ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 76/ मन्त्र 4
इ॒दं हि वां॑ प्र॒दिवि॒ स्थान॒मोक॑ इ॒मे गृ॒हा अ॑श्विने॒दं दु॑रो॒णम्। आ नो॑ दि॒वो बृ॑ह॒तः पर्व॑ता॒दाद्भ्यो या॑त॒मिष॒मूर्जं॒ वह॑न्ता ॥४॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । हि । वा॒म् । प्र॒ऽदिवि॑ । स्थान॑म् । ओकः॑ । इ॒मे । गृ॒हाः । अ॒श्वि॒ना॒ । इ॒दम् । दु॑रो॒णम् । आ । नः॒ । दि॒वः । बृ॒ह॒तः । पर्व॑तात् । आ । अ॒त्ऽभ्यः । या॒त॒म् । इष॑म् । ऊर्ज॑म् । वह॑न्ता ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं हि वां प्रदिवि स्थानमोक इमे गृहा अश्विनेदं दुरोणम्। आ नो दिवो बृहतः पर्वतादाद्भ्यो यातमिषमूर्जं वहन्ता ॥४॥
स्वर रहित पद पाठइदम्। हि। वाम्। प्रऽदिवि। स्थानम्। ओकः। इमे। गृहाः। अश्विना। इदम्। दुरोणम्। आ। नः। दिवः। बृहतः। पर्वतात्। आ। अत्ऽभ्यः। यातम्। इषम्। ऊर्जम्। वहन्ता ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 76; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्गृहस्थैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे दिवो बृहतः पर्वतादद्भ्य इषमूर्जमाऽऽवहन्ताश्विना ! न इदं दुरोणमाऽऽयातं हीदं वां प्रदिवि स्थानमोक इमे गृहाः प्राप्नुवन्ति तानायातम् ॥४॥
पदार्थः
(इदम्) (हि) यतः (वाम्) युवयोः (प्रदिवि) प्रकृष्टप्रकाशे (स्थानम्) तिष्ठन्ति यस्मिन् (ओकः) गृहम् (इमे) (गृहाः) ये गृह्णन्ति ते गृहस्थाः (अश्विना) स्त्रीपुरुषौ (इदम्) (दुरोणम्) गृहम् (आ) समन्तात् (नः) अस्मानस्माकं वा (दिवः) प्रकाशात् (बृहतः) महतः (पर्वतात्) मेघात् (आ) (अद्भ्यः) (यातम्) प्राप्नुतम् (इषम्) अन्नम् (ऊर्जम्) पराक्रमम् (वहन्ता) ॥४॥
भावार्थः
ये गृहस्था गृहाश्रमकर्माण्यलङ्कुर्वन्ति ते सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्ति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर गृहस्थों को कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (दिवः) प्रकाश से (बृहतः) बड़े (पर्वतात्) मेघ और (अद्भ्यः) जलों से (इषम्) अन्न और (ऊर्जम्) पराक्रम को (आ) सब प्रकार से (वहन्ता) प्राप्त करनेवाले (अश्विना) स्त्रीपुरुषो ! (नः) हम लोगों को वा हम लोगों के (इदम्) इस (दुरोणम्) गृह को (आ) सब प्रकार से (यातम्) प्राप्त होओ (हि) जिससे (इदम्) यह (वाम्) आप दोनों के (प्रदिवि) उत्तम प्रकाश में (स्थानम्) स्थित होते हैं जिस में उस (ओकः) गृह को (इमे) ये (गृहाः) ग्रहण करनेवाले गृहस्थ जन प्राप्त होते हैं, उनको सब प्रकार से प्राप्त होओ ॥४॥
भावार्थ
जो गृहस्थ जन गृहाश्रम के कर्म्मों को पूर्ण रीति से करते हैं, वे सब सुखों को प्राप्त होते हैं ॥४॥
विषय
दो अश्वी । रथी सारथिवत् जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों के परस्पर के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०-हे (अश्विना) जितेन्द्रिय, अश्व रथादि के स्वामी स्त्री पुरुषो ! (वां ) आप दोनों (हि) निश्चय से (प्र-दिवि ) उत्तम ज्ञान और प्रकाश में (स्थानम् ) स्थित होवो । ( प्रदिवि स्थानम् ) उत्तम भूमि में रहने का स्थान और उसमें ही (ओकः) तुम्हारा रहना हो, (इमे गृहाः) ये गृहस्थाश्रम को धारण करने वाले पुरुष स्त्रियें भी उत्तम ज्ञान, प्रकाश वाले भूभाग में रहें । (इदं दुरोणम् ) और यह गृह (प्रदिवि) उत्तम, ऊंची भूमि और उत्तम प्रकाश में ही दुर्गवत् हो । आप दोनों (बृहतः दिवः ) बड़े भारी आकाश से ( इषम् ) वृष्टि को और ( बृहतः दिवः इषम् ) बड़े तेजस्वी सूर्य से प्रेरक बल, जीवन का और ( बृहतः पर्वतात्) बड़े भारी मेघ से (इषम् ) वृष्टि को और ( अद्भयः इषम् ऊर्जं ) अन्तरिक्ष और जलों से अन्न और बल पुष्टि को ( वहन्त ) प्राप्त करते और कराते हुए ( नः आयातम् ) हमें प्राप्त होवो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अत्रिर्ऋषिः ।। अश्विनौ देवते ॥ छन्द:- १, २ स्वराट् पंक्ति: । ३, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् ।। पञ्चर्चं सूक्तम् ।।
