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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदासुरी गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    1

    इ॒यं वा उ॑पृथि॒वी बृह॒स्पति॒र्द्यौरे॒वेन्द्रः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒यम् । वै । ऊं॒ इति॑ । पृ॒थि॒वी । बृह॒स्पति॑ । द्यौ: । ए॒व । इन्द्र॑: ॥१०.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इयं वा उपृथिवी बृहस्पतिर्द्यौरेवेन्द्रः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इयम् । वै । ऊं इति । पृथिवी । बृहस्पति । द्यौ: । एव । इन्द्र: ॥१०.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 10; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथिसत्कार की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (इयम्) यह (पृथिवी)पृथिवी [भूमि का राज्य] (वै) निश्चय करके (उ) ही (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े प्राणियों का रक्षक गुण है, (द्यौः) प्रकाशमान राजनीति (एव) ही (इन्द्रः) परमऐश्वर्य है ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्य संसार मेंअतिथि सत्कार करके और उससे शिक्षा पाके राज्यपालन से प्राणियों की रक्षा करनेकी, और राजनीति से ऐश्वर्य बढ़ाने की योग्यता पावें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(इयम्) दृश्यमाना (वै) (उ) (पृथिवी) भूमिराज्यम् (बृहस्पतिः) महतां प्राणिनां रक्षको गुणः (द्यौः) दिवुद्युतौ गतौ च-डिवि। प्रकाशमाना राजनीतिः (एव) (इन्द्रः) परमैश्वर्यम् ॥

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    विषय

    पृथिवी+द्यौ [ज्ञान व बल]

    पदार्थ

    १. (इयं वा उ पृथिवी) = यह पृथिवी ही निश्चय से (बृहस्पति:) = बृहस्पति है, (द्यौः एव इन्द्रः) = द्युलोक ही इन्द्र है। जैसे पृथिवी व धुलोक माता व पिता के रूप में होते हुए सब प्राणियों का धारण करते हैं [द्यौष्पिता, पृथिवीमाता], इसीप्रकार बृहस्पति व इन्द्र-ज्ञानी पुरोहित व राजा मिलकर राष्ट्र का धारण करते हैं। २. (अयं वा उ अग्नि:) = निश्चय से यह अग्नि ही ब्रह्म-ज्ञान है और (असौ आदित्यः क्षत्रम्) = वह आदित्य क्षत्र-बल है। ज्ञान ही राष्ट्र को ले-चलनेवाला 'अग्रणी' है। जैसे उदय होता हुआ सूर्य कृमियों का संहार करता है, उसीप्रकार क्षत्र व बल राष्ट्रशत्रुओं का उपमर्दन करनेवाला आदित्य है। ३. (एनम्) = इस व्यक्ति को (ब्रह्म आगच्छति) = ज्ञान समन्तात् प्राप्त होता है। यह (ब्रह्मवर्चसी भवति) = ब्रह्मवर्चसवाला होता है, (य:) = जो (पृथिवीं बृहस्पतिम्) = पृथिवी को बृहस्पति के रूप में तथा अग्निं ब्रह्म-पृथिवी के मुख्य देव अग्नि को बृहस्पति के मुख्य गुण 'ब्रह्म' [ज्ञान] के रूप में वेद-जानता है, ४. (एनम्) = इस व्यक्ति को (इन्द्रियम् आगच्छति) = समन्तात् वीर्य [बल] प्राप्त होता है, तथा यह (इन्द्रवान् भवति) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाला होता है जो (आदित्यं क्षत्रम्) = सूर्य को बल के रूप में तथा (दिव्यम्) = सूर्याधिष्ठान द्युलोक को (इन्द्रम्) = बल के अधिष्ठानभूत राजा के रूप में देखता है।

    भावार्थ

    हम ज्ञान को ही माता के रूप में जानें 'ज्ञानाधिपति, बृहस्पति' पृथिवी के रूप में है। इसका गुण 'ज्ञान' अग्नि है। इसे प्राप्त करके हम ब्रह्मवर्चस्वी हो। बल को हम रक्षक पिता युलोक के रूप में देखें। द्युलोक इन्द्र है तो उसका मुख्य देव आदित्य बल है। इस तत्त्व को समझकर हम प्रशस्त, सबल इन्द्रियोंवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (वै, उ) निश्चय से ही, (इयम्) यह (पृथिवी) पृथिवी (बृहस्पतिः) बृहस्पति है, और (द्यौः एव) द्युलोक ही (इन्द्रः) इन्द्र है।

    टिप्पणी

    [बृहस्पतिः= बृहती (छन्दः) + पतिः। बृहती आदि वैदिक छन्दों से युक्त वेदवाणी की रक्षिका = पृथिवी। क्योंकि पृथिवीस्थ मनुष्यजाति, वेदों के स्वाध्याय द्वारा वेदवाणी की रक्षिका है। इन्द्रा = इदि परमैश्वर्ये। चन्द्र, तारागण और नक्षत्रादि ऐश्वर्य का आधार द्युलोक है। अतः इन्द्र=द्यौः। पृथिवी ऐश्वर्य का खजाना है। पृथिवी सूर्य से पैदा हुई है, अतः सूर्य बड़ा खजाना है, -- ऐश्वर्य का। और सूर्य द्युलोक का एक अङ्ग है, अतः द्युलोक सूर्य से भी बड़ा खजाना है, - ऐश्वर्य का। अतः इन्द्र अर्थात् ऐश्वर्य का आधार है, - द्युलोक।]

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    विषय

    व्रात्य का आदर, ब्राह्मबल और क्षात्रबल का आश्रय।

    भावार्थ

    (इयम् वा उ पृथिवी बृहस्पतिः) यह पृथिवी ही बृहस्पति है और (द्यौः एव इन्द्रः) यह द्यौ इन्द्र है। अर्थात् बृहस्पति पृथिवी के समान सर्वाश्रय है (अयं वा उ अग्निः ब्रह्म) यह ब्रह्म ही अग्नि है और (असौ आदित्यः क्षत्रम्) यह आदित्य ‘क्षत्र’ है। अर्थात् ब्रह्म अग्नि के समान प्रकाशमान है और क्षत्रबल सूर्य के समान तेजस्वी है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ द्विपदासाम्नी बृहती, २ त्रिपदा आर्ची पंक्तिः, ३ द्विपदा प्राजापत्या पंक्तिः, ४ त्रिपदा वर्धमाना गायत्री, ५ त्रिपदा साम्नी बृहती, ६, ८, १० द्विपदा आसुरी गायत्री, ७, ९ साम्नी उष्णिक्, ११ आसुरी बृहती। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Hence this earth is Brhaspati and Brhaspati is earth, stability, and the heaven of light is Indra and Indra is heaven and brilliance, the glory.

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    Translation

    This earth, verily is Brhaspati (the lord of knowledge) and the heaven itself is the Indra (the resplendent army-chief).

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    Translation

    So, indeed this earth is Brihaspati and the heavenly regian is Indra.

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    Translation

    This rule over Earth conduces to moral uplift of mankind and statesmanship to efficient administration.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(इयम्) दृश्यमाना (वै) (उ) (पृथिवी) भूमिराज्यम् (बृहस्पतिः) महतां प्राणिनां रक्षको गुणः (द्यौः) दिवुद्युतौ गतौ च-डिवि। प्रकाशमाना राजनीतिः (एव) (इन्द्रः) परमैश्वर्यम् ॥

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