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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
    ऋषिः - चातनः देवता - अग्नीन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यातुधाननाशन सूक्त
    1

    वि ल॑पन्तु यातु॒धाना॑ अ॒त्त्रिणो॒ ये कि॑मी॒दिनः॑। अथे॒दम॑ग्ने नो ह॒विरिन्द्र॑श्च॒ प्रति॑ हर्यतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । ल॒प॒न्तु॒ । या॒तु॒धाना॑: । अ॒त्त्रिण॑: । ये । कि॒मी॒दिन॑: ।अथ॑ । इ॒दम् । अ॒ग्ने॒: । न॒: । ह॒वि: । इन्द्र॑: । च॒ । प्रति॑ । ह॒र्य॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि लपन्तु यातुधाना अत्त्रिणो ये किमीदिनः। अथेदमग्ने नो हविरिन्द्रश्च प्रति हर्यतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । लपन्तु । यातुधाना: । अत्त्रिण: । ये । किमीदिन: ।अथ । इदम् । अग्ने: । न: । हवि: । इन्द्र: । च । प्रति । हर्यतम् ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सेनापति के लक्षण।

    पदार्थ

    (ये) जो (यातुधानाः) पीडा देनेहारे, (अत्त्त्रिणः) पेट भरनेवाले (किमीदिनः) यह क्या यह क्या, ऐसा करनेवाले लुतरे [हैं] [वे] (विलपन्तु) विलाप करें। (अथ) और (अग्ने) हे अग्नि (च) और (इन्द्रः) हे वायु, तुम दोनों (इदम्) इस (हविः) होम सामग्री को (प्रति हर्यतम्) अङ्गीकार करो ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे अग्नि, वायु के साथ हवनसामग्री से प्रचण्ड होकर दुर्गन्धादि दोषों का नाश करती है, वैसे ही अग्नि के समान तेजस्वी और वायु के समान वेगवान् महाप्रतापी राजा से दुःखदायी, स्वार्थी, बतबने लोग अपने किये का दण्ड पाकर विलाप करते हैं, तब उसके राज्य में शान्ति होती है ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−विलपन्तु। लप कथने-लोट्। विकृतं लपनं परिवेदनं कुर्वन्तु। यातु-धानाः। मं०−१। पीडाप्रदाः, राक्षसाः। अत्त्त्रिणः। अदेस्त्रिनिश्च। उ० ४।६८। इति अद भक्षणे-त्रिनि। अदनशीलाः, उदरपोषकाः। किमीदिनः। मं० १। विरुद्धबुद्धयः, पिशुनाः। अथ। अनन्तरम् अपि च। इदम्। प्रस्तुतमुपस्थितम्। अग्ने। मं० १। अग्निवत् तेजस्विन् राजन्। हविः। १।४।३। दानम्। हव्यं द्रव्यम्। आह्वानम्। इन्द्रः। १।२।३। परमैश्वर्यवान्। वायुः। वायुवद् वेगवान् राजा। प्रति+हर्यतम्। हर्य गतिकान्त्योः-लोट्। युवां कामयेथां, स्वीकुरुतम् ॥

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    विषय

    सुधार-कार्य में जनता का सहयोग

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार ज्ञानी पुरुषों का प्रचार इसप्रकार से हो कि उससे प्रभावित होकर (ये) = जो (यातुधाना:) = प्रजा में पीड़ा का आधान करनेवाले, (किमीदिन:) = प्रतिक्षण 'क्या खाऊँ' इस राग को आलापनेवाले, (अत्रिण:) = अपने मजे के लिए औरों को खा-जानेवाले [अद् भक्षणे] लोग हैं, वे पश्चात्ताप से युक्त होकर (विलपन्तु) = विलाप करनेवाले हो जाएँ। उन्हें अपने हीन कों का दुःख हो और वे अपने जीवन-सुधार का निश्चय करें। २. इस सुधार कार्य में जनता का सहयोग इस रूप में हो सकता है कि वे इस कार्य के लिए कुछ आहुति दें, अत: वे कहते हैं कि (अथ) = अब हे (अग्रे) = ज्ञान-प्रसारक ब्राह्मण ! आप (च) = और (इन्द्रः) = शासन करनेवाला राजा (इदम्) = इस (न:) = हमारी (हवि:) = आहुति को-कर के रूप में दिये गये धनांश को तथा दान के रूप में दिये गये धन को (प्रतिहर्यतम्) =प्रेमपूर्वक स्वीकार करो। जनता का इस रूप में सहयोग होगा तो यह सुधार-कार्य बड़ी उत्तमता से चलेगा और राष्ट्र का उत्थान हो सकेगा।

