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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 72/ मन्त्र 3
    ऋषिः - हरिमन्तः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    अर॑ममाणो॒ अत्ये॑ति॒ गा अ॒भि सूर्य॑स्य प्रि॒यं दु॑हि॒तुस्ति॒रो रव॑म् । अन्व॑स्मै॒ जोष॑मभरद्विनंगृ॒सः सं द्व॒यीभि॒: स्वसृ॑भिः क्षेति जा॒मिभि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अर॑ममाणः । अति॑ । ए॒ति॒ । गाः । अ॒भि । सूर्य॑स्य । प्रि॒यम् । दु॒हि॒तुः । ति॒रः । रव॑म् । अनु॑ । अ॒स्मै॒ । जोष॑म् । अ॒भ॒र॒त् । वि॒न॒म्ऽगृ॒सः । सम् । द्व॒यीभिः॑ । स्वसृ॑ऽभिः । क्षे॒ति॒ । जा॒मिऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अरममाणो अत्येति गा अभि सूर्यस्य प्रियं दुहितुस्तिरो रवम् । अन्वस्मै जोषमभरद्विनंगृसः सं द्वयीभि: स्वसृभिः क्षेति जामिभि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अरममाणः । अति । एति । गाः । अभि । सूर्यस्य । प्रियम् । दुहितुः । तिरः । रवम् । अनु । अस्मै । जोषम् । अभरत् । विनम्ऽगृसः । सम् । द्वयीभिः । स्वसृऽभिः । क्षेति । जामिऽभिः ॥ ९.७२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 72; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अरममाणः) जितेन्द्रियः कर्मयोगी (गाः) इन्द्रियाणि (अत्येति) अतिक्रामति (सूर्यस्य प्रियं दुहितुः) रवेः प्रियाया उषसः (अभि) सम्मुखं (तिरः रवम्) शब्दायमानः सन् स्थिरो भवति। अथ च स कर्मयोगी (द्वयीभिः स्वसृभिः) एकेन मनसाऽऽविर्भावात्स्वसृभावं दधन्त्यौ कर्मयोगस्य द्वे वृत्ती (जामिभिः) ये युगलरूपेण वर्तमाने ताभ्यां (सङ्क्षेति) विचरति। (विनङ्गृसः) स्तोता (अस्मै) कर्मयोगिने (जोषम् अनु अभरत्) प्रीत्या संसेवते ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अरममाणः) जितेन्द्रिय कर्मयोगी (गाः) इन्द्रियों का (अत्येति) अतिक्रमण करता है। (सूर्यस्य प्रियं दुहितुः) सूर्य की प्रिय दुहिता उषा के (अभि) सम्मुख (तिरः रवम्) शब्दायमान होकर स्थिर होता है और वह कर्मयोगी (द्वयीभिः स्वसृभिः) कर्मयोग की दोनों वृत्तियें जो एक मन से उत्पन्न होने के कारण स्वसृभाव को धारण किये हुई हैं और (जामिभिः) जो युगलरूप से रहती हैं, उनसे (सङ्क्षेति) विचरता है। स्तोता (अस्मै) उस कर्मयोगी के लिये (जोषम् अनु अभरत्) प्रीति से सेवन करता है ॥३॥

    भावार्थ

    जितेन्द्रिय पुरुष के यश को स्तोता लोग गान करते हैं, क्योंकि उनके हाथ में इन्द्रिय-रूपी घोड़ों की रासें रहती हैं। इसी अभिप्राय से उपनिषत् में यह कहा है कि “सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम्” वही पुरुष इस संसाररूपी मार्ग को तैर करके विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है, अन्य नहीं ॥३॥

