ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 38/ मन्त्र 2
ए॒तं त्रि॒तस्य॒ योष॑णो॒ हरिं॑ हिन्व॒न्त्यद्रि॑भिः । इन्दु॒मिन्द्रा॑य पी॒तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तम् । त्रि॒तस्य॑ । योष॑णः । हरि॑म् । हि॒न्व॒न्ति॒ । अद्रि॑ऽभिः । इन्दु॑म् । इन्द्रा॑य । पी॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतं त्रितस्य योषणो हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः । इन्दुमिन्द्राय पीतये ॥
स्वर रहित पद पाठएतम् । त्रितस्य । योषणः । हरिम् । हिन्वन्ति । अद्रिऽभिः । इन्दुम् । इन्द्राय । पीतये ॥ ९.३८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 38; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(त्रितस्य योषणः हरिम्) त्रिगुणायाः प्रकृतेः प्रभुं (एतम् इन्दुम्) परमैश्वर्यसम्पन्नमिमं परमात्मानं (इन्द्राय पीतये) जीवस्य तृप्तये (अद्रिभिः) इन्द्रियवृत्तिभिः (हिन्वन्ति) विद्वांसः ध्यानविषयीकुर्वन्ति ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(त्रितस्य योषणः हरिम्) “हरति प्रापयति स्ववशमानयतीति हरिः स्वामी” तीनों गुणवाली माया के अधिपति (एतम् इन्दुम्) परमैश्वर्यसम्पन्न परमात्मा को (इन्द्राय पीतये) जीव की तृप्ति के लिये (अद्रिभिः) इन्द्रियवृत्ति द्वारा (हिन्वन्ति) विद्वान् लोग ध्यानविषय करते हैं ॥२॥
भावार्थ
सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणोंवाली माया, जो प्रकृति है, उसका एकमात्र अधिपति परमात्मा ही है, कोई अन्य नहीं। जो-जो पदार्थ इन्द्रियगोचर होते हैं, वे सब मायिक हैं अर्थात् मायारूपी उपादानकारण से बने हुए हैं। परमात्मा मायारहित होने से अदृश्य है। उसका साक्षात्कार केवल बुद्धिवृत्ति से होता है। बाह्य चक्षुरादि इन्द्रियों से नहीं। इसी अभिप्राय से यहाँ परमात्मा को बुद्धिवृत्ति का विषय कहा गया है ॥२॥
विषय
योषणः अद्रिभिः
पदार्थ
[१] (एतम्) = इस (हरिम्) = सब रोगों का हरण करनेवाले सोम को (त्रितस्य) = 'काम-क्रोध-लोभ' इन तीनों को तैर जानेवाले त्रित की (योषण:) = ज्ञानवाणियाँ (अद्रिभिः) = उपासनाओं के द्वारा (हिन्वन्ति) = शरीर में ही प्रेरित करती हैं । [२] (इन्दुम्) = इस शक्तिशाली सोम को (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के (पीतये) = रक्षण के लिये शरीर में प्रेरित करते हैं। इस सोम को शरीर में प्रेरित करने के लिये 'स्वाध्याय व उपासना' महान् साधन हैं ।
भावार्थ
भावार्थ-स्वाध्याय व उपासना के द्वारा त्रित सोम को शरीर में ही व्याप्त करने के लिये सतत उद्योगवाला होता है।
विषय
भक्त की भावनाओं का प्रभु तक जाना।
भावार्थ
(त्रितस्य योषणः) तीनों तापों से पार गये हुए इस साधक की (योषणः) योगज, स्नेहमयी भावनाएं (एतं हरिम्) उस भवभय- दुःखहारी (इन्दुम्) परमैश्वर्ययुक्त, स्नेह रस से भरे प्रभु को (इन्द्राय पीतये) इस तत्वदर्शी आत्मा के रक्षणार्थ पान अर्थात् पिपासा की तृप्ति के लिये (अद्रिभिः) मेघवत् ज्ञान-सुखप्रद उपायों से (हिन्वन्ति) प्राप्त होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रहूगण ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, २, ४, ६ निचृद् गायत्री। ३ गायत्री। ५ ककुम्मती गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
This Spirit of joy, eliminator of suffering, happy voices of the sage past three bondages of body, mind and soul adore, with the intensity of adamantine meditation for the spiritual joy of general humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
सत्त्व, रज, तम या तीन गुणांची माया जी प्रकृती आहे तिचा एकमात्र अधिपती परमात्माच आहे इतर कोणी नाही. जे जे पदार्थ इंद्रियगोचर असतात ते सर्व मायिक आहेत अर्थात मायारूपी उपादान कारणाने बनलेले आहेत. परमात्मा मायारहित असल्यामुळे अदृश्य आहे. त्याचा साक्षात्कार केवळ बुद्धीवृत्तीने होतो. बाह्य चक्षु इत्यादी इंद्रियांनी होत नाही. यामुळेच येथे परमात्म्याला बुद्धिवृत्तीचा विषय म्हटलेले आहे. ॥२॥
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