    भावार्थ

    जनता के आर्थिक सहयोग से राजा ज्ञान-प्रसारक ब्राह्मणों द्वारा सुधार-कार्य को उन्नति दे।

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    भाषार्थ

    (यातुधानाः) यातनाओं के निधिभूत, (अत्त्रिणः) मांसभक्षी, तथा (ये) जो (किमीदिनः) किम् इदानीम् इस प्रकार प्रश्नपूर्वक भेद लेनेवाले हैं, वे (विलपन्तु) विलाप करें, रोएँ । (अथ) तदनन्तर (अग्ने) हे अग्रणी ! तू (इन्द्रः च) और इन्द्र अर्थात् सम्राट् तुम दोनों, (न.) हम द्वारा प्रस्तुत (हविः) हवि के रूप में पवित्र अन्न को (प्रति हर्यतम्) चाहो, उसकी कामना करो।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में हविः द्वारा राष्ट्रशासन को यज्ञ कहा है, इसलिए अग्नि अर्थात् राष्ट्राग्रणी और इन्द्र अर्थात् सम्राट् को दिये जानेवाले भोजन को हविः कहा है। यातुधान पर-राष्ट्रियगुप्तचर हैं, भेद लेनेवाले। इन्द्रः= इन्द्रश्च सम्राट् (यजुः० ८।३७)।]

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    विषय

    प्रजा के पीड़ाकारियों का दमन ।

    भावार्थ

    ( यातुधानाः ) पीड़ा देने वाले ( अत्रिणः ) दूसरों के जान, माल हड़प जाने वाले ( ये ) जो (किमीदिनः ) दूसरों के जान माल को कुछ भी न समझने वाले, नृशंस लोग हैं वे ( विलपन्तु ) तेरे उपदेश को पाकर नाना प्रकार से विलाप करें, अपने सब कर्मों का प्रायश्चित्त करें। ( अथ ) उसके बाद हे ( अग्ने ) सदुपदेश का प्रकाश देने वाले उपदेशक ! आप और ( इन्द्रः च ) और इन्द्र अर्थात् ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता राजा इस प्रकार तुम दोनों ( नः ) हमारा ( हविः ) दिये हुए अन्न या षष्ठांश बलि या हमारे अभिनन्दन की पुकारों को, या हमारे दान को ( प्रति हर्यतम् ) चाहो ।

    टिप्पणी

    नोट:- अर्थात् हे उपदेशक ब्राह्मण ! तथा हे राजन् ? तुम जब इस प्रकार दुष्टों के सुधार का यत्न करते हो तो हम प्रजाजन भी तुम्हें दान या कर आदि नियम पूर्वक देते हैं। ये दोनों शक्तियां मिलकर दुष्टों का सुधार करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः । अग्निर्देवता । १-४, ६, ७ अनुष्टुभः ५, त्रिष्टुप् । सप्तर्चं सूक्तम् ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Elimination of Negative Forces

    Meaning

    Let the antisocial forces that sneer, chatter, disvalue and eat up the resources of society lament, and then you and Indra, wielders of the bolt of justice and punishment, pray accept our homage for the nation’s social yajna.

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    Translation

    May the deceits, who are vagrants and vile informers, mourn, then O adorable Lord, adorable may and resplendent, accept our this oblation.

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    Translation

    O' Ye ruler and Commander. Those anti-social elements who are greedy and devourers of others be made to lament over their offences and O Ye active and mighty ones, please, accept your fixed part of tax from us.

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    Translation

    Let tormentors, marauders and cruel persons, repent for their deeds, through the advice of a preacher. May ye both, the preacher and the king accept this offer of ours.

    Footnote

    People offer money to the preacher to help him in bringing sinful persons on the path of virtue, and pay taxes to the king for preserving good administration and punishing the law-breakers.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−विलपन्तु। लप कथने-लोट्। विकृतं लपनं परिवेदनं कुर्वन्तु। यातु-धानाः। मं०−१। पीडाप्रदाः, राक्षसाः। अत्त्त्रिणः। अदेस्त्रिनिश्च। उ० ४।६८। इति अद भक्षणे-त्रिनि। अदनशीलाः, उदरपोषकाः। किमीदिनः। मं० १। विरुद्धबुद्धयः, पिशुनाः। अथ। अनन्तरम् अपि च। इदम्। प्रस्तुतमुपस्थितम्। अग्ने। मं० १। अग्निवत् तेजस्विन् राजन्। हविः। १।४।३। दानम्। हव्यं द्रव्यम्। आह्वानम्। इन्द्रः। १।२।३। परमैश्वर्यवान्। वायुः। वायुवद् वेगवान् राजा। प्रति+हर्यतम्। हर्य गतिकान्त्योः-लोट्। युवां कामयेथां, स्वीकुरुतम् ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (য়ে) যাহারা (য়াতুধান্যঃ) পরপীড়ক (অন্দ্রিণঃ) ভোজনপ্রিয় পেটুক (কিমীদিনঃ) পরনিন্দুক, (বিলপন্তু) তাহারা বিলাপ করুক (অথ) এবং (অগ্নে) হে অগ্নিতুল্য পরাক্রমী ও (ইন্দ্রঃ) বিদ্যুৎ তুল্য বেগবান রাজন! (ইদম্) এই (হবিঃ) হোম সামগ্রীকে প্রতিহয়তম্) স্বীকার কর।।
    ‘অন্দ্বিণ’ অদনশীলাঃ উদরপোষকাঃ। অদ ভক্ষণে ত্রিনি। ‘কিমীদিনঃ’ ‘ইহা কি ইহা কি?' এইরূপ অনুসন্ধান প্রিয় পরনিন্দুক।

    भावार्थ

    হে রাজন! তুমি অগ্নিতুল্য প্রতাববান এবং বিদ্যুৎ তুল্য বেগবান। যাহারা পরপীড়ক, ভোজন প্রিয় ও পরনিন্দুক তাহারা বিলাপ করুক। আমাদের এই হোম সামগ্রী তুল্যকে গ্রহণ কর।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    বিলপন্তু য়াতুধানা আন্দ্রিণো য়ে কিমীদিনঃ ৷ অথেদমগ্নে নো হবিরিন্দ্রশ্চ প্রতি হর্য়্যতম্।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    চাতনঃ। অগ্নিঃ। অনুষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (সেনাপতিলক্ষণানি) সেনাপতির লক্ষণ

    भाषार्थ

    (যে) যে (যাতুধানাঃ) পীড়াদায়ক/উৎপীড়িতকারী, (অত্ত্ত্রিণঃ) উদরপোষক (কিমীদিনঃ) এটা কি এটা কি, এমনটা আচরণকারী লুটপাটকারী [হয়/আছে] [তাঁরা] (বিলপন্তু) বিলাপ/শোক করুক । (অথ)(অগ্নে) হে অগ্নি (চ) এবং (ইন্দ্রঃ) হে বায়ু, তোমরা (ইদম্) এই (হবিঃ) হোম সামগ্রী (প্রতি হর্যতম্) অঙ্গীকার/স্বীকার করো ॥৩॥

    भावार्थ

    যেমন অগ্নি, বায়ুর সাথে হবনসামগ্রীর মাধ্যমে প্রচণ্ড হয়ে দুর্গন্ধাদি দোষের নাশ করে, সেভাবেই অগ্নির সমান তেজস্বী ও বায়ুর সমান বেগবান্ মহাপ্রতাপশালী রাজার দ্বারা দুঃখদায়ী, স্বার্থপর লোকেরা নিজের কৃতকর্মের দণ্ড পেয়ে বিলাপ করে, তখন তাঁর রাজ্যে শান্তি হয় ॥৩॥

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    भाषार्थ

    (যাতুধানাঃ) যাতনার নিধিভূত, (অত্রিণঃ) মাংসভক্ষী, ও (যে) যে (কিমীদিনঃ) কিম্ ইদানীম্ এইরকম প্রশ্নপূর্বক ভেদ গ্ৰহণ করে, সে (বিলপন্তু) বিলাপ করুক, ক্রন্দন করুক। (অথ) তদনন্তর (অগ্নে) হে অগ্রণী ! তুমি (ইন্দ্রঃ চ) ও ইন্দ্র অর্থাৎ সম্রাট্ তোমরা দুজন, (নঃ) আমাদের দ্বারা প্রস্তুত (ইদম্) এই (হবিঃ) হবিরূপ পবিত্র অন্ন (প্রতি হর্যতম্) চাও/কামনা/প্রার্থনা/যাচনা করো।

    टिप्पणी

    [মন্ত্রে হবিঃ দ্বারা রাষ্ট্রশাসনকে যজ্ঞ বলা হয়েছে, এইজন্য অগ্নি অর্থাৎ রাষ্ট্রাগ্রণী ও ইন্দ্র অর্থাৎ সম্রাট্কে প্রদত্ত ভোজনকে হবিঃ বলা হয়েছে। যাতুধান হল পর-রাষ্ট্রিয়গুপ্তচর, ভেদ গ্রহণকারী। ইন্দ্রঃ= ইন্দ্রশ্চ সম্রাট্ (যজুঃ০ ৮।৩৭)।]

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