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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 28/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - दर्भमणिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दर्भमणि सूक्त
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    घ॒र्म इ॑वाभि॒तप॑न्दर्भ द्विष॒तो नि॒तप॑न्मणे। हृ॒दः स॒पत्ना॑नां भि॒न्द्धीन्द्र॑ इव विरु॒जन् ब॒लम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घ॒र्मःऽइ॑व। अ॒भि॒ऽतप॑न्। द॒र्भ॒। द्वि॒ष॒तः। नि॒ऽतप॑न्। म॒णे॒। हृ॒दः। स॒ऽपत्ना॑नाम्। भि॒न्ध्दि॒। इन्द्रः॑ऽइव। वि॒ऽरु॒जन्। ब॒लम् ॥२८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घर्म इवाभितपन्दर्भ द्विषतो नितपन्मणे। हृदः सपत्नानां भिन्द्धीन्द्र इव विरुजन् बलम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घर्मःऽइव। अभिऽतपन्। दर्भ। द्विषतः। निऽतपन्। मणे। हृदः। सऽपत्नानाम्। भिन्ध्दि। इन्द्रःऽइव। विऽरुजन्। बलम् ॥२८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 28; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सेनापति के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (मणे) हे प्रशंसनीय (दर्भ) दर्भ ! [शत्रुविदारक सेनापति] (घर्मः इव) ग्रीष्म के समान (अभितपन्) सर्वथा तपता हुआ (द्विषतः) विरोधियों को (नितपन्) सन्ताप देता हुआ तू, (बलम्) हिंसक को (विरुजन्) नाश करते हुए (इन्द्रः इव) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवान् पुरुष] के समान, (सपत्नानाम्) वैरियों के (हृदः) हृदयों को (भिन्द्धि) तोड़ दे ॥३॥

    भावार्थ

    सेनापति महाप्रतापी शूरों के समान पराक्रम करके शत्रुओं को हरावे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(घर्मः) ग्रीष्म (इव) यथा (अभितपन्) अभितः सन्तापं कुर्वन् (दर्भ) हे शत्रुविदारक (द्विषतः) विरोधिनः पुरुषान् (नितपन्) सन्तापयन् (मणे) हे प्रशंसनीय (हृदः) हृदयानि (सपत्नानाम्) शत्रूणाम् (भिन्द्धि) विदारय (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (इव) यथा (विरुजन्) नाशयन् (बलम्) बल वधे-अच्। हिंसकं दैत्यम् ॥

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    विषय

    सपत्न-हृदय-भेदन

    पदार्थ

    १. (धर्मः इव) = सूर्य के समान (अभितपन्) = दीप्त होते हुए (दर्भ मणे) = शत्रु-हिंसक वीर्यमणे! तू (द्विषतः नितपन्) = हमारे साथ प्रीति न करनेवाले रोगरूप शत्रुओं को नितरां संतप्त करते हुए (सपत्नानाम्) = इन शत्रुओं के (हृदः भिन्धि) = हृदयों को विदीर्ण कर दे। २. (इन्द्रः इव) = इन्द्र की भौति-शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले जितेन्द्रिय पुरुष की भांति (बलम्) = शत्रु-सैन्य को (विरुजम्) = [रुजो भंगे] भग्न करनेवाली हो।

    भावार्थ

    वीर्य ही दर्भमणि है-रोगरूप शत्रुओं का विद्रावण करनेवाली है। यह सूर्य की भाँति दीप्त होती हुई रोग-सैन्य को संतस करके नष्ट कर डाले।

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    भाषार्थ

    (द्विषतः) द्वेषी-शत्रुदल का (दर्भ) विदारण करनेवाले (मणे) शिरोमणिरूप हे सेनापति! (घर्मः इव) ग्रीष्मऋतु के सूर्य के सदृश (अभितपन्) शत्रुओं के समुख तपता हुआ, दमदमाता हुआ, (नितपन्) नितरां तपता हुआ, दमदमाता हुआ तू (बलम्) शत्रुओं के सैनिक-बल को (विरुजं=विरुजन्) विशेषतया तोड़ता-फोड़ता हुआ (इन्द्रः इव) सम्राट् के सदृश, या प्रबलरूप में उमड़े हुए मेघ को तोड़ती-फोड़ती हुई विद्युत् के सदृश, (सपत्नानाम्) शत्रुओं के (हृदः) हृदयों को, उनके हृदयस्थ धैर्यों को (भिन्धि) छिन्न-भिन्न कर दे।

    टिप्पणी

    [विरुजं=विरुजन् (पदपाठे)। अथवा छान्दसः “कमुल्” प्रत्ययः। इन्द्रः=इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा (यजुः० ८।३७), तथा इन्द्रः=विद्युत् (निरु० १०।१।८)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Darbha Mani

    Meaning

    O Darbha, O Jewel, blazing like fire and the sun, scorching the jealous, break the rivals to the very core of the heart, like Indra, lightning, striking and breaking the cloud asunder.

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    Translation

    Scorching the malicious one from all sides like summer, and afflicting him badly, O blessing, may you split hearts of the rivals, just as the lightening splits the clouds (vala).

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    Translation

    O men, let this Praiseworthy Darbha. Glowing like heat, burning the spirit of foemen break the heart of the enemies like Indra, the electricity which rend Bala, the cloud.

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    Translation

    O darbha-mani, completely burning like the cauldron, reduce the enemy to ashes; pierce the hearts of the foes, and smash their forces like electricity.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(घर्मः) ग्रीष्म (इव) यथा (अभितपन्) अभितः सन्तापं कुर्वन् (दर्भ) हे शत्रुविदारक (द्विषतः) विरोधिनः पुरुषान् (नितपन्) सन्तापयन् (मणे) हे प्रशंसनीय (हृदः) हृदयानि (सपत्नानाम्) शत्रूणाम् (भिन्द्धि) विदारय (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (इव) यथा (विरुजन्) नाशयन् (बलम्) बल वधे-अच्। हिंसकं दैत्यम् ॥

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