अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 2
ऋषिः - शन्तातिः
देवता - चन्द्रमाः, आपः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आपः सूक्त
1
यासां॒ राजा॒ वरु॑णो॒ याति॒ मध्ये॑ सत्यानृ॒ते अ॑व॒पश्य॒ञ्जना॑नाम्। या अ॒ग्निं गर्भं॑ दधि॒रे सु॒वर्णा॒स्ता न॒ आपः॒ शं स्यो॒ना भ॑वन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठयासा॑म् । राजा॑ । वरु॑ण: । याति॑ । मध्ये॑ । स॒त्या॒नृ॒ते इति॑ स॒त्य॒ऽअ॒नृ॒ते । अ॒व॒ऽपश्य॑न् । जना॑नाम् । या: । अ॒ग्निम् । गर्भ॑म् । द॒धि॒रे । सु॒ऽवर्णा॑: । ता: । न॒: । आप॑: । शम् । स्यो॒ना: । भ॒व॒न्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यञ्जनानाम्। या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठयासाम् । राजा । वरुण: । याति । मध्ये । सत्यानृते इति सत्यऽअनृते । अवऽपश्यन् । जनानाम् । या: । अग्निम् । गर्भम् । दधिरे । सुऽवर्णा: । ता: । न: । आप: । शम् । स्योना: । भवन्तु ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सूक्ष्म तन्मात्राओं का विचार।
पदार्थ
(यासाम्) जिन तन्मात्राओं के (मध्ये) बीच में (वरुणः) सर्वश्रेष्ठ (राजा) राजा परमेश्वर (जनानाम्) सब जन्मवाले जीवों के (सत्यानृते) सत्य और असत्य को (अवपश्यन्) देखता हुआ (याति) चलता है। (याः) जिन (सुवर्णाः) सुन्दर रूपवाली (आपः) तन्मात्राओं ने (अग्निम्) बिजुलीरूप अग्नि को (गर्भम्) गर्भ के समान (दधिरे) धारण किया था, (ताः) वे [तन्मात्राएँ] (नः) हमारे लिये (शम्) शुभ करनेहारी और (स्योनाः) सुख देनेवाली (भवन्तु) होवें ॥२॥
भावार्थ
इन तन्मात्राओं का नियन्ता अर्थात् संयोजक और वियोजक (वरुण राजा) परमेश्वर है, वही सब जीवों के पुण्य-पाप को देखकर यथावत् फल देता है। इनके गुणों से उपकार लेकर मनुष्यों को सुख भोगना चाहिये ॥२॥
टिप्पणी
२−यासाम्। अपाम् तन्मात्राणाम्। राजा। १।१०।१। ईश्वरः। नियन्ता। वरुणः। १।३।३। वृणोति सर्वं, व्रियते अन्यैरिति वरुणः। सर्व−वरणीयः परमेश्वरः। याति। गच्छति। व्याप्नोति। मध्ये। अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। इति मन ज्ञाने-यक्, नस्य धः। अन्तर्वर्त्तिनि भागे। सत्य-अनृते। सद्भ्यो हितम्। सत्-यत्। सत्यं, यथार्थं, तथ्यम्। न ऋतम्। अनृतम् असत्यम्, मिथ्याकरणम्, सत्यं च असत्यं च उभे कर्मणी। अव-पश्यन्। दृशिर्-शतृ। अवलोकयन् विजानन्। जनानाम्। १।८।१। जन्मवतां लोकानाम्। अन्यद् गतम् म० १ ॥
विषय
'वरुण' के जल
पदार्थ
१. जलों का अधिष्ठातृदेव 'वरुण' कहलाता है। यह अशुभ का निवारण करनेवाला है। यह शरीर से रोगों को दूर करता है तो मन से अनृत को हटाता है। ये (वरुण:) = वरुण (जनानां मध्ये याति) = मनुष्यों के मध्य में विचरते हैं-विद्यमान हैं, (सत्यानुते अवपश्यन्) = उनके सत्य व अनृतों को देख रहे हैं। इसप्रकार ये हमें अनृत से पृथक् करते हैं और सत्य से संयुक्त करते हैं। ये वरुण (यासां राजा) = जिन जलों के अधिष्ठातदेव हैं और (या:) = जो जल (अनि गर्भ दधिरे) = अनि को अपने मध्य में धारण करते हैं, (सुवर्णा:) = उत्तम वर्णवाले हैं (ताः आप:) = वे जल (न:) = हमारे लिए (शम्) = शान्ति देनेवाले व (स्योना:) = सुखकर (भवन्तु) = हों। २. जलों के अधिष्ठातृदेव को वरुण कहा गया है। वरुण 'निवारक' हैं-दोषों का निवारण करके हमें श्रेष्ठ बनानेवाले हैं। जल भी हमारे रोगों का निवारण करके हमें स्वास्थ्य प्रदान करते हैं और क्रोधादि को दूर करके शान्तिलाभ कराते हैं। सामान्यतः उस पानी का पीने में प्रयोग अधिक हितकर है जिसे उबाल लिया गया है, जिसे अग्रिगर्भ बना लिया गया है।
भावार्थ
जलों का राजा 'वरुण' है-दोषों का निवारक, अत: ये जल दोषों के निवारक क्यों न हों?
