ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 75/ मन्त्र 5
परि॑ सोम॒ प्र ध॑न्वा स्व॒स्तये॒ नृभि॑: पुना॒नो अ॒भि वा॑सया॒शिर॑म् । ये ते॒ मदा॑ आह॒नसो॒ विहा॑यस॒स्तेभि॒रिन्द्रं॑ चोदय॒ दात॑वे म॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । सो॒म॒ । प्र । ध॒न्व॒ । स्व॒स्तये॑ । नृऽभिः॑ । पु॒ना॒नः । अ॒भि । वा॒स॒य॒ । आ॒ऽशिर॑म् । ये । ते॒ । मदाः॑ । आ॒ह॒नसः॑ । विऽहा॑यसः । तेभिः॑ । इन्द्र॑म् । चो॒द॒य॒ । दात॑वे । म॒घम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि सोम प्र धन्वा स्वस्तये नृभि: पुनानो अभि वासयाशिरम् । ये ते मदा आहनसो विहायसस्तेभिरिन्द्रं चोदय दातवे मघम् ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । सोम । प्र । धन्व । स्वस्तये । नृऽभिः । पुनानः । अभि । वासय । आऽशिरम् । ये । ते । मदाः । आहनसः । विऽहायसः । तेभिः । इन्द्रम् । चोदय । दातवे । मघम् ॥ ९.७५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 75; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे परमात्मन् ! (ये ते मदा आहनसः) ये तव स्वभावा वाणीवोपदिशन्ति (तेभिः) तैः (विहायसाः) अस्मानाच्छादय। अथ च (इन्द्रम्) कर्मयोगिनं (मघं दातवे) ऐश्वर्यदानाय (चोदय) प्रेरय। (सोम) हे जगदीश ! (नृभिः) उपदेशकैः (परिपुनानः) अस्मान् पवित्रयन् (स्वस्तये) सत्कल्याणाय (प्रधन्व) प्राप्तो भव। तथा (आशिरम्) अस्मदाश्रयं (अभिवासय) अभितो रक्षय ॥५॥ इति श्रीमदार्यमुनिनोपनिबद्धे ऋक्संहिताभाष्ये सप्तमाष्टके द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (ये ते मदा आहनसः) जो आपके स्वभाव वाणी के समान उपदेश करते हैं, (तेभिः) उनसे (विहायसाः) हमारा आप आच्छादन करें और (इन्द्रम्) कर्मयोगी को (मघं दातवे) ऐश्वर्य देने के लिये (चोदय) प्रेरणा कीजिये। (सोम) हे परमात्मन् ! उपदेशकों द्वारा (नृभिः) हमको पवित्र करते हुए (परिपुनानः) हमारे कल्याण के लिये (स्वस्तये) प्राप्त होइये और (प्रधन्व) हमारे आश्रय की (आशिरम्) सब ओर से रक्षा कीजिये ॥५॥
भावार्थ
जो लोग एकमात्र परमात्मा का आश्रयण करते हैं, परमात्मा उनकी सर्वथा रक्षा करते हैं, क्योंकि सर्वनियन्ता और सबका अधिष्ठाता एकमात्र वही है। जैसा कि हम पूर्व भी अनेक स्थलों में लिख आये हैं कि “यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्म” तै० ३।१॥ “सर्वाणि वा इमानि भूतान्याकाशादेव समुत्पद्यन्ते आकाशं प्रत्यस्तं यन्त्याकाशो वा एभ्यो ज्यानाकाशः परायणम्” छा० ६।१४।१॥ “आत्मैवेदं सर्वम्” छा० ७।२५।२॥ “पुरुष एवेदं सर्वम्” ऋ० ८।४।१७।१॥ “स एव जातः स जनिष्यमाणः” यजु० ३२।४॥ “नित्यो नित्यानाम्” कठ० ५।१३॥ “नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मम्” मु० १।१।६॥ “सत्यं हैव ब्रह्म” बृ० ५।४।१॥ “ब्रह्मवादिनो हि प्रवदन्ति नित्यम्” श्वे० ३।२१॥ “यो विश्वस्य जगतः प्राणतस्पतिः” ऋ० १।७।१२।५॥ “यः प्राणतो निमिषतो माहित्वैक इद्राजा जगतो बभूव” ऋ० ८।७।३।३॥ “यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति” अथ० १०।८।४।१॥ “ब्रह्म गामश्वं जनयन्त ओषधीर्वनस्पतीन् पृथिवीं पर्वताँ अपः। सूर्यं दिवि रोहयन्तः सुदानव आर्या व्रताः विसृजन्तो अधिक्षमि” ॥ इत्यादि वेदोपनिषदों के वचनों से प्रसिद्ध है कि परमात्मा ही सबका अधिष्ठान है। अधिष्ठान, अधिकरण, आश्रय ये एक ही वस्तु के नाम हैं। उसी परमात्मा ने इस चराचरात्मक संसार को उत्पन्न किया है, जिसको कोई आश्चर्यरूप से देख रहा है, कोई आश्चर्यरूप से सुन रहा है और कोई इस गूढ तत्त्व को न समझकर अज्ञानावस्था में पड़ा हुआ है। पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि इसके कर्तृत्व का कोई तिरस्कार नहीं कर सकता। अर्थात् नास्तिक से नास्तिक भी जब इस बात का विचार करता है कि इस विविध रचनासंयुक्त विश्व को किसने उत्पन्न किया, तो उसकी दृष्टि भी किसी अद्भुत शक्ति पर ही ठहरती है। अस्तु–ये विचार तो उन लोगों के हैं, जो ब्रह्म को तर्कगम्य मानते हैं और जिन आस्तिक लोगों के विचार में ब्रह्म शब्दगम्य है, उनके लिये प्रमाणान्तर की आवश्यकता नहीं। इसीलिये हमने ऋ. मं. १०। सू. ६५। मं. ११ में यह स्पष्ट कर दिया कि ब्रह्म ने इस संसार को पहिले सूक्ष्मावस्था में बनाया और फिर स्थूलावस्था में मेघाकार, फिर पृथिवी, वनस्पति, ओषधि और फिर गवाश्वादिरूप से इस संसार की सृष्टि की ॥कई एक लोग उक्त मन्त्र के ये अर्थ करते हैं कि “दिवि रोहयन्तः” द्युलोक में आरोहण करते हुए और सूर्यलोक को आरोहण करते हुए “सुदानवः” दानशील लोग ब्रह्म=अन्न, गो, अश्वादि सृष्टि को (जनयन्तः) पैदा करते भये। इस अर्थ को न केवल सायणाचार्य ने किया है, किन्तु विलसन ग्रिफिथ इत्यादि यूरोपियन विद्वानों ने भी यही अर्थ किये हैं और वे लोग हेतु यह देते हैं कि “जनयन्तः” यह बहुवचन उक्त देवों में घट सकता है, ब्रह्म में नहीं। यदि उनसे यह पूछा जाय कि “आर्या व्रता विसृजन्त” इस वाक्य में “व्रता” का “व्रतानि” कैसे बना लिया और “आर्या” का “श्रेष्ठानि” कैसे बना लिया, तो उत्तर यही मिलेगा कि वेद में इस लौकिक व्याकरण का बल नहीं चलता। यदि इसी प्रकार लौकिक व्याकरण का त्याग करना है, तो “ब्रह्म” को कर्ता रखकर यह अर्थ क्यों न किया जाय कि ब्रह्म ने सम्पूर्ण पृथिवी-पर्वतादि पदार्थों को उत्पन्न किया। इस उदाहरण से हमारा तात्पर्य व्याकरण की लघुता करने का नहीं, किन्तु जो लोग व्याकरण का अन्यथा उपयोग करके वेदार्थ को बिगाड़ते हैं, उनकी भूल दूर करने का है। इसी प्रकार मं. १ सू० २४ मं ८। में “पन्थानं” के स्थान में वेद में “पन्थां” पाठ है और “सूर्यस्य” के स्थान में “सूर्याय” है। इसी प्रकार अनेक स्थलों में “विप्रेभिः” “प्रचैः” “रथीः” इत्यादि अनेक प्रयोग ऐसे पाए जाते हैं, जो अज्ञों के गर्व को भञ्जन करके वैदिक साहित्य के गर्व को स्थिर करते हैं। अस्तु–मुख्य प्रसङ्ग यह है कि “आशिरम्” हमारे आध्यात्मिक लक्ष्य की पूर्ति करनेवाला परमात्मा हममें कर्मयोगियों को उत्पन्न करके हमको कर्मयोगी तथा उद्योगी बनाये ॥५॥यह श्रीमद् आर्यमुनि के द्वारा उपनिबद्ध क्संहिताभाष्य के सातवें अष्टक में द्वितीय अध्याय समाप्त हुआ ॥
विषय
उत्तम ज्ञानवान् और अध्यक्ष का वर्णन।
भावार्थ
हे (सोम) उत्तम विद्वन् ! हे ऐश्वर्ययुक्त शासक ! तू (नृभिः पुनानः) नायक, सन्मार्ग नेता जनों, गुरुओं से (पुनानः) विद्याव्रतास्नानों या अभिषेकादि द्वारा पवित्र होकर (स्वस्तये) जनों के कल्याण के लिये (परि प्र धन्व) सब ओर राष्ट्र में परिव्राजक- वद् विचर। और (आशिरम्) सब प्रकार से सेवन करने योग्य ज्ञान-तत्व को (अभि वासय) सर्वत्र फैला। (ये) जो (ते) तेरे (मदाः) हर्ष-वर्धक उत्तम वचनों से सम्पन्न और (आहनसः) सब ओर से तुझे पीडित, दण्डित करने वाले गुरुजन और दुष्टों के नाश करनेवाले वीर पुरुष (विहायसः) अकाशवत् गुणों में महान् है (तेभिः) उनों द्वारा शिक्षित होकर (दातवे) दान देने के लिये (इन्द्रं मघम्) ऐश्वर्ययुक्त दातव्य ज्ञान धन को (चोदय) प्रेरित कर, उपदेश कर। इति त्रयस्त्रिंशो वर्गः॥ इति द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कविर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:– १, ३, ४ निचृज्जगती। २ पादनिचृज्जगती। ५ विराड् जगती॥
विषय
आहनसः विहायसः मदाः
पदार्थ
