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अथर्ववेद के काण्ड - 16 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 4
    ऋषिः - सूर्य देवता - परोष्णिक् छन्दः - यम सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
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    व॑स्यो॒भूया॑य॒वसु॑मान्य॒ज्ञो वसु॑ वंसिषीय॒ वसु॑मान्भूयासं॒ वसु॒ मयि॑ धेहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒स्य॒:ऽभूया॑य । वसु॑ऽमान । य॒ज्ञ: । वसु॑ । वं॒शि॒षी॒य॒ । वसु॑ऽमान् । भू॒या॒स॒म् । वसु॑ । मयि॑ । धे॒हि॒ ॥९.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वस्योभूयायवसुमान्यज्ञो वसु वंसिषीय वसुमान्भूयासं वसु मयि धेहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वस्य:ऽभूयाय । वसुऽमान । यज्ञ: । वसु । वंशिषीय । वसुऽमान् । भूयासम् । वसु । मयि । धेहि ॥९.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 9; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सुख की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (वस्योभूयाय) अधिकश्रेष्ठ पद पाने के लिये [हमारा] (यज्ञः) यज्ञ [देवपूजा, संगतिकरण औरदानव्यवहार] (वसुमान्) श्रेष्ठ गुणवाला [हो], (वसु) श्रेष्ठ पद (वंशिषीय) मैंमाँगूँ, (वसुमान्) श्रेष्ठ पदवाला (भूयासम्) मैं हो जाऊँ, [हे परमात्मन् !] (वसु) श्रेष्ठ पद (मयि) मुझ में (धेहि) धारण कर ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमात्मा मेंविश्वास कर के यह प्रयत्न करे कि परोपकार द्वारा संसार के भीतर श्रेष्ठ सेश्रेष्ठ पद पावे ॥४॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः ॥इत्येकत्रिंशः प्रपाठकः ॥इति षोडशं काण्डम् ॥इतिश्रीमद्राजाधिराजप्रथितमहागुणमहिमश्रीसयाजीरावगायकवाड़ाधिष्ठितबड़ोदेपुरीगतश्रावणमासदक्षिणापरीक्षायाम् ऋक्सामाथर्ववेदभाष्येषु लब्ददक्षिणेन श्रीपण्डितक्षेमकरणदासत्रिवेदिना कृते अथर्ववेदभाष्ये षोडशं काण्डं समाप्तम्॥

    टिप्पणी

    ४−(वस्योभूयाय) वसु-ईयसुन्, ईलोपः+भू सत्तायां प्राप्तौ च-क्यप्।श्रेष्ठतरपदप्राप्तये (वसुमान्) श्रेष्ठगुणवान् (यज्ञः) देवपूजासंगतिकरणदानव्यवहारः (वसु) श्रेष्ठपदम् (वंशिषीय) अ० ९।१।१४। वनु याचने-आशीर्लिङि छान्दसं रूपम्। अहंवनिषीय। याचिषीय (वसुमान्) श्रेष्ठपदयुक्तः (वसु) श्रेष्ठपदम् (मयि)पुरुषार्थिनि (धेहि) धारय ॥

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    विषय

    वस-प्राप्ति

    पदार्थ

    १. (वस्यः भूयाय) = ऐश्वर्य की वृद्धि के लिए (वसुमान् भूयासम्) = मैं प्रशस्त वसुवाला बनूँ। मेरा धन प्रशस्त हो, अर्थात् धन का विनियोग प्रशंसनीय रूप में ही करे। वह भोगविलास में व्ययित न होकर लोकहित के कार्यों में-यज्ञों में व्ययित हो। मैं इस बात को न भूल जाऊँ कि (वसुमान् यज्ञः) = यज्ञ प्रशस्त धनवाला है, अर्थात् यज्ञों में धन का विनियोग धन को बढ़ानेवाला ही है। (वसु वंशिषीय) = मैं वसु का संभजन [वन् संभक्ती] करनेवाला बनूं। धन को प्रशस्तरूप में बढ़ानेवाली दो ही बातें हैं कि वह यज्ञों में विनियुक्त हो तथा हम धन का समुचित संविभाग करनेवाले बनें। समुचित संविभाग यही है कि उसमें आधार देने योग्य लूले-लंगड़े व्यक्तियों को भी भाग प्राप्त हो। लोकोहित के कार्यों में लगे हुए लोग भी उसमें भाग प्राप्त करें तथा राजा को भी उसमें से उचित कर मिले। आध्रश्चियं मन्यमान: तुरश्चिद् राजा चिद् यं भगं मक्षीत्याह । हे प्रभो! इस प्रकार धन का समुचित संविभाग करनेवाले (मयि) = मुझमें वसु (धेहि) = प्रशस्त धन धारण कीजिए।

