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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
    ऋषिः - द्रविणोदाः देवता - विनायकः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अलक्ष्मीनाशन सूक्त
    1

    रिश्य॑पदीं॒ वृष॑दतीं गोषे॒धां वि॑ध॒मामु॒त। वि॑ली॒ढ्यं॑ लला॒म्यं ता अ॒स्मन्ना॑शयामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रिश्य॑ऽपदीम् । वृष॑ऽदतीम् । गो॒ऽसे॒धाम् । वि॒ऽध॒माम् । उ॒त । वि॒ऽली॒ढ्यम् । ल॒ला॒म्यम् । ता: । अ॒स्मत् । ना॒श॒या॒म॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रिश्यपदीं वृषदतीं गोषेधां विधमामुत। विलीढ्यं ललाम्यं ता अस्मन्नाशयामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रिश्यऽपदीम् । वृषऽदतीम् । गोऽसेधाम् । विऽधमाम् । उत । विऽलीढ्यम् । ललाम्यम् । ता: । अस्मत् । नाशयामसि ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के लिये धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (रिश्यपदीम्) हरिण के समान [बिना जमाये शीघ्र] पद की चेष्टा, (वृषदतीम्) बैल के समान दाँत चबाना, (गोषेधाम्) बैल की सी चाल, (उत) और (विधमाम्) बिगड़ी भाथी [धोंकनी] के समान श्वासक्रिया, (ललाम्यम्=०-मीम्) रुचि नाश करनेहारी (विलिढ्यम्=०-ढिम्) चाटने की बुरी प्रकृति, (ताः) इन सब [कुचेष्टाओं] को (अस्मत्) अपने से (नाशयामसि=०-मः) हम नाश करें ॥४॥

    भावार्थ

    सब स्त्री-पुरुष मनुष्यस्वभाव से विरुद्ध कुचेष्टाओं को छोड़कर विद्वानों के सत्सङ्ग से सुन्दर स्वभाव बनावें और मनुष्यजन्म को सुफल करके आनन्द भोगें ॥४॥

    टिप्पणी

    टिप्पणी−सायणभाष्य में (रिश्यपदीम्) के स्थान में (ऋष्यपदीम्) पाठ है। और जो (विलीढ्यम्, ललाम्यम्) पदों को नपुंसकलिङ्ग माना है, वह अशुद्ध है, क्योंकि मन्त्र में (ताः) स्त्रीलिङ्ग सर्वनाम होने से ऊपर के सब छह पद स्त्रीलिङ्ग हैं ॥ ४−रिश्य-पदीम्। रिश हिंसे-क्यप्। रिश्यते हिंस्यते−इति रिश्यः मृगः। पादस्य लोपोऽहस्त्यादिभ्यः। पा० ५।४।१३८। इति पादस्य अन्त्यलोपः। पादोऽन्यतरस्याम्। पा० ४।१।८। इति ङीप्, भसंज्ञायां पादः पत्। पा० ६।४।१३०। इति पद्भावः। हरिणपदवद् गतिं कुचेष्टाम्। वृष-दतीम्। अग्रान्तशुद्धशुभ्रवृषवराहेभ्यश्च। पा० ५।४।१४५। इति दन्तशब्दस्य दतृ आदेशः। उगितश्च। पा० ४।१।६। इति ङीप्। वृषदन्तवत् क्रियायुक्तां कुचेष्टाम्। गो-सेधाम्। षिधु गत्याम्−पचाद्यच्। टाप्। वृषभवद् गतिं चेष्टां वि-धमाम्। वि विकृतौ+ध्मा, धम वा, दीर्घश्वासहेतुके शब्दभेदे−अच्। टाप्। विधमावद् विकृत-भस्त्रावत् श्वासक्रियाम्। विलीढ्यम्। वि विकृतौ+लिह आस्वादने+क्तिन्। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति अमि पूर्वरूपाभावे। इको यणचि। पा० ६।१।७७। इति यण् आदेशः। उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोऽनुदात्तस्य। पा० ८।२।४। इति यणः परतोऽनुदात्तस्य स्वरितः। विलीढिम्, विकृतास्वादनचेष्टाम्। ललाम्यम्। म० १। ललामीम्, रुचिनाशिनीम्। ताः। पूर्वोक्ताः कुचेष्टाः। नाशयामसि। णश अदर्शने−णिच्। मस इदन्तत्वम्। नाशयामः, दूरीकुर्मः ॥

