अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 3
ऋषिः - शन्तातिः
देवता - चन्द्रमाः, आपः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आपः सूक्त
1
यासां॑ दे॒वा दि॒वि कृ॒ण्वन्ति॑ भ॒क्षं या अ॒न्तरि॑क्षे बहु॒धा भ॑वन्ति। या अ॒ग्निं गर्भं॑ दधि॒रे सु॒वर्णा॒स्ता न॒ आपः॒ शं स्यो॒ना भ॑वन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठयासा॑म् । दे॒वा: । दि॒वि । कृ॒ण्वन्ति॑ । भ॒क्षम् । या: । अ॒न्तरि॑क्षे । ब॒हु॒ऽधा । भव॑न्ति । या: । अ॒ग्निम् । गर्भ॑म् । द॒धि॒रे । सु॒ऽवर्णा॑: । ता: । न॒: । आप॑: । शम् । स्यो॒ना: । भ॒व॒न्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यासां देवा दिवि कृण्वन्ति भक्षं या अन्तरिक्षे बहुधा भवन्ति। या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठयासाम् । देवा: । दिवि । कृण्वन्ति । भक्षम् । या: । अन्तरिक्षे । बहुऽधा । भवन्ति । या: । अग्निम् । गर्भम् । दधिरे । सुऽवर्णा: । ता: । न: । आप: । शम् । स्योना: । भवन्तु ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सूक्ष्म तन्मात्राओं का विचार।
पदार्थ
(देवाः) सब प्रकाशमय पदार्थ (दिवि) व्यवहार के योग्य आकाश में (यासाम्) जिनका (भक्षम्) भोजन (कृण्वन्ति) करते हैं और (याः) जो [तन्मात्राएँ] (अन्तरिक्षे) सबके मध्यवर्ती आकर्षण में (बहुधा) अनेक रूपों से (भवन्ति) वर्त्तमान हैं और (याः) जिन (सुवर्णाः) सुन्दर रूपवाली (आपः) तन्मात्राओं ने (अग्निम्) [बिजुली] रूप अग्नि को (गर्भम्) गर्भ के समान (दधिरे) धारण किया था, (ताः) वो [तन्मात्राएँ] (नः) हमारे लिये (शम्) शुभ करनेहारी और (स्योनाः) सुख देनेवाली (भवन्तु) होवें ॥३॥
भावार्थ
अपरिमित तन्मात्राएँ ईश्वरकृत परस्पर आकर्षण से संसार के (देवाः) सूर्य, अग्नि, वायु आदि सब पदार्थों के धारण और पोषण का कारण हैं। (देवाः) विद्वान् लोग इनके सूक्ष्म विचार से संसार में अनेक उपकार करके सुख पाते हैं ॥३॥
टिप्पणी
३−यासाम्। अपाम्। देवाः। १।७।१। व्यावहारिकपदार्थाः। प्रकाशमयाः किरणाः। दिवि। १।३०।३। व्यवहारयोग्ये आकाशे। जगति। कृण्वन्ति। कृवि हिंसाकरणयोः। कुर्वन्ति। भक्षम्। भक्ष अदने−कर्मणि घञ्। भक्ष्यम्, अन्नम्, पोषणम्। याः। आपः। अन्तरिक्षे। १।३०।३। मध्ये दृश्यमाने आकर्षणसामर्थ्ये। बहु-धा। विभाषा बहोर्धाऽविप्रकृष्टकाले। पा० ५।४।२०। इति बहु+धा। बहुप्रकारेण, अविप्रकृष्टकाले। भवन्ति। वर्तन्ते। अन्यद् व्याख्यातम् म० १ ॥
विषय
देव-भक्ष्य जल [मेघ-जल]
पदार्थ
१. (दिवि) = धुलोकस्थ सूर्य में (स्थित देव:) = प्रकाशमय किरणे (यासाम्) = जिन जलों का (भक्षं कृण्वन्ति) = भक्षण करती हैं, अर्थात् जो जल सूर्य-किरणों से वाष्पीभूत होकर युलोक की ओर जाते हैं, वे उन किरणों का मानो भोजन ही बन जाते हैं। (या:) = जो जल (अन्तरिक्षे) = अन्तरिक्षलोक में मेषरूप में (बहुधा) = बहुत प्रकार से (भवन्ति) = होते है। सूर्य-किरणों का भोजन बनने के पश्चात् ये जल अन्तरिक्ष में बादलों के रूप में परिणत हो जाते हैं। वे बादल विविध आकारों को धारण करते रहते हैं। (या:) = जो अन्तरिक्षस्थ मेघ-जल (अग्निं गर्भदधिरे) = विधुदूप अग्नि को गर्भ में धारण करते हैं, वे (सुवर्णाः) = उत्तम वर्णवाले हैं (ताः आपः) = वे जल (न:) = हमारे लिए (शम्) = शान्ति देनेवाले व (स्योना:) = सुखकर (भवन्तु) = हों। २. मेघ-जल स्वभावत: अत्यन्त शुद्ध होता है। यह अपने गर्भ में विद्युत् के प्रभाव को लिये हुए होता है। इसप्रकार यह नीरोगता के लिए अत्यन्त श्रेष्ठ है।
