Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 17 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - मन्त्रोक्ता छन्दः - त्रिपादार्षी गायत्री सूक्तम् - रुधिरस्रावनिवर्तनधमनीबन्धन सूक्त
    1

    परि॑ वः॒ सिक॑तावती ध॒नूर्बृ॑ह॒त्य॑क्रमीत्। तिष्ठ॑ते॒लय॑ता॒ सु क॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । व॒:‍। सिक॑ताऽवती । ध॒नू: । बृ॒ह॒ती । अ॒क्र॒मी॒त् । ‍तिष्ठ॑त । इ॒लय॑त । सु । क॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि वः सिकतावती धनूर्बृहत्यक्रमीत्। तिष्ठतेलयता सु कम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । व:‍। सिकताऽवती । धनू: । बृहती । अक्रमीत् । ‍तिष्ठत । इलयत । सु । कम् ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 17; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    नाडीछेदन [फ़सद् खोलने] के दृष्टान्त से दुर्वासनाओं के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (सिकतावती) सेचन स्वभाव [कोमल रखनेवाली] बालू आदि से भरी हुई (बृहती) बड़ी (धनूः) पट्टी ने (वः) तुम [नाड़ियों] को (परि अक्रमीत्) लपेट लिया है। (तिष्ठत) ठहर जाओ, (सु) अच्छे प्रकार (कम्) सुख से (इलयत) चलो ॥४॥

    भावार्थ

    १−(धनूः) अर्थात् धनु चार हाथ परिमाण को कहते हैं। इसी प्रकार की पट्टी से जो सूक्ष्म चूर्ण बालू से वा बालू के समान राल आदि औषध से युक्त होवे, उससे चिकित्सक घाव को बाँध देवे, कि रक्त बहने से ठहर जाये और घाव पुरकर सब नाड़ियाँ यथानियम चलने लगें, मन प्रसन्न और शरीर पुष्ट हो। २−मनुष्य कुमार्गगामिनी मनोवृत्तियों को रोककर यत्नपूर्वक हानि पूरी करे और लाभ के साथ अपनी वृद्धि करे और आनन्द भोगे ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−वः। युष्मान्, नाडीः। सिकतावती। पृषिरञ्जिभ्यां कित्। उ० ३।१११। इति सिक सेचने-अतच् टाप्। सेचनवती, कोमलस्वभावयुक्ता। वालुयुक्ता। धनूः। कृषिचमितनिधनिसर्जिखर्जिभ्य ऊः स्त्रियाम्। उ० १।८०। इति धन धान्योत्पादने, रवे च-ऊ। धनुः=चतुर्हस्तपरिमाणम्। तत्परिमाणवस्त्रपट्टी। बृहती। वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्जगच्छतृवच्च। उ० २।८४। इति बृह वृद्धौ−अति। ङीप्। महती। अक्रमीत्। क्रमु पादविक्षेपे−लुङ्। क्रान्तवती, व्याप्तवती। तिष्ठत। निवृत्तगतयो भवत। इलयत। इल गतौ। गच्छत, चेष्टध्वम्। कम्। सुखेन ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    खाँड व अन्न का मात्रा में प्रयोग

    पदार्थ

    १. हे नाड़ियो! (सिकतावती) = रेतवाले (बृहती धनू:) = इस विशाल [धनू-Store of grain] अन्नभण्डार ने (व:) = तुमपर (परि अकमीत्) = आक्रमण किया है। वस्तुतः अन्न के शरीर में ठीक से न पहुंचने पर नाड़ियों में विकार आता है। रेत के कारण पथरी आदि रोगों की आशंका हो जाती है। अन्न का अधिक प्रयोग भी अवाञ्छनीय प्रभावों को पैदा करता है। २. 'सिकता' शब्द मिश्री के लिए भी प्रयोग में आता है, सम्भवत: खाँड का अधिक प्रयोग भी नाडीचक्र के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं। ३. नाड़ीचक्र का थोड़ी देर के लिए ठहरना, प्रयोग के ठीक से हो जाने पर फिर कार्य करने लगना-यह शारीरिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है, अत: कहा गया है (तिष्ठत) = थोड़ी देर के लिए रुको। सब मलों के हटा दिये जाने पर पुन: (कम्) = सुख से (सु) = अच्छी प्रकार (इलयत) = प्रेरित-गतिवाली होओ। यह सब प्राणायाम की साधना से ही सम्भव है। प्राणायाम की साधना करनेवाला योगी सारे नाडीचक्र पर प्रभुत्व पा लेता है और नाड़ीचक्र के स्वास्थ्य से शरीर, मन व बुद्धि का उत्कर्ष करनेवाला हो जाता है।