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    विषय

    विकार-विनाश

    पदार्थ

    १. (रिश्यपदीम्) = हरिण के समान टौंगोवाली-हरिण की टाँगे पतली व भद्दी प्रतीत होती हैं, अतः यह टाँगों का एक अशुभ लक्षण है। (वृषदतीम्) = बैल के समान दाँतोवाली-बैल के समान बड़े-बड़े दाँत चेहरे के सब सौन्दर्य को समाप्त कर देते हैं, छोटे-छोटे दाँत ही सुन्दर प्रतीत होते हैं। (गोषेधाम) = [सेधतिर्गत्यर्थः] गौ के समान चालवाली को-गौ या बैल इधर-उधर कुछ हिलते हुए आगे बढ़ते हैं। यह झूमती हुई चाल भी अनिष्ट है (उत) = और (विधमाम्) = [ध्मा-शब्द] विकृत शब्दवाली-भिन्न-कांस्य स्वरवाली (ता:) = उन सबको उन सब विकृतियों को (अस्मत) = हमसे (नाशयामसि) = नष्ट करते हैं। इसके साथ (ललाम्यम्) = मस्तिष्क में होनेवाले (विलीळयम्) = गजेपन को [बालों को चाटे जाने को] भी हम अपने से दूर करते हैं। 'रिश्यपदी व वृषदती' दोनों शब्द टॉगों व दाँतों की समानुपातता के अभाव को प्रतिपादित करते हैं। 'गोषेधा व विधमा' शब्द चाल व शब्द की क्रियाओं के विकार को सूचित करते हैं। मस्तक का गंजापन कुछ भद्देपन की गन्ध देता है। इन सब विकारों को दूर करना अभीष्ट है। सौन्दर्य का निर्भर विकारों के न होने में ही है।

    भावार्थ

    हम आकार की आनुपातिकता के न होने से-क्रियाओं की विकृति से तथा अभीष्ट स्थान पर बालों के न होने से होनेवाले असौभाग्य को दूर करें। प्रभुकृपा से सौभाग्यरूप द्रविण को प्राप्त करें।

    विशेष

    अठारहवें सूक्त के दो भाग हैं। एक भाग वह है जिसमें अशुभ लक्षणों का प्रतिपादन है और दूसरा भाग वह है जिसमें उन लक्षणों को दूर करने के उपायों का प्रतिपादन है। ये दोनों भाग मिश्र-से अवश्य हैं, परन्तु अत्यन्त स्पष्ट हैं। क्या शरीर के विकार और क्या मन के विकार सभी निर्माणात्मक कार्यों में लगे रहने से, द्वेष न करने से, स्नेह से, काम-क्रोध लोभ को काबू करने से, अनुकूल मति से, अनुकूल आत्मप्रेरणा से दूर होते हैं। विकारों का दूर होना ही सौभाग्य-प्राप्ति है।

    इस सौभाग्य-प्राप्ति के लिए अपने-आपको शत्रुओं के आक्रमण से बचाना आवश्यक है, अत: अग्रिम सूक्त में इसी बात का उल्लेख है। सब बुराइयों को दूर करके यह 'ब्रह्मा' बनता है, ब्रह्मा ही इस सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (रिश्यपदीम्) हिरण के पैरोंबाली को, (वृषदतीम्) बैल के सदृश लम्बे दान्तोंवाली को, (गोषेधाम् ) गौ के सदृश शनैः-शनैः चलनेवाली को, (उत विधमाम्) तथा कल्कारादि विविध शब्द करनेवाली को (सायण)(विलीढ्यम्१-बिलीढीम्) विकृत१ स्वादोंवाली को, (ललाम्यम् =ललामीम् ) सौन्दर्यं प्रिया को, (ताः) उन सबको (अस्मत् ) हम अपने से (नाशयामसि) अदृष्ट करते हैं, इनसे विवाह नहीं करते।

    टिप्पणी

    [रिश्यपदीम् = हिरण के सदृश छोटे पैरोंबाली को। गोषेधाम्= गौ + षिधु गत्याम् (भ्वादिः)। ललामीम्= जो अपने सौन्दर्य के लिए लगी रहे, अपने को सदा संवारणे में दत्तचित्ता रहे। नाशयामसि = णश अदर्शने (दिवादिः)।] [१. अथवा विविध प्रकार के आस्वाद चाहने वाली चटोरी को। वि+ लिह ( आस्वादने) (अदादिः)।]

