ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 72/ मन्त्र 4
नृधू॑तो॒ अद्रि॑षुतो ब॒र्हिषि॑ प्रि॒यः पति॒र्गवां॑ प्र॒दिव॒ इन्दु॑ॠ॒त्विय॑: । पुरं॑धिवा॒न्मनु॑षो यज्ञ॒साध॑न॒: शुचि॑र्धि॒या प॑वते॒ सोम॑ इन्द्र ते ॥
स्वर सहित पद पाठनृऽधू॑तः । अद्रि॑ऽसुतः । ब॒र्हिषि॑ । प्रि॒यः । पतिः॑ । गवा॑म् । प्र॒ऽदिवः॑ । इन्दुः॑ । ऋ॒त्वियः॑ । पुर॑न्धिऽवान् । मनु॑षः । य॒ज्ञ॒ऽसाध॑नः । शुचिः॑ । धि॒या । प॒व॒ते॒ । सोमः॑ । इ॒न्द्र॒ । ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नृधूतो अद्रिषुतो बर्हिषि प्रियः पतिर्गवां प्रदिव इन्दुॠत्विय: । पुरंधिवान्मनुषो यज्ञसाधन: शुचिर्धिया पवते सोम इन्द्र ते ॥
स्वर रहित पद पाठनृऽधूतः । अद्रिऽसुतः । बर्हिषि । प्रियः । पतिः । गवाम् । प्रऽदिवः । इन्दुः । ऋत्वियः । पुरन्धिऽवान् । मनुषः । यज्ञऽसाधनः । शुचिः । धिया । पवते । सोमः । इन्द्र । ते ॥ ९.७२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 72; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (नृधूतः) सर्वकम्पकः (अद्रिषुतः) संस्कृतेन्द्रियैः साक्षात्कृतस्तथा (बर्हिषि) यज्ञेषु (प्रियः) प्रियकारकः (गवां पतिः) लोकलोकान्तरस्य भर्ता तथा (प्रदिवः) द्युलोकस्य (इन्दुः) प्रकाशकः (ऋत्वियः) त्रिकालज्ञः (पुरन्धिवान्) सर्वज्ञः (मनुषः) मनुष्येभ्यः (यज्ञसाधनः) ज्ञानयज्ञकर्मयज्ञादिदायकः सः (सोमः) परमेश्वरः (शुचिः धिया) शुद्धबुद्ध्या साक्षात्कृतः सन् (ते) त्वां (पवते) पवित्रयति ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! परमात्मा (नृधूतः) सबको कम्पायमान करनेवाला और (अद्रिषुतः) संस्कृत इन्द्रियों की वृत्तियों से साक्षात्कार को जो प्राप्त है तथा (बर्हिषि) यज्ञों में (प्रियः) जो प्रिय है और जो जगदीश्वर (गवां पतिः) लोक-लोकान्तरों का पति है तथा (प्रदिवः) द्युलोक का (इन्दुः) प्रकाशक है और (ऋत्वियः) त्रिकालज्ञ (पुरन्धिवान्) सर्वज्ञ तथा (मनुषः) मनुष्यों के लिये (यज्ञसाधनः) ज्ञानयज्ञ कर्मयज्ञादिकों का देनेवाला है, वह (सोमः) परमात्मा (शुचिः धिया) शुद्ध बुद्धि से साक्षात्कार किया हुआ (ते) तुमको (पवते) पवित्र करता है ॥४॥
भावार्थ
जो लोक-लोकान्तरों का अधिपति परमात्मा है, उसको जब मनुष्य ज्ञानदृष्टि से लाभ कर लेता है, तब आनन्दित हो जाता है ॥४॥
विषय
उत्तम शासक के प्रजा के प्रति कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! राष्ट्र के समृद्ध जन ! (ते) तेरे हितार्थ (शुचिः) हृदय में शुद्ध, ईमानदार (सोमः) शासक (धिया) बुद्धि और कर्म से परीक्षित करके (पवते) तुझे प्राप्त हो। वह (नृ-धूतः) उत्तम पुरुषों से अभिषिक्त और (अद्रि-सुतः) मेघ वा पर्वतवत् दृढ़ पुरुषों से प्रेरित, (प्रियः) प्रजाओं को प्रिय, उनको प्रसन्न करने वाला, (प्रदिवः) उत्तम ज्ञान और तेज से सम्पन्न (इन्दुः) ऐश्वर्यवान् और दयार्द्र भाव से युक्त, (ऋत्वियः) समय २ पर अनुकूल कर्म करने वाला, (बर्हिषि) महान् राष्ट्र वा इस भूमिलोक पर स्थित (गवां पतिः) समस्त भूमियों राजाज्ञाओं, कानूनों का पालक, रक्षक (पुरन्धिवान्) नगर को धारण करने वाली सभाओं वा बहुत बुद्धियुक्त पुरुषों का स्वामी, (मनुषः) मनुष्यों के (यज्ञ साधनः) यज्ञों, उत्तम कर्मों, सत्संगों को साधने वाला होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हरिमन्त ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:-१—३, ६, ७ निचृज्जगती। ४, ८ जगती। ५ विराड् जगती। ९ पादनिचृज्जगती॥ नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
