुनिवारणं च कर्त्तव्यं येन विद्युत्फलमापतेत् ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को विद्युत् के तुल्य वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (अग्निः) अग्नि के सदृश (जन्मना) जन्म से (जातवेदः) ज्ञानयुक्त मैं (अस्मि) वर्त्तमान हूँ (मे) मेरा (चक्षुः) नेत्र इन्द्रिय (घृतम्) प्रकाशमान (मे) मेरे (आसन्) सुख में (अमृतम्) अमृतस्वरूप रस हो जैसे (रजसः) लोक समूह का (विमानः) अनेक प्रकार के मानसहित (त्रिधातुः) तीन धातुओं से युक्त (अर्कः) वज्र वा बिजुली (अजस्रः) निरन्तर चलनेवाला (घर्मः) प्रदीप्त सूर्य्य (हविः) हवन सामग्री है वैसे ही (नाम) प्रसिद्ध मैं (अस्मि) हूँ ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि बिजुली के सदृश कार्य्य सिद्धि का धारण रोग का नाशकारक भोजन करना और शत्रुओं का निवारण करें, तो बिजुली का फल प्राप्त होवे ॥७॥
विषय
उपासक का आत्म परिचय
पदार्थ
[१] प्रस्तुत मन्त्र में उपासक के आत्म-परिचय के रूप में उपासक के जीवन का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि (अग्निः अस्मि) = मैं अग्नि के समान तेजस्वी हूँ [अग्निश्रियः ५, अग्नेर्भामं ६] उपासक उस अग्नि [ब्रह्म] के तेज से तेजस्वी बनता ही है। (जन्मना जातवेदाः) = जन्म से ही मैं ज्ञानी हूँ- मानो ज्ञानप्राप्ति के लिए ही मेरा जन्म हुआ है। (मे चक्षुः घृतम्) = मेरी आँख दीप्त हैसब इन्द्रियों की शक्ति ठीक बनी हुई है। मे (आसन् अमृतम्) = मेरे मुख में अमृत है, मैं सदा अमृतमय मधुर वचनों को ही बोलता हूँ। [२] (अर्क:) = सदा प्रभु की अर्चना करनेवाला बनता हूँ । (त्रिधातुः) = शरीर, मन व बुद्धि तीनों का धारण करनेवाला बनता हूँ । (रजसः विमानः) = रजोगुण का ठीक माप में धारण करनेवाला हूँ- उतना रजोगुण, जितना कि वेदाधिगम व वैदिक कर्मयोग के लिए आवश्यक है। (अजस्त्र:) = [जसुनोक्षणे] कर्मों का त्याग न करके केवल कर्मफल का ही त्याग करनेवाला हूँ। (घर्मः) = प्राणशक्ति की उष्णतावाला व उत्साहवाला हूँ। (हविः अस्मि नाम) = निश्चय से त्यागपूर्वक अदन करनेवाला हूँ। [३] उपासना करने पर इस प्रकार का जीवन बनता है। उपासक ने सदा मन्त्र के इन शब्दों में अपने को प्रेरणा देनी है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की उपासना करता हुआ मैं मन्त्र के शब्दों में 'अग्नि' बनने से जीवन को प्रारम्भ करता हूँ, हवि बनने पर मेरे जीवन का अन्तिम रूप आता है ।
विषय
जातवेदाः अग्नि जीवात्मा।
भावार्थ
जिस प्रकार (जातवेदाः जन्मना अग्निः) अपने स्वरूप को प्रकट करने वाला या प्रत्येक पदार्थ में व्यापक अग्नि उत्पन्न होकर (अग्निः) आगे २ रह कर सन्मार्ग से चलाने हारा होता है उसी प्रकार (जातवेदाः) ज्ञानी और ऐश्वर्यवान् मैं भी (जन्मना) स्वभाव से ही (अग्निः) प्रकाशमान अग्नि के समान अग्रणी, आगे सन्मार्ग का नायक (अस्मि) होऊं। (मे) मेरी आंख अग्नि के प्रकाश के समान मार्ग देखने वाली और (घृतम्) तेज से युक्त हो। (मे आसन्) मेरे मुख में (अमृतम्) अमृत, शुद्ध जल और अन्न हो। जिस प्रकार (अर्कः) सूर्य (त्रिधातुः) तीनों लोकों को धारण करने हारा होता है। और जिस प्रकार (अर्कः त्रिधातुः) अर्क अर्थात् अन्न रुधिर, मांस, अस्थि तीनों को धारण करता है और जिस प्रकार (अर्कः त्रिधातुः) मन्त्र वाणी, मन और काय तीनों के कर्मों को धारण करता है, उसी प्रकार मैं भी (अर्कः) अर्चना या आदर सत्कार योग्य होकर (त्रिधातुः) उत्तम, मध्यम, अधम तीनों प्रकार के जनों का धारक पोषक होऊं। (रजसः विमानः) जिस प्रकार अन्तरिक्ष का धारक विशेष रूप निर्माण करने वाला वायु वा लोक समूह का विशेष निर्माता है उसी प्रकार मैं भी (रजसः) प्रजा लोकों के बीच (विमानः) विशेष ज्ञान और मान-आदर से युक्त होऊं (घर्मः) धर्म अर्थात् घाम या सूर्य (अजस्रः) निरन्तर एक सार सर्वत्र एक तेज से चमकता रहता है उसी प्रकार मैं भी (घर्मः) दीप्तियुक्त होकर (अजस्रः) कभी विनाश न होने वाला होकर रहूं। और (हविः) अन्न के समान सब के ग्रहण करने योग्य स्तुत्य अन्न के समान तृप्ति तुष्टिकारक (नाम) भी (अस्मि) होऊं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रः। ७ आत्मा ऋषिः॥ १-३ वैश्वानरः। ४-६ मरुतः। ७, ८ अग्निरात्मा वा। ९ विश्वामित्रोपाध्यायो देवता॥ छन्दः- १—६ जगती। ७—९ त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी विद्युतप्रमाणे कार्यसिद्धी करून रोगाचा नाश करणारे भोजन करावे व शत्रूंचे निवारण करावे, तेव्हा विद्युतचे फळ प्राप्त होते. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I am Agni, by birth present in all that is born in existence. My eye is the light of yajna fed on ghrta, and my mouth is nectar as I speak the Word. I am the refulgence of the sun. I hold the earth and skies and the heavens and three principles of nature, Sattva, Rajas and Tamas of Prakrti. I pervade and transcend the spaces. I am eternal, I am the heat and vitality of life, and I am the fragrant havi of the cosmic yajna (since I am in nature and nature is in me).
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the enlightened persons behave is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
God's qualities, in His own words: I am by My very nature an Omniscient Supreme Being, and All pervading. My means of seeing and showing are very bright. There is immortality in my mouth ( so to speak ) i.e. in My very nature. I am upholder of the world in three forms-creation, sustenance and dissolution or सत् चित् आनन्द (absolute existence, consciousness and Bliss), and like the sun am Creator of the Universe, never decaying the Supreme Light and Giver of everything.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is wrong to say that this mantra supports mono-theism. It only shows the Omnipresence, Omniscience and Omnipotence of God. Men should try to bear the attributes of God as for as it lies in their power. They should accomplish well their good works like electrification and should, take food that destroys and keeps away all diseases and could annihilate their enemies.
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