Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 38 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 38/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - गुल्गुलुः छन्दः - एकावसाना प्राजापत्यानुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
    0

    उ॒भयो॑रग्रभं॒ नामा॒स्मा अ॑रि॒ष्टता॑तये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उभयोः॑। अ॒ग्र॒भ॒म्। नाम॑। अ॒स्मै। अ॒रि॒ष्टऽता॑तये ॥३८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उभयोरग्रभं नामास्मा अरिष्टतातये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उभयोः। अग्रभम्। नाम। अस्मै। अरिष्टऽतातये ॥३८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 38; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    रोग नाश करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (उभयोः) दोनों के (नाम) नाम को (अस्मै) इस [पुरुष] के लिये (अरिष्टतातये) कुशल करने को (अग्रभम्) मैंने लिया है ॥३॥

    भावार्थ

    गुग्गुल नदी वा समुद्र के पास के वृक्ष विशेष का निर्यास अर्थात् गोंद होता है, उसको अग्नि पर जलाने से सुगन्ध उठता है, जिससे अनेक रोग नष्ट होते हैं ॥२, ३॥

    टिप्पणी

    ३−(उभयोः) द्वयोः (अग्रभम्) अग्रहीषम् (नाम) संज्ञाम् (अस्मै) पुरुषाय (अरिष्टतातये) अ०३।५।५। शिवशमरिष्टस्य करे पा०४।४।१४३। इति अरिष्ट-तातिल् करोत्यर्थे। क्षेमकरणाय ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (यद्) जो (गुल्गुलु) गुग्गुल (सैन्धवम्) नदीप्रदेशोत्पन्न, (अपि वा) अथवा (यद्) जो गुग्गुल (समुद्रियम्) समुद्रदेशोत्पन्न (असि=अस्ति) है, (उभयोः) इन दोनों का (नाम) नाम (अस्मै) इस व्यक्ति के लिये (अरिष्टतातये) क्षेमविस्तारार्थ, (अग्रभम्) मैं=चिकित्सक ने लिया है। गुग्गुल का सेवन करनेवाले (तस्मात्) उस व्यक्ति से (विष्वञ्चः) नाना देशव्यापी (यक्ष्माः) यक्ष्मा रोग ऐसे (ईरते) कम्पित हो जाते हैं, (इव) जैसे कि [वन्य हिंस्र जन्तु से] (मृगाः अश्वाः) मृग और अश्व कम्पित हो जाते हैं।[ईरते= ईर कम्पने। नाम अग्रभम्=नामनिर्देश करना, ओषध का कथन करना, यक्ष्मरोग की निवृत्ति के लिये।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    यक्ष्मा-विनाश

    पदार्थ

    १. (यत्) = जो (गुल्गुलु) = गुग्गुल (सैन्धवम्) = नदी के तट पर उत्पन्न होनेवाला है, (यद् वा) = अथवा जो (समुद्रियम्) = समुद्र के किनारे (अपि असि) = भी उत्पन्न होनेवाला है। (तस्मात) = उसके प्रयोग से (यक्ष्मा:) = रोग (विष्वञ्च:) = विविध दिशाओं में गतिवाले होते हुए (अश्वा:) = मार्गों का शीघ्रता से व्यापन करनेवाले (मृगा: इव) = मृगों के समान (ईरते) = भाग खड़े होते हैं। २. (अस्मै) = इस रोगी के लिए (आरिष्टतातये) = कल्याण के विस्तार के लिए (उभयो:) = सैन्धव व समुद्रिय दोनों ही गुग्गुलों के (नाम अग्रभम्) = स्वरूप [form] को प्रतिपादित करता हूँ।

    भावार्थ

    गुग्गुल चाहे नदी तट पर उद्भुत हो, चाहे समुद्र तट पर, दोनों ही गुग्गुल यक्ष्मा रोग को भागने में समर्थ हैं। अगले सूक्त में ऋषि 'भृगु अंगिरा:' है-तपस्याग्नि में अपने को परिपक्व करनेवाला अंग-प्रत्यंग में रस के संचारवाला! यह 'कुष्ठ' औषध के प्रयोग से रोगनाश का प्रतिपादन करता है -

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Disease

    Meaning

    I have included both, gulgulu from the river and gulgulu from the sea for this patient’s cure and freedom from disease.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    I have mentioned the name of both for curing (the malady of) this person.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    All kinds of consumption flee away from the patient like wild beasts and horses when the Bdellium which is from the land of rivers and from the land of ocean are there in used in treatment.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    I (a physician) make use of both of these for the removal of the ailment of this patient.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(उभयोः) द्वयोः (अग्रभम्) अग्रहीषम् (नाम) संज्ञाम् (अस्मै) पुरुषाय (अरिष्टतातये) अ०३।५।५। शिवशमरिष्टस्य करे पा०४।४।१४३। इति अरिष्ट-तातिल् करोत्यर्थे। क्षेमकरणाय ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top