भावार्थ
विधुदूप अग्नि को गर्भ में धारण करनेवाले मेघ-जल नौरोगता देनेवाले हैं।
भाषार्थ
यासाम) जिन आपः का (देवाः) दिव्य-तत्त्व (दिवि ) द्युलोक में (भक्षम्) भक्षण (कृण्वन्ति) करते हैं, (या:) जो (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (बहुधा:) बहुत प्रकार के (भवन्ति) होते हैं। (या: अग्निम्) जो अग्नि को [शेष पूर्ववत्।]
टिप्पणी
[भक्षम् =वायु, सूर्य, चन्द्र आदि देव आपः का भक्षण करते हैं, वायु में आप: का निवास है, समुद्र में ज्वार-भाटा होते रहते हैं सूर्य और चन्द्र द्वारा आकर्षण से, यह देवों द्वारा आप: का भक्षण है अन्तरिक्ष में आपः वर्षाऋतु में नानाकृतियों में होते रहते हैं, यह बहुधा द्वारा सूचित किया है।]
विषय
मूलकारण ‘आपः’ और आप्तजनों का वर्णन
भावार्थ
(यासां) जिनके (भक्षं) भोग खाद्य को (देवाः) वायु, मेघ, सूर्य, रश्मि आदि दिव्य पदार्थ ( दिवि ) अपने प्रकाशमय सामर्थ्य में ( कृण्वन्ति ) उत्पन्न करते हैं ( याः ) जो ( अन्तरिक्षे ) अन्तरिक्ष में ( बहुधा ) बहुत से रूपों में ( भवन्ति ) प्रकट होती हैं, ( याः सुवर्णाः, अग्निं गर्भं दधिरे ) जो उत्तम वर्ण=सामर्थ्य से युक्त ( आपः ) अपने ग्रहणकारी सामर्थ्यवान् अग्नि तेज को भीतर धारण करती हैं, ( ताः आपः नः शं स्योनाः भवन्तु ) वे ‘आपः’ हमें कल्याण और सुखकारी हों ।
टिप्पणी
अन्तरिक्ष= राष्ट्र।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
‘सर्वकारणमाप’ इति ज्ञानवान् शंतातिर्ऋषिः । चन्द्रमा उत आपो देवताः । त्रिष्टुप् छन्दः । चतुऋचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
for Peace
Meaning
May the primeval waters of golden hue which evolve into many forms in space, in which the potential forms of divine existence find their food for growth, and which, like a womb, hold within them the vital heat of life, be full of peace, grace and bliss for us.
Translation
Those, that the bounties of Nature consume as food in heaven and that come up often in the midspace; those of beautiful colours, that conceived the fire in their womb, may those elemental waters be gracious and pleasing to us.
Translation
May for us be auspicious and beneficial those waters and tenacious material elements which preserve electricity in their inner folds which become the food of Sun-rays in the heavenly region and which remain in the atmosphere in various forms.
Translation
May they, whom the beautiful objects in the sky nourish, who was manifold in air’s mid-region, who preserve lightning in their womb, and are beautiful in appearance, bring felicity and bless us.
