अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - त्रिपदा साम्नी बृहती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
1
अतो॒ वैबृह॒स्पति॑मे॒व ब्र॑ह्म॒ प्रावि॑श॒दिन्द्रं॑ क्ष॒त्रं ॥
स्वर सहित पद पाठअत॑: । वै । बृह॒स्पति॑म् । ए॒व । ब्रह्म॑ । प्र । अ॒वि॒श॒त् । इन्द्र॑म् । क्ष॒त्रम् ॥१०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अतो वैबृहस्पतिमेव ब्रह्म प्राविशदिन्द्रं क्षत्रं ॥
स्वर रहित पद पाठअत: । वै । बृहस्पतिम् । एव । ब्रह्म । प्र । अविशत् । इन्द्रम् । क्षत्रम् ॥१०.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अतिथिसत्कार की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्यो !] (अतः)इस [अतिथिसत्कार] से (वै) निश्चय करके (ब्रह्म) ब्रह्मज्ञानी समूह ने (बृहस्पतिम्) बड़े-बड़े प्राणियों के रक्षक गुण [वेदज्ञान आदि] में (एव) ही (प्र अविशत्) प्रवेश किया है, और (क्षत्रम्) क्षत्रियकुल ने (इन्द्रम्) परमऐश्वर्य में [प्रवेश किया है] ॥५॥
भावार्थ
इस चक्ररूप संसार मेंयही नियम सदा से है कि ब्रह्मज्ञानियों ने वेदज्ञान आदि से और क्षत्रियों ने परमऐश्वर्य बढ़ाने से प्रतिष्ठा पायी है ॥५॥
टिप्पणी
५−(प्र अविशत्) प्रविष्टमभवत्। अन्यत्पूर्ववत्-म० ४ ॥
विषय
'ब्रह्म+क्षत्र' का उत्थान
पदार्थ
१. (अत:) = इसप्रकार राजा के द्वारा विद्वान् व्रात्य का मान करने से (वै) = निश्चयपूर्वक (ब्रह्म च क्षत्रं च) = ब्रह्म और क्षत्र-ज्ञान और बल-दोनों (उदतिष्ठताम्) = उन्नत होते हैं-उथित होते हैं। (ते) = वे ब्रहा और (क्षत्र अब्रुताम्)-कहते हैं (इति) = कि (कं प्रविशाव) = हम किसमें प्रवेश करें। २. (अत:) = इस राजा द्वारा व्रात्य के सत्कार से उत्पन्न हुआ-हुआ ब्रह्म-ज्ञान (वै) = निश्चय से (बृहस्पतिं एव) = ब्रह्मणस्पति-वेदज्ञ विद्वान् पुरोहित में ही प्रविशतु-प्रवेश करे तथा वा उसीप्रकार निश्चय से क्षत्रम्-बल इन्द्रम् राष्ट्रशत्रुओं के विदारक राजा में प्रवेश करे, (इति) = यह निर्णय ठीक है। ३. (अत:) = इस निर्णय के होने पर (वै) = निश्चय से (ब्रह्म) = ज्ञान (बृहस्पतिं एवं प्राविशत्) = बृहस्पति में ही प्रविष्ट हुआ और (क्षत्रं इन्द्रम्) = बल ने शत्रुविदारक राजा में आश्रय किया।
भावार्थ
राजा द्वारा विद्वान् व्रात्यों का आदर करने पर राष्ट्र पुरोहित बृहस्पति ब्रह्मसम्पन्न होता है, शत्रुविदारक राजा बल-सम्पन्न होता है। ब्रह्म व क्षत्र मिलकर राष्ट्र के उत्थान का कारण बनते हैं।
भाषार्थ
(अतः) इस लिये (वै) निश्चय से (बृहस्पतिम्, एव) बृहस्पति में ही (ब्रह्म) ब्राह्मधर्म (प्राविशत्) प्रवेश पाया, और (इन्द्रम्) इन्द्र में (क्षत्रम्) क्षात्रधर्म प्रवेश पाया।
विषय
व्रात्य का आदर, ब्राह्मबल और क्षात्रबल का आश्रय।
भावार्थ
(अतः) उस विद्वान् प्रजापति रूप आचार्य से ही (ब्रह्म च) ब्रह्म-वेद और वेदज्ञ ब्राह्मण और (क्षत्रं च) क्षात्रबल और वीर्यवान् क्षत्रिय (उत् अतिष्ठताम्) उत्पन्न होते हैं। (ते अब्रूताम्) वे दोनों कहते हैं। (कम् प्रविशाव) हम दोनों ब्रह्मबल और क्षात्रबल कहां प्रविष्ट होकर रहें। (अतः) इस व्रात्य से उत्पन्न (ब्रह्म) ब्रह्मबल, ब्रह्मज्ञान, वेद और ब्राह्मण लोग (बृहस्पतिम् एव प्रविशतु) वृहस्पति परमेश्वर या महान् वेदज्ञ का आश्रय लें और (क्षत्रम्) क्षात्रबल, वीर्य (इन्दं प्रविशतु) एैश्वर्यवान् राजा का आश्रय लें। (तथा वा इति) ब्रह्म और क्षत्र दोनों को ‘तथाऽस्तु’ कह कर स्वीकार करता है। (अतः वै) निश्चय से उस व्रात्य आचार्य प्रजापति से उत्पन्न (ब्रह्म) ब्रह्मबल (बृहस्पतिम् एव) बृहस्पति आचार्य में (प्र अविशत्) प्रविष्ट है। और (क्षत्रम् इन्द्रं प्र अविशत्) क्षात्रबल राजा के आधीन होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ द्विपदासाम्नी बृहती, २ त्रिपदा आर्ची पंक्तिः, ३ द्विपदा प्राजापत्या पंक्तिः, ४ त्रिपदा वर्धमाना गायत्री, ५ त्रिपदा साम्नी बृहती, ६, ८, १० द्विपदा आसुरी गायत्री, ७, ९ साम्नी उष्णिक्, ११ आसुरी बृहती। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
Then Brahma entered Brhaspati, and Kshatra entered Indra, the ruling power. (The kshatriya finds fulfilment in the glory of the social order, and the Brahmana, in the vision of Divine Knowledge.)
Translation
From him, verily, the intellectual power entered into the lord of knowledge and the rulling power into the resplendent army-chief.
Translation
Therefore, the knowledge enters into Brihaspati and the Administrative power into Indra.
Translation
Hence, spiritual-minded people learnt the Vedas for moral protection of mankind and warlike people learnt the art of administration.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(प्र अविशत्) प्रविष्टमभवत्। अन्यत्पूर्ववत्-म० ४ ॥
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