[१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! तू (स्वस्तये) = हमारे कल्याण के लिये (परिप्रधन्व) = शरीर में चारों ओर गतिवाला हो । (नृभिः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले मनुष्यों से (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ तू (आशिरम्) = [आ शृ] शरीर में चारों ओर न्यूनताओं को नष्ट करने की शक्ति को (अभिवासय) = बसा। अर्थात् शरीर, मन व बुद्धि कहीं भी कमी न रह जाये। [२] हे सोम ! ये जो (ते) = तेरे (आहनसः) = शत्रुओं को समन्तात् विनष्ट करनेवाले (विहायसः) = महान् (मदाः) = उल्लास हैं, (तेभिः) = उन उल्लासों के हेतु से तू (इन्द्रम्) = इस जितेन्द्रिय पुरुष को (मघं दातवे) = ऐश्वर्य के दान के लिये (चोदय) = प्रेरित कर । ऐश्वर्य के दान में विनियोग से ही ये 'मद' प्राप्त होते हैं । उपभोग में ऐश्वर्य का व्यय होने पर सोमरक्षण का सम्भव नहीं रहता, तज्जनित उल्लासों की तो कथा ही क्या ?
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम शरीर में शत्रुओं का विनाश करके महान् उल्लास को प्राप्त कराता है । इस उल्लास के लिये अथवा सोमरक्षण के लिये धनों का भोग में व्यय न करते हुए दान में विनियोग आवश्यक है। अगले सूक्त में भी 'कवि' ही 'पवमान सोम' का स्तवन करता है-
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma spirit of joy and victory of existence, radiate and come for the happiness and all round well being of life. Pure and purifying, exalted by the veteran wise, come and sanctify the beauty of life. With all those joyous gifts of yours which are mighty universal and radiant in the dynamics of existence, pray inspire Indra, the ruling soul, to create the honour, wealth and excellence of life and bless us with the highest bliss.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक केवळ परमात्म्याला शरण जातात, परमात्मा त्यांचे सदैव संपूर्णपणे रक्षण करतो कारण सर्वनियंता व सर्वांचा अधिष्ठाता एकमात्र तोच आहे. जसे पूर्वी आम्ही म्हटले आहे की ‘‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तद्ब्रह्म’’ तै. ३।१॥ ‘‘सर्वाणि वा इमानि भूतान्याकाशा देव समुत्पद्यन्ते आकाशं प्रत्यस्तं यन्त्याकाशोवा एभ्यो ज्यायानाकाश: परायणन्’’ छा. १।९।११। ‘‘ब्रह्मैवेदं विश्वम्’’ मुं २।२।११॥ ‘‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’’ छा. ३।१४।१ ‘‘आत्मैवेदं सर्वम्’’ छा. ७।२५।२॥ ‘‘पुरुष एवेदं सर्वम्’’ऋ. ८।४।१७।१॥ ‘‘स एवजात: स जनिष्यमाण:’’ यजु. ३२।४॥ ‘‘नित्यो नित्यानाम्’’ कठ. ५।१३॥ ‘‘नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मम्’’ मु. १।१।६॥ ‘‘सत्यं हैव ब्रह्म’’ बृ. ५।४।१॥ ‘‘ब्रह्मवादिनो हि प्रवदन्ति नित्यम्’’ श्वे. ३।२१॥ ‘‘यो विश्वस्य जगत: प्राणतस्पति:’’ ऋ. १।७।१२।५॥ ‘‘य: प्राणतो निमिषतो महित्वेक इद्राजा जगतो बभूव’’ ऋग्वेद ८।७।३।३ ‘‘यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति’’ अथ. १०।८।४।११॥ ‘‘ब्रह्मगामश्वं जनयन्त ओषधीर्वनस्पतीन्पृथिवीं पर्वताँ अप: । सूर्ये दिविगेहयन्त: सुदानव आर्या व्रत: विसृजन्तो अधिक्षमि’’ इत्यादी वेदोपनिषदांच्या वचनाद्वारे प्रसिद्ध आहे की परमात्माच सर्वांचे अधिष्ठान आहे. अधिष्ठान, अधिकरण, आश्रय ही एकाच अर्थाची नावे आहेत. त्याच परमात्म्याने या चराचरात्मक जगाला उत्पन्न केलेले आहे. ज्याला कोणी आश्चर्याने पाहात आहे, कोणी आश्चर्यरूपाने ऐकत आहे व कोणी या गूढ तत्त्वाला न समजून अज्ञानावस्थेत आहे; पण यात काही संशय नाही की यामुळे त्याच्या कर्तत्त्वाचा कोणी तिरस्कार करू शकत नाही अर्थात नास्तिकातला नास्तिक ही जेव्हा या गोष्टीचा विचार करतो की या विविध-रचना-संयुक्त या विश्वाला कोणी उत्पन्न केले, तेव्हा त्याची दृष्टी ही एखाद्या अद्भुत शक्तीवरच स्थिर होते.