    भावार्थ

    नाड़ीचक्र के स्वास्थ्य के लिए खाँड व अन्न के प्रयोग पर अत्यन्त ध्यान रखना आवश्यक है।

    सूचना

    इन सारे प्रयोगों को ठीक रूप में करनेवाला ब्रह्मा-ज्ञानी पुरुष इस सूक्त का ऋषि है। इस प्रयोगकर्ता के लिए अधिक-से-अधिक योग्य होना आवश्यक है। यह ठीक प्रयोग करके अशुभ लक्षणों को दूर करता है, शुभ लक्षणों को प्राप्त कराके सौभाग्य को प्राप्त करानेवाला है, अत: यह अगले सूक्त का ऋषि 'द्रविणोदा:' बनता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (वः) तुम्हारे (परि) सब ओर (सिकतावती) सिकतावाली (बृहती) बड़ी (धनू:) धनुष की आकृतिवालो अर्थात् वक्रा नाड़ी ने (अक्रमीत्) पादविक्षेप किया है । (तिष्ठत) तुम स्व-स्थानों में स्थित रहो, और (सु) अच्छे प्रकार से (कम्) सुखदायी होकर (इलयत) गति करती रहो और कम्पित होती रहो।

    टिप्पणी

    [सिकतावती= सिकता रजांसि, रजस्वला स्त्री के रजोधर्म की आधारभूता नाड़ी, यद्वा अश्मरी नामक व्याधि विशेषवाली नाड़ी (सायण)। मन्त्र का अभिप्राय अस्पष्ट है। इलयत=ईर गतौ कम्पने च ( अदादि:) । अथवा इल प्रेरणे (चुरादि:)। अश्मरी व्याधि= वस्ति अर्थात् मूत्राशय [Bladder ] में की पथरी: धनू:= मूत्राशयो धनुर्वक्रो वस्तिरित्यभिधीयते (सायण)।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    शरीर की नाडियों और स्त्रियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे नाडियो ? ( वः ) तुममें से ही एक ( धनूः ) धानुषाकार ( बृहती ) बडी ( सिकतावती ) रजोधर्म की नाडी ( परि अक्रमीत् ) गति कर रही है । ( तिष्ठत ) तुम सब अपने २ स्थान पर रहो और ( कं ) सुख ( सु ईलयत ) प्रदान करो, सुख की वृद्धि करो ।