'पुरन्धिवान्-यज्ञसाधनः ' सोमः
पदार्थ
[१] यह (इन्दुः) = हमें शक्तिशाली बनानेवाला सोम (नृधूतः) = [नृ नये] प्रगतिशील मनुष्यों से शोधित होता है। वे वासनामल को कम्पित करके दूर करनेवाले होते हैं। (अद्रिषुतः) = उपासकों से यह अपने अन्दर उत्पन्न किया जाता है । (बर्हिषि प्रियः) = वासनाशून्य हृदय के निमित्त यह प्रिय होता है । सोमरक्षण से ही हृदय की पवित्रता सिद्ध होती है। यह सोम (गवां पतिः) = इन्द्रियों का रक्षक होता है । सब इन्द्रियों को अपने कार्य करने की शक्ति इस सोम से ही प्राप्त होती है । (प्रदिवः) = यह प्रकृष्ट ज्ञानवाला होता है, ज्ञानाग्नि का यह सोम ही तो ईंधन बनता है । (ऋत्वियः) = यह 'ऋतौ जातः ' जीवन के सब कार्यों के नियमित होने पर विकसित होता है। शरीर में सोम के विकास के लिये जीवन की नियमित गति आवश्यक है, सब कार्यों को ठीक समय पर करने से ही धातुओं का विकास ठीक से होता है । [२] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! यह सोम (पुरन्धिवान्) = प्रशस्त द्यावापृथिवीवाला है [नि० ३ । ३०], तेरे शरीर व मस्तिष्क को उत्तम बनानेवाला है। (मनुषः) = (यज्ञसाधनः) = विचारशील पुरुष के सब यज्ञों को यही सिद्ध करनेवाला है । सोम ही तो सब यज्ञों की सिद्धि के लिये शक्ति प्राप्त कराता है। (शुचिः) = यह पवित्र है । (ते) = तेरे लिये (धिया) = बुद्धि के साथ (पवते) = प्राप्त होता है, तेरी बुद्धि को यही तीव्र बनानेवाला है।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम ही इन्द्रियों को सशक्त बनाता है, हमारे ज्ञान को बढ़ाता है। यह सोम ही यज्ञों को सिद्ध करने के लिये शक्ति प्राप्त कराता है। मस्तिष्क व शरीर को प्रशस्त करता है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O soul, master of senses, mind and intelligence, the soma joy of existence flows free for you everywhere. Exercised in practice by holy men, distilled and realised in the heart and on the holy grass of yajna, darling of the soul, ruler of sense and mind, it masters, controls and governs the stars and planets. It is refulgent, heavenly and illuminative, and blissful across the seasons, time and space. It holds and sustains all systems of nature and humanity, it is the harbinger of success and fulfilment for us in all our yajnic corporate acts, and it is pure and immaculate beyond possibility of sin, evil and pollution.
मराठी (1)
भावार्थ
जो लोकलोकांतरांचा अधिपती परमात्मा आहे त्याला जेव्हा माणूस ज्ञानदृष्टीने पाहतो, तेव्हा आनंदित होतो. ॥४॥
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