    भावार्थ

    हम धनों का यज्ञों में विनियोग करें तथा धनों का उचित संविभाग करते हुए प्रशस्त धनों के पात्र बनें।

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    भाषार्थ

    (यज्ञः) राष्ट्रयज्ञ (वसुमान्) सम्पत्ति वाला होता है [सम्पत्ति के विना राष्ट्र यज्ञ सफल नहीं हो सकता]। (वस्योभूयाय) अधिक वसुमान् अर्थात् सम्पत्ति वाला होने के लिये, (वसु) सम्पत्ति की (वंशिषीय) कामना वाला मैं राजा होऊं। (वसुनाम् भूयासम्) हे परमेश्वर ! आप की कृपा से मैं सम्पत्ति वाला होऊं (मयि) मुझ में हे परमेश्वर ! (वसु) सम्पत्ति (धेहि) स्थापित कीजिये।

    टिप्पणी

    [राजा राष्ट्र को, यज्ञिय भावना से चलाने के लिये, परमेश्वर की कृपा का आह्वान कर, राष्ट्रोद्योग द्वारा सम्पत्ति की कामना करता है, परराष्ट्र पर आक्रमण द्वारा नहीं। वंशिषीय = वश कान्तौ, कान्तिः= कामना। अनुस्वारो वैदिकः। वश्मि कान्तिकर्मा (निरु० २।६), अथवा "वनु याचने" वंसिषीय?]।

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    विषय

    ऐश्वर्य प्राप्ति।

    भावार्थ

    अति अधिक ऐश्वर्यवान् होने के लिये (यज्ञः वसुमान्) यज्ञ, प्रजापति स्वयं वसु ऐश्वर्य से युक्त है। उसकी कृपासे मैं स्वयं (वसु) ऐश्वर्य को (वंशिषीय) प्राप्त करूं। मैं (वसुमान् भूयासम्) धनैश्वर्य सम्पन्न होऊं। (मयि) मेरे में हे परमात्मन् ! (वसु धेहि) ऐश्वर्य प्रदान कर। यह समस्त विजयसूक्त अध्यात्म में अन्तः शत्रुओं के वशीकरण पर भी लगते हैं। समस्त विजय करके हम (स्वः) मोक्ष सुख का लाभ करें।

    टिप्पणी

    इति षोडशं काण्ड समाप्तम्। षोडशे नव पर्यायाः अनुवाकद्वयं तथा। शतं तिस्त्रोऽवसानर्चो गण्यन्तेथर्ववेदिमिः॥ वाणवस्वङ्कसोमाब्दे श्रावणे च सिते शनौ। एकादश्यां गतं काण्डं ब्रह्मणः षोडशं शुभम्॥ इति प्रतिष्ठितविद्यालंकार-मीमांसातीर्थविरुदोपशोभित-श्रीमज्जयदेवशर्मणा विरचितेऽथर्वणो ब्रह्मवेदस्यालोकभाष्ये षोडशं काण्डं समाप्तम्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चत्वारि वै वचनानि। १ प्रजापतिः, २ मन्त्रोक्ता देवता च, ३, ४ आसुरी गायत्री, १ आसुरी अनुष्टुप, २ आर्च्युष्णिक्, ३ साम्नी पंक्तिः, ४ परोष्णिक्। चतुर्ऋचं नवमं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Yajna is the way to rise in honour, wealth and excellence. Yajna is the treasure hold of wealth, honour and excellence. Let me have the ambition and effort with competence to win wealth and excellence. I pray I may be blest with wealth, honour and excellence. O lord of wealth and excellence, raise and establish me in abundance and prosperity of the wealth of life.

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    Translation

    For increase in wealth is the wealth-bestowing sacrifice. May I obtain wealth. May I become wealthy. Bestow wealth on me.

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    Translation

    Yajna is Vasuman, this be performed for the increase of prosperity, I may be wealthy, I may attain plenty of wealth. bestow wealth upon me, O Lord.

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    Translation

    For the increase of prosperity, fain would I be wealthy. Sacrifice (Yajna) is synonymous with prosperity. I would win riches. Do Thou bestow, O God, wealth upon me.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(वस्योभूयाय) वसु-ईयसुन्, ईलोपः+भू सत्तायां प्राप्तौ च-क्यप्।श्रेष्ठतरपदप्राप्तये (वसुमान्) श्रेष्ठगुणवान् (यज्ञः) देवपूजासंगतिकरणदानव्यवहारः (वसु) श्रेष्ठपदम् (वंशिषीय) अ० ९।१।१४। वनु याचने-आशीर्लिङि छान्दसं रूपम्। अहंवनिषीय। याचिषीय (वसुमान्) श्रेष्ठपदयुक्तः (वसु) श्रेष्ठपदम् (मयि)पुरुषार्थिनि (धेहि) धारय ॥

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