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    विषय

    विवाह योग्य और अविवाह योग्य स्त्रियां।

    भावार्थ

    ( रिश्यपदीं ) मृग की तरह पैरों से चञ्चल, (वृषदतीं) बेल के समान दातों वाली अर्थात् सदा खाते रहने वाली, (गो-सेधां) गाय के समान कद में छोटी, ( विधमाम् ) क्रोध की धोकनी रूप, (विलीढ्यम्) कुछ न कुछ सदा चाटते रहने की आदत वाली ऐसी स्त्री को (अस्मत्) अपने से (नाशयाससि) हम सदा हटावें, चाहे वह देखने में सुन्दर भी क्यों न हो ।

    टिप्पणी

    ‘ऋष्यपदीम्’ इति पाठ: सायणाभिमतः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    द्रविणोदाः ऋषिः। विनायको देवता। १ उपरिष्टाद् विराड् बृहती, २ निचृज्जगती, ३ विराड् आस्तारपंक्तिः त्रिष्टुप् । ४ अनुष्टुप् । चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Planning and Prosperity

    Meaning

    We remove from our midst offensive movements, arrogance and bullying, violent cursing and swearing, bellow breathing, chattering and flattering, and pretentious delicacy of manners and behaviour. (We care for the manners and behaviour of a civilised society.)

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    Translation

    The antelope-foot, the bull-tooth, the cow terrifier the blowing, the large licking lip and the pallid deformity, all this, we remove from us.

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    Translation

    We drive away from our midst those harmful tendencies which are alike the habit of deer, the chewing of bull, the movement of cow, the working of the bad bellows, activity of forquent licking and the habit of adulterine decency.

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    Translation

    We should always refrain from marrying girls, unsteady, like the feet of an antelope, mighty-toothed like a bull, pigmy-sized like a cow, blowing hot with anger like the bellows, ever licking something, however beautiful, charming and lovely they may be.

    Footnote

    “Mighty-toothed” means voracious. Griffith interprets etc., as names or epithets of sorceresses, witches or female fiends of various forms. This is not so rational an interpretation. Professor. Geldner argues that the subject of the hymn is some semidomesticated animal in all probability a house cat. This is a far-fetched and inappropriate explanation. The verse refers to girls who should not be accepted in marriage.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    टिप्पणी−सायणभाष्य में (रिश्यपदीम्) के स्थान में (ऋष्यपदीम्) पाठ है। और जो (विलीढ्यम्, ललाम्यम्) पदों को नपुंसकलिङ्ग माना है, वह अशुद्ध है, क्योंकि मन्त्र में (ताः) स्त्रीलिङ्ग सर्वनाम होने से ऊपर के सब छह पद स्त्रीलिङ्ग हैं ॥ ४−रिश्य-पदीम्। रिश हिंसे-क्यप्। रिश्यते हिंस्यते−इति रिश्यः मृगः। पादस्य लोपोऽहस्त्यादिभ्यः। पा० ५।४।१३८। इति पादस्य अन्त्यलोपः। पादोऽन्यतरस्याम्। पा० ४।१।८। इति ङीप्, भसंज्ञायां पादः पत्। पा० ६।४।१३०। इति पद्भावः। हरिणपदवद् गतिं कुचेष्टाम्। वृष-दतीम्। अग्रान्तशुद्धशुभ्रवृषवराहेभ्यश्च। पा० ५।४।१४५। इति दन्तशब्दस्य दतृ आदेशः। उगितश्च। पा० ४।१।६। इति ङीप्। वृषदन्तवत् क्रियायुक्तां कुचेष्टाम्। गो-सेधाम्। षिधु गत्याम्−पचाद्यच्। टाप्। वृषभवद् गतिं चेष्टां वि-धमाम्। वि विकृतौ+ध्मा, धम वा, दीर्घश्वासहेतुके शब्दभेदे−अच्। टाप्। विधमावद् विकृत-भस्त्रावत् श्वासक्रियाम्। विलीढ्यम्। वि विकृतौ+लिह आस्वादने+क्तिन्। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति अमि पूर्वरूपाभावे। इको यणचि। पा० ६।१।७७। इति यण् आदेशः। उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोऽनुदात्तस्य। पा० ८।२।४। इति यणः परतोऽनुदात्तस्य स्वरितः। विलीढिम्, विकृतास्वादनचेष्टाम्। ललाम्यम्। म० १। ललामीम्, रुचिनाशिनीम्। ताः। पूर्वोक्ताः कुचेष्टाः। नाशयामसि। णश अदर्शने−णिच्। मस इदन्तत्वम्। नाशयामः, दूरीकुर्मः ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (রিশ্যপদীং) হরিণের পদের ন্যায় শীঘ্র গতি (বৃষদতীং) বৃষের দন্তের ন্যায় চর্বণ (গো সেধাং) বলদের ন্যায় আচরণ আচরণ (উত) এবং (বিঘমাং) বিকৃত মস্তিষ্কের ন্যায় শ্বাস ক্রিয়া (ললাম্যং) রুচি নাশক (বিলীঢ্যং) লেহন প্রবৃত্তি (তাঃ) এই সবকে (অস্মাৎ) নিজেদের মধ্য হইতে (নাশয়ামসি) আমরা নাশ করি।।