Footnote
‘They' refers to the elements. 'Beautiful objects' mean the air, the sun, the cloud and rays.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−यासाम्। अपाम्। देवाः। १।७।१। व्यावहारिकपदार्थाः। प्रकाशमयाः किरणाः। दिवि। १।३०।३। व्यवहारयोग्ये आकाशे। जगति। कृण्वन्ति। कृवि हिंसाकरणयोः। कुर्वन्ति। भक्षम्। भक्ष अदने−कर्मणि घञ्। भक्ष्यम्, अन्नम्, पोषणम्। याः। आपः। अन्तरिक्षे। १।३०।३। मध्ये दृश्यमाने आकर्षणसामर्थ्ये। बहु-धा। विभाषा बहोर्धाऽविप्रकृष्टकाले। पा० ५।४।२०। इति बहु+धा। बहुप्रकारेण, अविप्रकृष्टकाले। भवन्ति। वर्तन्ते। अन्यद् व्याख्यातम् म० १ ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(দেবাঃ) সব প্রকাশময় পদার্থ (দিবি) আকাশে (স্মাৎ) যাহাদের (ভক্ষং) ভোজন (কৃণ্বন্তি) করে এবং (য়াঃ) যে তন্মাত্রা (অন্তরিক্ষে) সকলের মধ্যবর্তী আকর্ষণে (বহুধা) বহু প্রকারে (ভবন্তি) বর্তমান থাকে। (য়াঃ) যে (সুবর্ণাঃ) সুরূপা (আপঃ) তন্মাত্রা (অগ্নিং) বিদ্যুৎ অগ্নিকে (গর্ভং) গর্ভের ন্যায় ধারণ করিয়াছ (তাঃ) সেই তন্মাত্রা (নঃ) আমাদের নিকট (শং) কল্যাণকারিণী ও (স্যোনাঃ) সুখদায়িণী (ভবন্তু) হউক।।
भावार्थ
সব প্রকাশময় পদার্থ আকাশে যাহাদের ভোজন করিয়া পুষ্টি লাভ করে, যে তন্মাত্রা সকলের মধ্যবর্তী আকর্ষণে বহুভাবে বর্তমান থাকে, যে সুরূপা তন্মাত্রা বিদ্যুৎ অগ্নিকে গর্ভের ন্যায় ধারণ করিয়াছে সেই তন্মাত্রা আমাদের নিকট কল্যাণকারিণী ও সুখদায়িনী হউক।।
मन्त्र (बांग्ला)
য়াসাং দেবা দিবি কৃণন্তি ভক্ষং য়া অন্তরিক্ষে বহুধা ভবন্তি ৷ য়া অগ্নিং গর্ভং দধিরে সুবর্ণাস্তা ন আপঃ শং স্যোনাঃ ভবন্তু।।
ऋषि | देवता | छन्द
শস্তাতিঃ। আপঃ। ত্রিষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(সূক্ষ্মতন্মাত্রাবিচারঃ) সূক্ষ্ম তন্মাত্রাসমূহের বিচার
भाषार्थ
(দেবাঃ) সকল প্রকাশময় পদার্থ (দিবি) ব্যবহারের যোগ্য আকাশে (যাসাম্) যার (ভক্ষম্) ভোজন (কৃণ্বন্তি) করে এবং (যাঃ) যেসব [তন্মাত্রাসমূহ] (অন্তরিক্ষে) সকলের মধ্যবর্তী আকর্ষণে (বহুধা) অনেক রূপে (ভবন্তি) বর্তমান রয়েছে এবং (যাঃ) যেসব (সুবর্ণাঃ) সুন্দর রূপযুক্ত (আপঃ) তন্মাত্রাসমূহ (অগ্নিম্) [বিদ্যুৎরূপ] অগ্নিকে (গর্ভম্) গর্ভের ন্যায় (দধিরে) ধারণ করেছিল, (তাঃ) সেসব [তন্মাত্রাসমূহ] (নঃ) আমাদের জন্য (শম্) কল্যাণকারী এবং (স্যোনাঃ) সুখদায়ক (ভবন্তু) হোক ॥৩॥
भावार्थ
অপরিমিত তন্মাত্রাসমূহ ঈশ্বরকৃত পরস্পর আকর্ষণ দ্বারা সংসারের (দেবাঃ) সূর্য, অগ্নি, বায়ু আদি সব পদার্থসমূহের ধারণ এবং পোষণের কারণ হয়। (দেবাঃ) বিদ্বানগণ এগুলোর সূক্ষ্ম বিচার দ্বারা সংসারে অনেক উপকার করে সুখ প্রাপ্ত হয় ॥৩॥
भाषार्थ
(যাসাম্) যে আপঃ-এর (দেবাঃ) দিব্য-তত্ত্ব (দিবি) দ্যুলোকে (ভক্ষম) ভক্ষণ (কৃণ্বন্তি) করে, (যাঃ) যা (অন্তরিক্ষে) অন্তরিক্ষে (বহুধাঃ) বহু প্রকারের (ভবন্তি) হয়। (যাঃ অগ্নিম্) যা অগ্নিকে [শেষ পূর্ববৎ]।
टिप्पणी
[ভক্ষম্ =বায়ু, সূর্য, চন্দ্র আদি দেব আপঃ-এর ভক্ষণ করে, বায়ুতে আপঃ-এর নিবাস, সমুদ্রে জোয়ার ভাটা চলতে থাকে সূর্য এবং চন্দ্র দ্বারা আকর্ষণের জন্য, ইহা দেবতাদের দ্বারা আপঃ-এর ভক্ষণ। অন্তরিক্ষে আপঃ বর্ষা ঋতুতে নানাকৃতিতে হতে থাকে, ইহা বহুধা দ্বারা সূচিত করা হয়েছে।]
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