टिप्पणी
हे विचार त्या लोकांचे आहेत जे ब्रह्माला तर्कगम्य मानतात व ज्या आस्तिक लोकांच्या विचाराने ब्रह्म शब्द-गम्य आहे. त्यांच्यासाठी प्रमाणान्तराची आवश्यकता नाही. त्यासाठी आम्ही ऋ मं. १०। सू. ६५ । मं. ११ मध्ये हे स्पष्ट केलेले आहे की ब्रह्माने या सृष्टीला प्रथम सूक्ष्मावस्थेत बनविले व पुन्हा स्थूलावस्थेत मेघाकार, नंतर पृथ्वी, वनस्पती, औषधी व नंतर गाई इत्यादी रूपाने या जगाची रचना केली. $ कित्येक लोक वरील मंत्राचा हा अर्थ करतात की ‘‘दिविरोहयन्त:’’ द्युलोकात आरोहण करत व ‘‘सूर्यलोकात’’ आरोहण करत ‘‘सुदानव’’ दानशील लोकांनी ब्रह्म=अन्न, गाय, अश्व इत्यादी सृष्टी (जनयन्त:) उत्पन्न केली. हा अर्थ सायणाचार्यानेच नव्हे तर विल्सन, ग्रीफ्थ इत्यादी युरोपियन-विद्वानांनी ही केलेला आहे व ते लोक हा हेतू दर्शवितात की ‘‘जनयन्त’’ हे बहुवचन वरील देवामध्ये लागू शकते, ब्रह्माला नाही. जर त्यांना हे विचारले की ‘‘आर्याव्रता विसृजन्त’’ या वाक्यात ‘‘व्रता’’चे ‘‘व्रतानि’’ कसे बनविले व ‘‘आर्या’’ चा ‘‘श्रेष्ठानि’’ कसे केले तर उत्तर हेच मिळेल की वेदात या लौकिक व्याकरणाचे बल चालत नाही. जर या प्रकारे लौकिक व्याकरणाचा त्याग करावयाचा आहे तर ‘‘ब्रह्माला’’ कर्ता मानून हा अर्थ का करू नये की ब्रह्माने संपूर्ण पृथ्वी-पर्वत इत्यादी पदार्थांना उत्पन्न केले. या उदाहरणाने आमचे तात्पर्य व्याकरणाला कमी लेखण्याचे कारण नाही; परंतु जे लोक व्याकरणाचा दुसऱ्या प्रकारे उपयोग करून वेदार्थ बिघडवितात. त्यांची चूक दुरुस्त करण्याचा आहे. याच प्रकारे मं.१ सूक्त २४ मं. ८ मध्ये ‘‘पन्थानं’’च्या ऐवजी वेदात पन्थां आहे व ‘‘सूर्यस्य’’च्या स्थानी ‘‘सूर्याय’’ आहे. याच प्रकारे अनेक स्थानी ‘‘विप्रोभि’’ ‘‘प्रचै:’’ ‘‘रथी:’’ इत्यादी अनेक प्रयोग असे दिसून येतात जे अज्ञ लोकांचा गर्व नष्ट करून वैदिक साहित्याचा गर्व स्थिर करतात. मुख्य गोष्ट ही आहे की ‘‘आशिरम्’’ आमच्या आध्यात्मिक लक्ष्याची पूर्ती करणाऱ्या परमात्म्याने आमच्यामध्ये कर्मयोग्यांना उत्पन्न करून आम्हाला कर्मयोगी व उद्योगी बनवावे. ॥५॥
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