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    विषय

    उसका लोकमत के अनुसार शासन से शान्ति प्राप्ति।

    भावार्थ

    वह उत्तम शास्ता, (अरममाणः) कहीं भी सुख न पाता हुआ, (गाः अति एति) आत्मा के तुल्य समस्त भूमियों को अति क्रमण कर जाता है। उनका (तिरः) तिरस्कार करके (सूर्यस्य दुहितुः) सूर्य को तेज से पूर्ण करने वाला, उसकी पुत्री के समान उषा के तुल्य कान्तियुक्त स्त्रीवत् (सूर्यस्य प्रियं दुहितुः) सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष के प्रिय अभिलषित मनोरथ को पूर्ण करने वाली प्रजा के (रवम् अभि एति) लोकमत के प्रति ध्यान देता है। और वह (विनंगृसः) बाहु के समान विविध काम्य पदार्थों को ग्रहण करने वाला क्षत्रिय वीर (अस्मै जोषम् अनु अभरत्) इस राष्ट्र के हित को लक्ष्य करके उसका भरण पोषण करता है और (द्वयीभिः स्वसृभिः जामिभिः) दोनों प्रकार की, स्वयं उस तक पहुंचने वाला बहुतों के तुल्य विद्वान् बलवान्, निर्बल धनी और निर्धन प्रजाओं सहित वह (सं क्षेति) एक ही राष्ट्र में निवास करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हरिमन्त ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:-१—३, ६, ७ निचृज्जगती। ४, ८ जगती। ५ विराड् जगती। ९ पादनिचृज्जगती॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    सोमरक्षण द्वारा प्रभु की वाणी का श्रवण

    पदार्थ

    [१] सोम का रक्षण करने पर यह सोमरक्षक पुरुष (अरममाणः) = संसार के विषयों में रममाण [फँसा हुआ] न होता हुआ (अति) = इन विषयों को लाँघकर (गाः अभि एति) = ज्ञान की वाणियों की ओर आता है। यह (सूर्स्य) = उस ज्ञानसूर्य प्रभु की (दुहितुः) = दुहितृभूत इस वेदवाणी के (प्रियम्) = अत्यन्त प्रिय (तिरः) = हृदय - मन्दिर में तिरोहित रूप से वर्तमान (रवम्) = शब्द को (अभि एति) = लक्ष्य करके गतिवाला होता है। इस सोमरक्षक पुरुष का लक्ष्य यह होता है कि यह हृदयस्थ प्रभु से उच्चारित हो रहे इस वेदवाणी के शब्दों को सुन सके। [२] (अस्मै) = इस शब्द के लिये ही यह (जोषम्) = प्रीतिपूर्वक उपासन को (अन्वभरत्) = अपने में भरनेवाला होता है । इस उपासना के द्वारा यह प्रभु के सान्निध्य को प्राप्त करके उन शब्दों को सुननेवाला होता है। इन शब्दों को सुननेवाला यह (विनंगृसः) = [विनं कमनीयं स्तोत्रं गृह्णाति इति सा० ] = स्तोता (द्वयीभिः) = प्रकृति व आत्मा को ज्ञान देनेवाली, अपरा व परा दो प्रकार की (जामिभिः) = हमारे जीवन में सद्गुणों को जन्म देनेवाली (स्वसृभिः) = आत्मतत्त्व की ओर ले जानेवाली वेदवाणियों से (संक्षेति) = संगत होता है [क्षि गतौ] ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से सांसारिक विषयों में न फँसकर वेद वाणियों से संगत होते हैं ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Bearing love and enthusiasm for this Soma, the devotee abides with both sister senses of perception and volition, but indifferent to sense experience and pleasure, he moves on to the sweet message of the dawn, daughter of the sun, and goes still beyond to bliss of the absolute divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जितेंद्रिय पुुरुषाच्या यशाचे प्रशंसक लोक गान गातात. कारण त्यांच्या हातात इंद्रियरूपी घोड्यांचा लगाम असतो. यामुळेच उपनिषदामध्ये म्हटले आहे की ‘‘सोऽध्वन: पारमाप्नोति तद्विष्णो: परमं पदम्’’ तोच पुरुष या संसाररूपी सागरमार्गातून पार पडून विष्णूचे परम पद प्राप्त करतो, दुसरा करू शकत नाही. ॥३॥

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