भाषार्थ
(यासाम् मध्ये) जिन आप: के मध्य में, (जनानाम् ) जनों के (सत्यानृते अव पश्यन्) सत्य तथा अन्त व्यवहारों को देखता हुआ (राजा वरुणः) जगत् का राजा वरुण अर्थात् पापनिवारक परमेश्वर (याति) विचरता है। (याः) जिन (सुवर्णाः) उत्तम वर्णवाले आप: में (अग्निम्) अग्नि को (गर्भम् दधिरे) गर्भ रूप में धारण किया है (ता:) वे आप: ( नः) हमें (शम्) शान्तिप्रद तथा (स्योनाः) सुखदायक (भवन्तु) हों।
टिप्पणी
[आपः हैं हृदयस्थ आपः (अथर्व० १०।२।११ )।' परमेश्वर-वरुण इन आपः में विचर रहा है। ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति (गीता)। इन आप: ने अग्निः नाम के परमेश्वर को गर्भरूप में धारण किया हुआ है। अग्नि दाहक है, परमेश्वर वरुण भी पापदाहक है। इसे दर्शाने के लिए वरुण को अग्निरूप कहा है। परमेश्वर का नाम अग्नि भी है (यजु:० ३२।१)।]
विषय
मूलकारण ‘आपः’ और आप्तजनों का वर्णन
भावार्थ
( यासां ) जिनके ( मध्ये ) बीचमें (राजा) सब का अनुरंजन करने वाला या प्रकाशमान (वरुणः) सबसे श्रेष्ठ राजा या उस के समान वरण करने योग्य प्रभु ( जनानां ) समस्त प्राणियों के ( सत्यानृते ) सत्य और असत्य, पारमार्थिक और व्यावहारिक कर्मों को ( अव पश्यन् ) देखता हुआ ( याति ) क्रिया करता या कर रहा है और ( याः ) जो ( सुवर्णाः ) उत्तम वर्ण वाले ( आपः ) ‘आपः’ आप्तजन ( गर्भं ) अपने को ग्रहण करने में समर्थ ( अग्निं ) अग्नि को ( दधिरे ) धारण करते हैं ( ता:-आपः ) वे आप्तजन ( नः ) हमें ( शं, स्योनाः ) कल्याणकारी और सुखकारी (भवन्तु ) हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
‘सर्वकारणमाप’ इति ज्ञानवान् शंतातिर्ऋषिः । चन्द्रमा उत आपो देवताः । त्रिष्टुप् छन्दः । चतुऋचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
for Peace
Meaning
In the midst of primeval waters pervades Varuna, supreme lord of judgement who watches the truth and untruth of the life of human souls emerging into their next round of existence. The waters hold within themselves the vital heat that makes life possible and sustains it. May these waters of golden hue be full of peace, grace and bliss for us.
Translation
Amidst whom the venerable sovereign goes over-seeing the truth and the untruth of men; those of beautiful colours that conceived the fire in their womb, may those elemental waters be gracious and pleasing to us.
Translation
May for us be auspicious beneficial those waters and tenacious material elements which preserve rlectricity in their inner fold and in midst of whom the self refulgent Divinety witnessing the righteous and unrighteous deeds of men, permeates his essence.