    टिप्पणी

    शस्त्राघात या रजोधर्म से अधिक बहते हुऊ रुधिर की चिकित्सा के समय इसका विनियोग कौशिक सूत्रों में है। बहते जखम पर सूखी मिट्टी की ढेली रखने आदि का उपदेश है । परन्तु इन मन्त्रों में वेद ने केवल नाडियों की शरीर में स्थितिमात्र का उपदेश किया है । जैसे लिखा है कि:- मध्यस्थायाः सुषुम्नायाः पर्वपञ्चकसम्भवाः । शाखोपशाखतां प्राप्ताः सिरालक्षत्रयात् परम् । अर्धलक्षम् इति प्राहुः शरीरार्थविचारकाः ॥ चिकित्सक को चाहिये कि रक्त प्रवाह के अवसर पर इन नाडियों की स्थिति को पहचाने और तव ठीक २ चिकित्सा करे । जो सूक्ष्म और स्थूल नाडियों की स्थिति को नहीं जानता वह चिकित्सा में ही रोगी के प्राण लेलेता है। इस सूक्त का देवता ‘योषितः’ भी है इसलिये उपमान और उपमेय में समान धर्म होने से इस सूक्त का अर्थ स्त्रियों के पक्ष में इस प्रकार है। (१) (लोहितवाससः ) रक्त का जिनमें निवास है ऐसी (हिराः) नाडियों की तरह ( याः अमूः ) वे ( योषितः ) विवाहित स्त्रियां ( यन्ति ) सदा गति करती रहती हैं और ( अभ्रातर इव जामयः ) बिना भर्त्ता वा भाई की स्त्रियां वा बहनें ( हतवर्चसः ) जिनमें रक्त नष्ट हो चुका है ऐसी नाडियों की तरह नष्ट तेज होकर ( तिष्ठन्तु ) घर में ही बैठी रहती हैं । (२) ( अवरे तिष्ठ, परे तिष्ठ, मध्यमे त्वं तिष्ठ, कनिष्ठिका च तिष्ठति, तिष्ठात् इत् मही धमनिः ) छोटी, बड़ी, मझली और सबसे छोटी और सबसे बडी, सभी अपने अपने नियत कार्यों में स्थित रहें अपने २ कार्य की मर्यादा का कोई उल्लंघन न करे । (३) ( धमनीनां शतस्य, सिराणां सहस्रस्य, इमाः मध्यमाः अस्थुः, साक्रम् अन्ताः अरंसत ) सैंकडों बड़ी, हजारों छोटी और बीच की स्त्रियां गृहस्थ में अपने अपने कार्यों में स्थित रहें । और ( अन्ताः ) और गृह के अन्दर रहने वाली ये सब परस्पर आनन्दित रहें। ( ४ ) ( वः सिकतावती, धनुः बृहती अक्रमीत् तिष्ठत सु ईलयत, कम् ) तुममें से सिकतावती नाडी के सदृश जो बडी स्त्री है उस का भय धनुष की न्याई तुम सब पर सदा बना रहे, और वह तुम्हारे नियत कार्यों को देखने के लिये घूमती रहे और तुम अपने अपने कार्यों में स्थित रहो। इस प्रकार घर में सुख की प्रेरणा करो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः । योषितो लोहितवाससो हिरा वा मन्त्रोक्ता देवताः। १ भुरिक् अनुष्टुप् २, ३ अनुष्टुप्। ४ त्रिपदा आर्षी गायत्री चतुऋचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Stop Bleeding

    Meaning

    Among you and above you is a bow shaped large one, abundant in blood, stopped by presence of sediment. Let all now work at peace (after the treatment).

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    A large surface (dhanuh) of granules has come up around you. Let you keep quiet and rest in happiness.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Among these nerves is the large nerve which flooded with blood like an arch-bow crosses the others. Let these nerves do their work in their region and yield happiness.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O veins, a big bandage full of soothing sand, hath circled and encompassed you. Stop bleeding, and quietly take rest.

    Footnote

    A bandage full of softening and soothing sand placed on a wound stops bleeding.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−वः। युष्मान्, नाडीः। सिकतावती। पृषिरञ्जिभ्यां कित्। उ० ३।१११। इति सिक सेचने-अतच् टाप्। सेचनवती, कोमलस्वभावयुक्ता। वालुयुक्ता। धनूः। कृषिचमितनिधनिसर्जिखर्जिभ्य ऊः स्त्रियाम्। उ० १।८०। इति धन धान्योत्पादने, रवे च-ऊ। धनुः=चतुर्हस्तपरिमाणम्। तत्परिमाणवस्त्रपट्टी। बृहती। वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्जगच्छतृवच्च। उ० २।८४। इति बृह वृद्धौ−अति। ङीप्। महती। अक्रमीत्। क्रमु पादविक्षेपे−लुङ्। क्रान्तवती, व्याप्तवती। तिष्ठत। निवृत्तगतयो भवत। इलयत। इल गतौ। गच्छत, चेष्टध्वम्। कम्। सुखेन ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (3)

    पदार्थ

    হে নাড়ী! (সিকতবেতী) সেচন স্বভাব বালু আদি দ্বারা পরি পূরিত (বৃহতী) বৃহৎ (ধনূঃ) চারি হস্ত পরিমিত পটী দ্বারা (বঃ) তোমাদিগকে (পরি অক্রমীৎ) বাধা হইয়াছে। (তিষ্ঠত) স্থির হও (সু) ভালো-ভাবে (কং) সুখে (ইলয়ত) চল।