विषय
ओकः-गृहा:-दुरोणम्
पदार्थ
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (इदम्) = यह (हि) = निश्चय से (वाम्) = आपका (प्रदिवि स्थानम्) = प्रकृष्ट द्युलोक में, मस्तिष्करूप द्युलोक में जो स्थान है, वही (ओकः) = आपका समवाय स्थान है । (इमे गृहा:) = यह हमारा शरीर ही आपका घर है । (इदं दुरोणम्) = यही आपका दुरोण [गृह] है। इस शरीर में ही प्रभु से मेल इन प्राणापाणों के द्वारा होता है, सो यह 'ओक' है। यहीं दिव्य गुणों का संग्रह होता है, सो यह 'गृहा: ' हैं। इन प्राणापान के द्वारा यहां से सब बुराइयों का अपनयन होता है सो यह दुरोण है [दुर् ओम= अपनयन] [२] हे प्राणापानो! आप (नः) = हमें (आयातम्) = प्राप्त होवो । (बृहतः दिवः) = वृद्धि के कारणभूत ज्ञान के हेतु से प्राप्त होवो तथा (पर्वतात्) = सब उत्तमताओं के पूरण के हेतु से प्राप्त होवो [पर्व पूरणे] । (अद्भ्यः) = रेतः कणरूप जलों के हेतु से तुम हमें प्राप्त होवो। प्राणसाधना से ही ज्ञानाग्नि दीप्त होती है, सब कमियाँ दूर होती हैं तथा रेत: कणों का रक्षण होता है। हे प्राणापानो! आप हमारे लिये (इषम्) = प्रेरणा को तथा (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति को वहन्ता प्राप्त करानेवाले होवो। प्राणसाधना से निर्मल हृदय में हम प्रभु प्रेरणा को सुनते हैं और उस प्रेरणा को क्रिया में परिणत करने के लिये शक्ति को प्राप्त करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से [१] इस शरीर में हम प्रभु से मेल को प्राप्त करते हैं। सो यह 'ओक' बनता है [उचं समवाये] । [२] यहां हम गुणों का ग्रहण करते हैं। सो यह 'गृहा: ' कहलाता है। [३] तथा सब बुराइयों को दूर करके ये इसे 'दुरोण' बनाते हैं। [४] प्राणसाधना से ही 'ज्ञान, पूर्ति व सोमरक्षण' होता है।
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक गृहस्थाश्रमाचे कार्य पूर्ण करतात ते सर्व सुख प्राप्त करतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, harbingers of light, enlightened men and women, this house, these inmates, this open door home, all this is your ancient abode in the very light of heaven. Come here, bearing and bringing for us nutriments and energy from the vast regions of light and space, cloud and mountains, and from the waters of earth and space.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should householders behave is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned men and women ! bringing food and vigor from the good light (cooked with energy. Ed.) from big cloud or from the waters come to this our house. These householders come to your house or dwelling which is in the (full of. Ed.) light. You come to receive them.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those householders who adorn (do properly and systematically) all household works, enjoy full happiness.
Foot Notes
(प्रदिवि ) प्रकृष्टप्रकाशें । (दिवि ) दिबू धातोघुंत्यर्थमादाय। = In good light. (दुरोणम् ) गृहम् । दुरोणे इति गृहनाम (NG 3, 4) = Dwelling place. (ओक्) गृहम् । ओक इति निवासनामोच्यते (NKT 3, 1, 3 ) = Abode, habitation. (गुहा:) ये गृह्णन्ति ते गृहस्था: = Householders.
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