ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 76/ मन्त्र 2
न सं॑स्कृ॒तं प्र मि॑मीतो॒ गमि॒ष्ठान्ति॑ नू॒नम॒श्विनोप॑स्तुते॒ह। दिवा॑भिपि॒त्वेऽव॒साग॑मिष्ठा॒ प्रत्यव॑र्तिं दा॒शुषे॒ शंभ॑विष्ठा ॥२॥
स्वर सहित पद पाठन । सं॒स्कृ॒तम् । प्र । मि॒मी॒तः॒ । गमि॑ष्ठा । अन्ति॑ । नू॒नम् । अ॒श्विना॑ । उप॑ऽस्तुता । इ॒ह । दि॒वा॑ । अ॒भि॒ऽपि॒त्वे । अव॑सा । आऽग॑मिष्ठा । प्रति॑ । अव॑र्तिम् । दा॒शुषे॑ । शम्ऽभ॑विष्ठा ॥
स्वर रहित मन्त्र
न संस्कृतं प्र मिमीतो गमिष्ठान्ति नूनमश्विनोपस्तुतेह। दिवाभिपित्वेऽवसागमिष्ठा प्रत्यवर्तिं दाशुषे शंभविष्ठा ॥२॥
स्वर रहित पद पाठन। संस्कृतम्। प्र। मिमीतः। गमिष्ठा। अन्ति। नूनम्। अश्विना। उपऽस्तुता। इह। दिवा। अभिऽपित्वे। अवसा। आऽगमिष्ठा। प्रति। अवर्त्तिम्। दाशुषे। शम्ऽभविष्ठा ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 76; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे गमिष्ठा शम्भविष्ठा नूनमुपस्तुताऽश्विनेह संस्कृतं न प्र मिमीतः। अभिपित्वेऽवसाऽवर्तिं प्रति मिमीतो दाशुषे दिवान्त्यागमिष्ठा भवेताम् ॥२॥
पदार्थः
(न) निषेधे (संस्कृतम्) कृतसंस्कारम् (प्र) (मिमीतः) जनयतः (गमिष्ठा) अतिशयेन गन्तारौ (अन्ति) समीपे (नूनम्) निश्चितम् (अश्विना) स्त्रीपुरुषौ (उपस्तुता) उपगतप्रशंसया कीर्त्तितौ (इह) अस्मिन् (दिवा) दिवसेन (अभिपित्वे) अभितः प्राप्ते (अवसा) रक्षणाद्येन (आगमिष्ठा) समन्तादतिशयेन गन्तारौ (प्रति) (अवर्त्तिम्) अमार्गम् (दाशुषे) दात्रे (शम्भविष्ठा) अतिशयेन सुखस्य भावयितारौ ॥२॥
भावार्थः
ये गृहस्थाः कृतसंस्कारान् पदार्थान् वृथा न हिंसन्ति ते श्रीमन्तो जायन्ते ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (गमिष्ठा) अतिशय चलनेवाले (शम्भविष्ठा) अतिशय सुखकारक और (नूनम्) निश्चित (उपस्तुता) प्राप्त हुई प्रशंसा से कीर्त्ति को पाये हुए (अश्विना) स्त्रीपुरुषो ! आप (इह) इस संसार में (संस्कृतम्) किया संस्कार जिसका उसको (न) नहीं (प्र, मिमीतः) उत्पन्न करते हो और (अभिपित्वे) सब ओर से प्राप्त होने पर (अवसा) रक्षण आदि से (अवर्त्तिम्) अमार्ग के (प्रति) प्रतिकूल उत्पन्न करते हो और (दाशुषे) दान करनेवाले के लिये (दिवा) दिवस से (अन्ति) समीप में (आगमिष्ठा) चारों और अतिशय चलनेवाले होओ ॥२॥
भावार्थ
जो गृहस्थ जन-किया है संस्कार जिनका, ऐसे पदार्थों का वृथा नहीं नाश करते हैं, वे लक्ष्मीवान् होते हैं ॥२॥
विषय
दो अश्वी । रथी सारथिवत् जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों के परस्पर के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०- ( अश्विना ) नाना उत्तम पदार्थों के भोक्ता जनो ! इन्द्रियों के स्वामियो ! रथि सारिथिवत् गृहस्थ स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (संस्कृतं) उत्तम रीति से किये कार्य को ( नः प्रमिमीतः ) नहीं विनाश करते । वा, आप दोनों उत्तम संस्कार युक्त पुत्रादि को (न प्रमिमीतः) क्यों नहीं उत्पन्न करते ? ( नूनम् ) निश्चय से आप लोग ( इह ) इस लोक में ( अन्ति ) एक दूसरे के अति समीप ( गमिष्ठा ) प्राप्त होकर ( उपस्तुता ) प्रशंसित होते हो । ( दिवा ) दिन के समय ( अभि-पित्वे ) प्राप्त होने पर (अवसा ) उत्तम रक्षा, ज्ञान और प्रीति के साथ ( आ-गमिष्ठा ) एक दूसरे के पास जाने वाले होवो और ( दाशुषे ) दानशील विद्वान् के उपकार के लिये ( अवर्तिं प्रति ) अन्न आजीविका और मार्गादि से रहित बेचारे पुरुष के प्रति (शम्भविष्ठा ) कल्याण करने में समर्थ होवो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अत्रिर्ऋषिः ।। अश्विनौ देवते ॥ छन्द:- १, २ स्वराट् पंक्ति: । ३, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् ।। पञ्चर्चं सूक्तम् ।।
विषय
शम्भविष्ठा
पदार्थ
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (संस्कृतम्) = शरीर, मन व बुद्धि के परिष्कार को (न प्रमिमीत:) = हिंसित नहीं करते हो (उपस्तुता) = स्तुत हुए हुए आप (नूनम्) = निश्चय से (इह) = इस जीवन में (अन्ति गमिष्ठा) = समीपता से प्राप्त होते हो। (दिवा अभिपित्वे) = [अभिपतने] दिन के निकलते ही (अवसा) = रक्षण के हेतु से (आगमिष्ठा) = आप हमें प्राप्त होते हो। [२] हमें प्राप्त होकर आप (अवर्ति प्रति) = सब दौर्भाग्यों पर [गमिष्ठा] आक्रमण करनेवाले होते हो। शरीरस्थ सब दौर्भाग्यों को आप दूर करते हो। सब दौर्भाग्यों को दूर करके (दाशुषे) = दाश्वान् के लिये, आपके प्रति अपना अर्पण करनेवाले के लिये आप (शंभविष्ठा) = अधिक से अधिक शान्ति को देनेवाले होते हो ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से 'शरीर, मन व बुद्धि' का संस्कार ठीक बना रहता है। सब प्रकार के दौर्भाग्यों का दूरीकरण होकर शान्ति प्राप्त होती है ।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे संस्कारित केलेल्या पदार्थांचा व्यर्थ नाश करीत नाहीत ती श्रीमंत होतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, divinities of nature and humanity, most auspicious harbingers of peace and joy, invoked and invited to the yajna here, celebrated and adored, coming at the fastest, almost instantly reaching with protection and promotion at the rise of the day, you do not destroy, nor restrict, nor confine what has been refined, seasoned and sanctified by yajna. In fact, you bring safety and security against adversity and self-betrayal for the generous yajamana at his closest.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The ideal behavior between husbands and wives indicated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men and women ! you are active and conferrers of happiness. You do not destroy what has been prepared nicely (properly cooked), when praised sincerely. With promptest aid, come at morn and evening, (when. Ed.) the devotee most healthful guards from trouble. They do not go astray or lead others to the path of the unrighteousness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those householders who do not waste what has been nicely prepared become rich.
Foot Notes
(अभिपित्वे) अभितः प्राप्ते। = Approached. (अवर्त्तिम्) अमार्गम् । = Path of unrighteousness or injustice.
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