    भावार्थ

    হে নাড়ী! সেচন স্বভাব বালু আদি দ্বারা পরি পূরিত বৃহৎ চারি হস্ত পরিমিত পটী দ্বারা তোমাদিগকে বন্ধন করা হইয়াছে। তোমার স্থির হও, ভালোভাবে চল।।
    বৈদ্য সূক্ষ্ম বালুচূর্ণ ও ঔষধ সহিত পটী দ্বারা ক্ষতস্থান বাধিয়া দিবে। ক্ষত শুষ্ক হইলে পুনরায় শিরা যথা নিয়মে চলিতে থাকিবে।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    পরি বঃ সিকতাবতী ধনুবৃহত্যক্রমীৎ। তিষ্ঠতে লয়তা সুকম্।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    ব্রহ্মা। যোষিতো ধমন্যশ্চ। ত্রিপদার্ষী গায়ত্রী

    इस भाष्य को एडिट करें

    मन्त्र विषय

    (নাডীছেদনদৃষ্টান্তেন কুবাসনানাশঃ) নাড়ীছেদনের দৃষ্টান্ত দ্বারা দুর্বাসনাসমূহের নাশের উপদেশ

    भाषार्थ

    (সিকতাবতী) সেচন স্বভাব [কোমলকারী] বালু প্রভৃতি দ্বারা পূর্ণ (বৃহতী) বৃহৎ (ধনূঃ) পট্টি (বঃ) তোমাকে [নাড়ীসমূহকে] (পরি অক্রমীৎ) লিপ্ত করেছে। (তিষ্ঠত) স্তব্ধ হও/থেমে যাও, (সু) উত্তম প্রকারে (কম্) সুখপূর্বক (ইলয়ত) চলো ॥৪॥

    भावार्थ

    ১−(ধনূঃ) অর্থাৎ ধনু চার হাত পরিমাণকে বলা হয়। এরূপ পট্টি দ্বারা যে সূক্ষ্ম চূর্ণ বালু থেকে অথবা বালুর ন্যায় ধুনা প্রভৃতি ঔষধ দ্বারা যুক্ত হবে, তার দ্বারা চিকিৎসক ক্ষতকে বেঁধে দেবেন। কারণ এতে রক্ত নির্গমন থেমে যাবে এবং ক্ষত ঠিক হয়ে সকল নাড়ী যথানিয়মে কাজ করা শুরু করবে, মন প্রসন্ন এবং শরীর পুষ্ট হবে। ২−মনুষ্য কুমার্গগামিনী মনোবৃত্তিসমূহকে রুদ্ধ করে যত্নপূর্বক ক্ষতি পূরণ করবে এবং লাভের সাথে নিজের বৃদ্ধি করবে এবং আনন্দ ভোগ করবে॥৪॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (বঃ) তোমার (পরি) সবদিকে (সিকতাবতী) সিকতাবতী/রজোধর্মের নাড়ি (বৃহতী) বড়ো/বৃহৎ (ধনূঃ) ধনুকের আকৃতির অর্থাৎ বক্র নাড়ী (অক্রমীৎ) গতি করছে/চলছে। (তিষ্ঠত) তোমরা স্ব-স্থানে স্থিত থাকো, এবং (সু) উত্তমরূপে (কম) সুখদায়ী হয়ে (ইলয়ত) চলতে থাকো এবং কম্পিত হতে থাকো।

    टिप्पणी

    [সিকতাবতী=সিকতা রজাঁসি, রজস্বলা স্ত্রী এর রজোধর্মের আধারভূতা নাড়ি, যদ্বা অশ্মরী নামক ব্যাধি বিশেষ নাড়ি (সায়ণ)। মন্ত্রের অভিপ্রায় অস্পষ্ট। ইলয়ত= ঈর গতৌ কম্পনে চ (অদাদিঃ)। অথবা ইল প্রেরণে (চুরাদিঃ)। অশ্মরী ব্যাধি=বস্তি অর্থাৎ মূত্রাশয় [Bladder] এ পাথর; ধনূঃ= মূত্রাশয়ো ধনুর্বক্রো বস্তিরিত্যভিধীয়তে (সায়ণ)।]

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top