Translation
May the subtle primary element, in the midst where of the Resplendent God pervadeth, watching men’s righteous deeds, who Preserve lighting in their womb, and are beautiful in appearance, bring felicity and bless us.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−यासाम्। अपाम् तन्मात्राणाम्। राजा। १।१०।१। ईश्वरः। नियन्ता। वरुणः। १।३।३। वृणोति सर्वं, व्रियते अन्यैरिति वरुणः। सर्व−वरणीयः परमेश्वरः। याति। गच्छति। व्याप्नोति। मध्ये। अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। इति मन ज्ञाने-यक्, नस्य धः। अन्तर्वर्त्तिनि भागे। सत्य-अनृते। सद्भ्यो हितम्। सत्-यत्। सत्यं, यथार्थं, तथ्यम्। न ऋतम्। अनृतम् असत्यम्, मिथ्याकरणम्, सत्यं च असत्यं च उभे कर्मणी। अव-पश्यन्। दृशिर्-शतृ। अवलोकयन् विजानन्। जनानाम्। १।८।१। जन्मवतां लोकानाम्। अन्यद् गतम् म० १ ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(য়াসাম্) যে তন্মাত্রার মধ্যে) মধ্যে (বরুণঃ) সর্বশ্রেষ্ঠ (রাজা) রাজা পরমেশ্বর (জনানাঃ) সব জীবের (সত্যানৃতে) সত্য ও অসত্যকে (অবপশ্যন্) দেখিয়া (য়াতি) চলেন (য়াঃ) যে (সুবর্ণাঃ) সুরূপা (আপঃ) তন্মাত্রা (অগ্নিং) বিদ্যুৎ অগ্নিকে (গর্ভং) গর্ভের ন্যায় (দধিরে) ধারণ করিয়াছে (তাঃ) সেই তন্মাত্রা (নঃ) আমাদের নিকট (শং) কল্যাণ কারিণী ও (স্যোনাঃ) সুখদায়িনী (ভবন্তু) হউক।।
भावार्थ
যে তন্মাত্রার মধ্যে সর্বশ্রেষ্ঠ রাজা পরমেশ্বর সব জীবের সত্য ও অসত্যকে দেখিয়া কার্য করিতেছেন, যে সুরূপা তন্মাত্রা বিদ্যুৎ অগ্নিকে গর্ভের ন্যায় ধারণ করিয়াছে সেই তন্মাত্রা আমাদের নিকট কল্যাণকারিণী ও সুখদায়িণী হউক।
मन्त्र (बांग्ला)
য়াসাং রাজা বরুণো য়াতি মধ্যে সত্যানৃতে অবপশ্যন্ জনানাম্ যা অগ্নিং গভং দধিরে সুবর্ণাপ্তা ন আপঃ শং স্যোনা ভবন্তু।।
ऋषि | देवता | छन्द
শস্তাতিঃ। আপঃ। ত্রিষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(সূক্ষ্মতন্মাত্রাবিচারঃ) সূক্ষ্ম তন্মাত্রাসমূহের বিচার
भाषार्थ
(যাসাম্) যেসব তন্মাত্রাসমূহের (মধ্যে) মধ্যে (বরুণঃ) সর্বশ্রেষ্ঠ (রাজা) রাজা পরমেশ্বর (জনানাম্) সকল জাত জীবদের (সত্যানৃতে) সত্য এবং অসত্যকে (অবপশ্যন্) অবলোকন করে (যাতি) চলেন, (যাঃ) যেসব (সুবর্ণাঃ) সুন্দর রূপযুক্ত (আপঃ) তন্মাত্রাসমূহ (অগ্নিম্) বিদ্যুৎরূপ অগ্নিকে (গর্ভম্) গর্ভের ন্যায় (দধিরে) ধারণ করেছিল, (তাঃ) সেসব [তন্মাত্রাসমূহ] (নঃ) আমাদের জন্য (শম্) কল্যাণকারী এবং (স্যোনাঃ) সুখদায়ক (ভবন্তু) হোক ॥২॥
भावार्थ
এই তন্মাত্রাসমূহের নিয়ন্তা অর্থাৎ সংযোজক এবং বিয়োজক (বরুণ রাজা) পরমেশ্বর হয়ে থাকেন, তিনিই সব জীবের পুণ্য-পাপকে বিচার করে যথাবৎ ফল দান করেন। তাদের (তন্মাত্রাসমূহের) গুণসমূহ দ্বারা উপকার গ্রহণ করে মনুষ্যদের সুখ ভোগ করা উচিত ॥২॥
भाषार्थ
(যাসাম্ মধ্যে) যে আপঃ-এর মধ্যে, (জনানাম্) মনুষ্যদের (সত্যানৃতে অব পশ্যন্) সত্য তথা অনৃত ব্যবহার দেখে/নিরীক্ষণপূর্বক/বিচক্ষণপূর্বক (রাজা বরুণঃ) জগতের রাজা বরুণ অর্থাৎ পাপনিবারক পরমেশ্বর (যাতি) বিচরণ করেন; (যাঃ) যে (সুবর্ণা) উত্তম বর্ণের আপঃ-এর মধ্যে (অগ্নিম্) অগ্নিকে (গর্ভম্ দধিরে) গর্ভরূপে ধারণ করেছেন, (তাঃ) সেই আপনি (নঃ) আমাদের (শং) শান্তিপ্রদ এবং (স্যোনাঃ) সুখদায়ক (ভবন্তু) হন।
टिप्पणी
[আপঃ হল হৃদয়স্থ আপঃ (অথর্ব০ ১০।২।১১)। পরমেশ্বর বরুণ এই আপঃ-এর মধ্যে বিচরণ করছেন। ঈশ্বরঃ সর্বভূতানাং হৃদ্দেশেঽর্জুন তিষ্ঠতি (গীতা)। এই আপঃ, অগ্নিঃ নামের পরমেশ্বরকে গর্ভরূপে ধারণ করেছে। অগ্নি দাহক, পরমেশ্বর বরুণও পাপদাহক। এটা দর্শানোর জন্য বরুণকে অগ্নিরূপ বলা হয়েছে। পরমেশ্বরের নাম অগ্নি (যজুঃ০ ৩২।১) ।]
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