    भावार्थ

    হরিণের ন্যায় চঞ্চল গতি, বৃষের ন্যায় উগ্র চর্বণ, বলদের ন্যায় অশিষ্ট আচরণ, বিকৃত মস্তিষ্ক ব্যক্তির ন্যায় অনিয়মিত শ্বাসক্রিয়া, রুচিনাশক লেহন প্রবৃত্তি-এই সব বদাভ্যাসকে আমরা নিজেদের মধ্য হইতে দূরীভূত করি।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    রিশ্যপদীং বৃষদতীং গোষে ধাং বিধমামুত। বিরাঢ্যং ললাম্যং ১ তা অস্মন্নাশয়ামসি।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    দ্রবিণোদাঃ। সবিত্রাদয়ো মন্ত্রোক্তাঃ। অনুষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (রাজধর্মোপদেশঃ) রাজার জন্য ধর্মের উপদেশ

    भाषार्थ

    (রিশ্যপদীম্) হরিণের ন্যায় [বিনা অপেক্ষায় শীঘ্র] পদের চেষ্টা, (বৃষদতীম্) বলদের ন্যায় দাঁত চর্বণকারী, (গোষেধাম্) ষাঁড়ের সদৃশ গতিবিশিষ্ট (উত) এবং (বিধমাম্) নষ্ট হাপরের ন্যায় শ্বাসক্রিয়া, (ললাম্যম্=০-মীম্) রুচি বিনাশকারী (বিলিঢ্যম্=০-ঢিম্) অবলেহ-এর কুপ্রকৃতি, (তাঃ) এইসব [কুচেষ্টাকে] (অস্মৎ) নিজেদের থেকে (নাশয়ামসি=০-মঃ) আমরা নাশ করি ॥৪॥

    भावार्थ

    সকল স্ত্রী-পুরুষ মনুষ্যস্বভাবের বিরুদ্ধ কুচেষ্টাসমূহকে ত্যাগ করে বিদ্বানদের সৎসঙ্গ দ্বারা সুন্দর স্বভাব তৈরি করবে/করুক এবং মনুষ্যজন্মকে সফল করে আনন্দ ভোগ করবে/করুক॥৪॥ টিপ্পণী−সায়ণভাষ্যে (রিশ্যপদীম্) এর স্থানে (ঋষ্যপদীম্) পাঠ রয়েছে। এবং যে (বিলীঢ্যম্, ললাম্যম্) পদ রয়েছে, তাকে নপুংসকলিঙ্গ মানা হয়েছে, তা মূলত অশুদ্ধ। কেননা মন্ত্রে (তাঃ) স্ত্রীলিঙ্গ সর্বনাম হওয়ার কারণে উপরের সব ছয়টি পদ স্ত্রীলিঙ্গ॥

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    भाषार्थ

    (রিশ্যপদীম) হরিণের মতো পদবিশিষ্টকে, (বৃষদতীম) বলদের মতো লম্বা দন্তবিশিষ্টকে, (গোষেধাম্) গোরুর সদৃশ ধীরে-ধীরে গমনকারীকে, (উত বিধমাম্) তথা কল্কারাদি বিবিধ শব্দকারীকে (সায়ণ) (বিলীঢ্যম্১=বিলীঢীম্) বিকৃত২ স্বাদের, (ললাম্যম্ =ললামীম্) সৌন্দর্য প্রিয়াকে, (তাঃ) এঁদের (অস্মৎ) আমরা নিজেদের থেকে (নাশয়ামসি) অদৃষ্ট করি, এঁদের সাথে বিবাহ করিনা।

    टिप्पणी

    [রিশ্যপদীম্ = হরিণের সদৃশ ছোটো পাবিশিষ্টকে গোষেধাম্ = গৌ+ষিধু গত্যাম্ (ভ্বাদিঃ)। ললামীম্ = যে নিজের সৌন্দর্যের জন্য লেগে থাকে, নাশয়ামসি= ণশ অদর্শনে (দিবাদিঃ)।] [২. অথবা বিবিধ প্রকারের আস্বাদ প্রার্থনাকারীকে। বি+লিহ (আস্বাদনে) (অদাদিঃ)। ]

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