अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 4
ऋषिः - भृगुः
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - आस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - दर्भ सूक्त
1
ती॒क्ष्णो राजा॑ विषास॒ही र॑क्षो॒हा वि॒श्वच॑र्षणिः। ओजो॑ दे॒वानां॒ बल॑मु॒ग्रमे॒तत्तं ते॑ बध्नामि ज॒रसे॑ स्व॒स्तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठती॒क्ष्णः। राजा॑। वि॒ऽस॒स॒हिः। र॒क्षः॒ऽहा। वि॒श्वऽच॑र्षणिः। ओजः॑। दे॒वाना॑म्। बल॑म्। उ॒ग्रम्। ए॒तत्। तम्। ते॒। ब॒ध्ना॒मि॒। ज॒रसे॑। स्व॒स्तये॑ ॥३३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
तीक्ष्णो राजा विषासही रक्षोहा विश्वचर्षणिः। ओजो देवानां बलमुग्रमेतत्तं ते बध्नामि जरसे स्वस्तये ॥
स्वर रहित पद पाठतीक्ष्णः। राजा। विऽससहिः। रक्षःऽहा। विश्वऽचर्षणिः। ओजः। देवानाम्। बलम्। उग्रम्। एतत्। तम्। ते। बध्नामि। जरसे। स्वस्तये ॥३३.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (तीक्ष्णः) तीक्ष्ण (राजा) राजा, (विषासहिः) सदा विजयी, (रक्षोहा) राक्षसों का नाश करने हारा, (विश्वचर्षणिः) सर्वद्रष्टा और (देवानाम्) विद्वानों का (ओजः) पराक्रम और (एतत्) यह [दृश्यमान] (उग्रम्) उग्र (बलम्) बल है, (तम्) उस [परमात्मा] को (ते) तेरी (जरसे) स्तुति बढ़ाने [वा निर्बलता हटाने] के लिये और (स्वस्तये) मङ्गल के लिये (बध्नामि) मैं धारण करता हूँ ॥४॥
भावार्थ
मनुष्य सर्वशक्तिमान् सर्वदर्शक जगदीश्वर को हृदय में धारण करके उपाय के साथ निर्बलता हटावें और सामर्थ्य बढ़ाकर स्तुति प्राप्त करते हुए आनन्द भोगें ॥४॥
टिप्पणी
४−(तीक्ष्णः) तीव्रः (राजा) शासकः (विषासहिः) अ०१।२९।६। षह अभिभवे-यङ्-कि। अतिशयेन विजयी (रक्षोहा) राक्षसानां हन्ता (विश्वचर्षणिः) अ०४।३२।४। सर्वद्रष्टा (ओजः) पराक्रमः (देवानाम्) विदुषाम् (बलम्) सामर्थ्यम् (उग्रम्) प्रचण्डम् (एतत्) दृश्यमानम् (तम्) परमात्मानम् (ते) तव (बध्नामि) धारयामि (जरसे) जरां स्तुतिं प्राप्तुम्। जरां निर्बलतां परिहर्तुम् (स्वस्तये) मङ्गलाय ॥
विषय
देवानाम् ओजः, अग्रे बलम्
पदार्थ
१. यह (दर्भमणि तीक्ष्णः) = बड़ी तीव्र है-रोगरूप शत्रुओं को बुरी तरह से नष्ट करनेवाली है। (राजा) = यह अपने रक्षक के जीवन को दीप्त बनाती है। (विषासहि:) = रोगों का विशेषरूप से पराभव करनेवाली है। (रक्षोहा) = रोगकृमियों व राक्षसीभावों का विनाश करनेवाली है। (विश्वचर्षणि:) = शरीर में सुरक्षित होने पर सब अंग-प्रत्यंगों को देखनेवाली-उनका यह ध्यान करनेवाली है। २. यह (देवानाम् ओज:) = देववृत्ति के पुरुषों का ओज है। (एतत् उग्रं बलम्) = यह बड़ा तेजस्वी बल है। (तम्) = उस (दर्भ) = [वीर्य]-मणि को (ते) = तुझे (बध्नामि) = बाँधता हूँ-इसे तेरे शरीर में सुरक्षित करता है, जिससे तू (जरसे) = जराकाल तक दीर्घजीवन को प्राप्त करे तथा (स्वस्तये) = कल्याण का भागी हो।
भावार्थ
शरीर में सुरक्षित वीर्य शत्रुओं के लिए भयंकर है। रोगकमियों का यह नाश करता है। यही देवों को ओजस्वी बनाता है। इसे धारण करने से कल्याणमय शतवर्ष का जीवन प्राप्त होता है।
भाषार्थ
(राजा) जगत् का राजा परमेश्वर (तीक्ष्णः)१ तितिक्षावान् है, (विषासहिः) तो भी पराभवकारी है, (रक्षोहा) राक्षस स्वभाववालों का हनन करता है, और (विश्वचर्षणिः) विश्वद्रष्टा है। (देवानाम्) पापकर्मों पर विजय चाहने वालों का वह (ओजः) ओज है, (एतत्) यह (उग्रं बलम्) उग्र बलरूप है, हे विजयेच्छो! (ते) तेरी (जरसे) सुखमयी जरावस्था के लिए (स्वस्तये) और कल्याण के लिए (तम्) उस परमेश्वर को (बध्नामि) तेरे साथ मैं दृढ़ करता हूँ। [देवानाम्; दिव्=विजिगीषा।] [१. तीक्ष्णः= तितिक्षतेऽसौ (उणा० ३.१८)]
इंग्लिश (4)
Subject
Darbha
Meaning
Brilliant, patient and penetrative, ruling light of life, victorious, destroyer of evil, all-watching lover of humanity, this Darbha is the strength and splendour of divinities. With this, O man, I join you for a long full age and all round well being.
Translation
Sharp, shining, subduer, killer of injurious germs, observer of all, vigour of the bounties of Nature, this darbha is a formidable power; that I bind on you for a ripe old age and weal.
Translation
This Darbha mounts over the soil of earth with its vigour, this good one takes its place on the Vedi in the Yajna, the seers of the vedic meanings have this purifying grass and let it purify al] the diseases quelling them for from us.
Translation
Thou art sharp, bright, possessed of various powers to subdue the enemies, germicide, invested with powers of revealing all things, the fierce power and energy of the natural forces (like electricity and water). I bind thee, such as mentioned above, for peace and well-being to attain longevity of life.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(तीक्ष्णः) तीव्रः (राजा) शासकः (विषासहिः) अ०१।२९।६। षह अभिभवे-यङ्-कि। अतिशयेन विजयी (रक्षोहा) राक्षसानां हन्ता (विश्वचर्षणिः) अ०४।३२।४। सर्वद्रष्टा (ओजः) पराक्रमः (देवानाम्) विदुषाम् (बलम्) सामर्थ्यम् (उग्रम्) प्रचण्डम् (एतत्) दृश्यमानम् (तम्) परमात्मानम् (ते) तव (बध्नामि) धारयामि (जरसे) जरां स्तुतिं प्राप्तुम्। जरां निर्बलतां परिहर्तुम् (स्वस्तये) मङ्गलाय ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal